भारत इतिहास और विरासत के मामले में दुनिया के सबसे अमीर देशों में से एक है। भारत के इतिहास में कई महान शासकों ने हमारे देश में जन्म लिया है। अलग अलग सदियों में एक से बढ़कर एक राजाओं ने भारत पर राज किया है। इसीलिए इसे महान शासकों का देश कहा जाता है। आज हम आपके साथ ऐसे ही शासकों की सूची लाये हैं, जिन्होंने अपने कुशल नेतृत्व द्वारा हमारे भारत देश पर राज किया है। सूची में उन लोगों को रखा गया है जिन्होंने भारत के किसी भी प्रान्त पर शासन किया हो| इस सूची में कुछ नाम ऐसे भी हो सकते हैं जो सेनापति अथवा मंत्री थे परन्तु अपने राज्य में जिन्होंने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई |
भारत के प्रसिद्ध शासक व भारत के वीर राजाओं के नाम की लिस्ट नीचे हिन्दी मे दी गयी है| इस लिस्ट की मदद से आप जानिए की कौन थे भारत के सबसे महान राजा व पुराने काल के शूरवीर भारतीय सम्राट |
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छत्रपति शिवाजी
छत्रपति शिवाजी, शिवाजी महाराज या शिवाजी राज भोसले भारत के एक महान योद्धा
थे। ये मराठा शासन के बहुत ही लोकप्रिय और सफल शासक हुए। छोटी उम्र से ही
इनमें देशभक्ति की असीम भावना थी। शिवाजी ने अपनी अनुशासित सेना एवं
सुसंगठित प्रशासनिक इकाइयों की सहायता से एक योग्य एवं प्रगतिशील प्रशासन
प्रदान किया। भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में बहुत से लोगों ने शिवाजी के
जीवनचरित से प्रेरणा लेकर भारत की स्वतन्त्रता के लिये अपना तन, मन धन
न्यौछावर कर दिया था।
चन्द्रगुप्त मौर्य भारत के मौर्य वंश के सम्राट थे। इन्होंने ही मौर्य
साम्राज्य की स्थापना की थी। चंद्रगुप्त ने अपने गुरु चाणक्य (कौटिल्य) के
साथ हर ओर अपना साम्राज्य बनाया। मेगस्थनीज ने 4 साल तक चन्द्रगुप्त की सभा
में एक यूनानी राजदूत के रूप में सेवायें दी थी। इन्होंने राज्यचक्र के
सिद्धांतों को लागू कर एक बड़ी सेना का निर्माण किया और अपने साम्राज्य की
सीमाओं का विस्तार करना जारी रखा। चन्द्रगुप्त मौर्य प्राचीन भारत के
इतिहास में एक महत्वपूर्ण राजा हैं। इन्होंने लगभग 24 वर्ष तक भारत पर शासन
किया था।
विश्वप्रसिद्ध चक्रवर्ती सम्राट अशोक एक शक्तिशाली भारतीय मौर्य राजवंश के
महान सम्राट थे। इनकी राजधानी पाटलिपुत्र थी। इनका पूरा नाम देवानांप्रिय
अशोक मौर्य था। इनका विशाल साम्राज्य उस समय से लेकर आज तक का सबसे बड़ा
भारतीय साम्राज्य रहा है। चक्रवर्ती सम्राट अशोक विश्व के सभी महान एवं
शक्तिशाली सम्राटों एवं राजाओं की पंक्तियों में हमेशा शीर्ष स्थान पर रहे
हैं। सम्राट अशोक प्रेम, सहिष्णुता, सत्य और अहिंसावादी जीवनप्रणाली के
सच्चे समर्थक थे। इसीलिए इनका नाम इतिहास में महान परोपकारी सम्राट के रूप
में ही दर्ज हो चुका है।
पृथ्वीराज चौहान, चौहान वंश के राजपूत राजा थे। ये भारतेश्वर, पृथ्वीराज तृतीय, हिन्दूसम्राट, और राय पिथौरा आदि नामों से भी जाने जाते हैं। इन्होंने 20 साल की उम्र में सिंहासन संभालने के बाद अजमेर और दिल्ली राज्यों से अपना शासन शुरू किया। जिसके बाद इन्होंने राजस्थान और हरियाणा आदि कई राज्यों पर शासन किया। भारत के अंतिम हिन्दू राजा के रूप में भी जाने जाते हैं।
कनिष्क कुषाण वंश के एक महान सम्राट थे। ये बौद्ध धर्म के एक महान संरक्षक थे और अभी भी इन्हें भारत के सबसे महानतम बौद्ध राजाओं में से एक के रूप में माना जाता है। ये अपने सैन्य, राजनैतिक एवं आध्यात्मिक उपलब्धियों तथा कौशल हेतु प्रख्यात था। इन्हें “कनिष्क ग्रेट” के रूप में भी जाना जाता है। इनका समय काल सैन्य, राजनीतिक और आध्यात्मिक जीत के लिए स्वर्ण का समय था।
समुद्र्गुप्त गुप्त वंश के उत्तराधिकारी और अपने समय के महान राजा थे। ये
एक उदार शासक, वीर योद्धा और कला के संरक्षक थे। समुद्रगुप्त ने शासन पाने
के लिये राजवंश के एक अस्पष्ट राजकुमार काछा को प्रतिद्वंद्वी मानकर उन्हें
हराया था। ये भारत का एक ऐसे महान शासक थे, जिन्होंने अपने जीवन काल में
कभी भी पराजय का सामना नहीं किया। इसीलिए इनको “भारत का नेपोलियन” भी कहा
जाता था।
महाराणा प्रताप सिंह उदयपुर मेवाड़ में सिसोदिया राजवंश के राजा थे। मुगल काल में जब राजपूताना के अन्य शासकों ने मुगलों से संधी कर ली थी। तब मेवाड़ की भूमि पर महाराणा प्रताप नाम के सूर्य का उदय हुआ। इन्होंने कई सालों तक मुगल सम्राट अकबर के साथ संघर्ष किया। और कई बार इन्होंने मुगलों को युद्ध में हराया भी था। इन्होंने अपना सारा जीवन राष्ट्र, कुल और धर्म की रक्षा के लिए समर्पित कर दिया था। इसीलिए इतिहास में इनका नाम आज भी वीरता और दृढ़ प्रतिज्ञा के लिये अमर है।
विजयनगर साम्राज्य:
कृष्णदेवराय (1509-1529 ई. ; राज्यकाल 1509-1529 ई.) विजयनगर साम्राज्य के सर्वाधिक कीर्तिवान राजा थे। ये स्वयंयं कवि और कवियों के संरक्षक थे। तेलुगु भाषा मेइ उनका काव्य अमुक्तमाल्यद साहित्य का एक रत्न है। इनकी भारत के प्राचीन इतिहास पर आधारित पुस्तक वंशचरितावली तेलुगू के साथ—साथ संस्कृत में भी मिलती है। संभवत तेलुगू का अनुवाद ही संस्कृत में हुआ है। प्रख्यात इतिहासकार तेजपाल सिंह धामा ने हिन्दी में इनके जीवन पर प्रामाणिक उपन्यास आंध्रभोज लिखा है। तेलुगु भाषा के आठ प्रसिद्ध कवि इनके दरबार में थे जो अष्टदिग्गज के नाम से प्रसिद्ध थे। स्वयं कृष्णदेवराय भी आंध्रभोज के नाम से विख्यात थे।
महाराजा रणजीत सिंह सिख साम्राज्य के प्रमुख राजा थे। इन्हें शेर-ए-पंजाब
के नाम से भी जाना जाता है। सिख शासन की शुरुआत करने वाले महाराजा रणजीत
सिंह ने 19वीं सदी में अपना शासन शुरू किया। इन्होंने लाहौर को अपनी
राजधानी बनाया और सन 1802 में अमृतसर की ओर रुख किया। ये नरम दिल वाले राजा
भी थे। इसीलिए इन्हें “पंजाब के महाराजा” के नाम से भी जाना जाता था। इनका
शासन पूरे पंजाब प्रान्त में फैला हुआ था। इन्होंने खालसा नामक एक संगठन
का नेतृत्व भी किया था।
इनका पूरा नाम अब-उल फतह जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर था। इनको अकबर-ऐ-आजम और शहंशाह अकबर के नाम से भी जाना जाता है। ये मुगल वंश के तीसरे शासक थे। इनका शासन लगभग पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर था। अकबर ही मात्र एक ऐसा राजा थे, जिन्हें हिन्दू मुस्लिम दोनों ही धर्मों के लोग बराबर स्नेह और सम्मान देते थे। इन्होंने हिन्दू-मुस्लिम लोगों के बीच की दूरियां कम करने के लिए दीन-ए-इलाही नामक धर्म की स्थापना भी की थी। इनका साम्राज्य उस समय के सर्वाधिक शक्तिशाली साम्राज्यों में से एक था।
अजातशत्रु मगध के एक प्रतापी सम्राट थे। ये हर्यक वंश से संबंधित थे। ये बिंबिसार के पुत्र थे जिन्होंने अपने पिता को मारकर राज्य प्राप्त किया था। इन्होंने अंग, लिच्छवि, वज्जी, कोसल तथा काशी जनपदों को अपने राज्य में मिलाकर एक विस्तृत साम्राज्य की स्थापना की। अजातशत्रु के समय में मगध मध्यभारत का एक बहुत की शक्तिशाली राज्य था।
बप्पा रावल (713-810) मेवाड़ राज्य में गुहिल राजवंश के संस्थापक राजा थे। बप्पारावल का जन्म मेवाड़ के महाराजा गुहिल की मृत्यु के 191 वर्ष पश्चात 712 ई. में ईडर में हुआ। उनके पिता ईडर के शाषक महेंद्र द्वितीय थे।
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (375-412) गुप्त राजवंश का राजा।
महान वैश्य कुलुत्पन्न सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय महान जिनको संस्कृत में विक्रमादित्य या चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के नाम से जाना जाता है; वह भारत के महानतम एवं सर्वाधिक शक्तिशाली सम्राट थे। उनका राज्य 375-414 ई. तक चला जिसमें महान वैश्य गुप्त राजवंश ने शिखर प्राप्त किया। गुप्त साम्राज्य का वह समय भारत का स्वर्णिम युग भी कहा जाता है। चन्द्रगुप्त द्वितीय महान अपने पूर्व राजा समुद्रगुप्त महान के पुत्र थे। उन्होंने आक्रामक विस्तार की नीति एवं लाभदयक पारिग्रहण नीति का अनुसरण करके सफलता प्राप्त की।
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने विक्रम सम्वत् का प्रारम्भ किया। साँची अभिलेख में उसे 'देवराज' और 'प्रवरसेन' कहा गया है। विक्रमादित्य ने अपनी दूसरी राजधानी उज्जयिनी को बनाया। चन्द्रगुप्त ने विदानो को संरक्षण दिया, उसके दरबार में नवरत्न निवास किया करते थे जिनमें कालिदास, वराहमिहिर, धन्वन्तरि प्रमुख थे। उसने शक्तिशाली राजवंशों से वैवहिक सम्बम्ध स्थापित किए। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समय ही चीनी बौद्ध यात्री फाह्यान भारत आया था। उसके शासनकाल में कला, साहित्य, स्थापत्य का अभूतपूर्व विकास हुआ, इसलिए चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के शासन काल को गुप्त साम्राज्य का स्वर्णयुग कहा जाता है।
पेशवा बाजीराव प्रथम (श्रीमंत पेशवा बाजीराव बल्लाळ भट्ट) (1700 - 1740) महान सेनानायक थे। वे 1720 से 1740 तक मराठा साम्राज्य के चौथे छत्रपति शाहूजी महाराज के पेशवा (प्रधानमन्त्री) रहे। इनका जन्म चित्ताबन कुल के ब्राह्मणों में हुआ। इनको 'बाजीराव बल्लाळ' तथा 'थोरले बाजीराव' के नाम से भी जाना जाता है। इन्हें प्रेम से लोग अपराजित हिन्दू सेनानी सम्राट भी कहते थे। इन्होंने अपने कुशल नेतृत्व एवं रणकौशल के बल पर मराठा साम्राज्य का विस्तार (विशेषतः उत्तर भारत में) किया। इसके कारण ही उनकी मृत्यु के 20 वर्ष बाद उनके पुत्र के शासनकाल में मराठा साम्राज्य अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच सका। बाजीराव प्रथम को सभी 9 महान पेशवाओं में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
अमोघवर्ष नृपतुंग या अमोघवर्ष प्रथम (800 – 878) भारत के राष्ट्रकूट वंश के महानतम शाशक थे। वे जैन धर्म के अनुयायी थे। इतिहासकारों ने उनकी शांतिप्रियता एवं उदारवादी धार्मिक दृष्टिकोण के लिये उन्हें सम्राट अशोक से तुलना की है। उनके शासनकाल में कई संस्कृत एवं कन्नड के विद्वानो को प्रश्रय मिला जिनमें महान गणितज्ञ महावीराचार्य का नाम प्रमुख है।
बिम्बिसार से भ्रमित न हों।
बिन्दुसार (राज 298-272 ईपू) मौर्य राजवंश के राजा थे जो चन्द्रगुप्त मौर्य के पुत्र थे। बिन्दुसार को अमित्रघात, सिंहसेन्, मद्रसार तथा अजातशत्रु वरिसार ' भी कहा गया है। बिन्दुसार महान मौर्य सम्राट अशोक के पिता थे।
चन्द्रगुप्त मौर्य एवं दुर्धरा के पुत्र बिन्दुसार ने काफी बड़े राज्य का शासन संपदा में प्राप्त किया। उन्होंने दक्षिण भारत की तरफ़ भी राज्य का विस्तार किया। चाणक्य उनके समय में भी प्रधानमन्त्री बनकर रहे।
बिन्दुसार के शासन में तक्षशिला के लोगों ने दो बार विद्रोह किया। पहली बार विद्रोह बिन्दुसार के बड़े पुत्र सुशीमा के कुप्रशासन के कारण हुआ। दूसरे विद्रोह का कारण अज्ञात है पर उसे बिन्दुसार के पुत्र अशोक ने दबा दिया।
बिन्दुसार की मृत्यु 272 ईसा पूर्व (कुछ तथ्य 268 ईसा पूर्व की तरफ़ इशारा करते हैं)। बिन्दुसार को 'पिता का पुत्र और पुत्र का पिता' नाम से जाना जाता है क्योंकि वह प्रसिद्ध व पराक्रमी शासक चन्द्रगुप्त मौर्य के पुत्र एवं महान राजा अशोक के पिता थे।
भगभद्र शुंग राजवंश के एक राजा थे। उन्होंने 110 ईसा पूर्व के लगभग उत्तर केन्द्रीय और पूर्वी भारत में शासन किया। यद्यपि शुंग की राजधानी पाटलीपुत्र थी, उन्हें विदिशा में अदालत निर्माण के लिए भी जाना जाता है। शुंग राजवंश ने 112 वर्षों तक शासन किया और उनमें से 9वें राजा भग को विदिशा के भद्र के रूप में जाना जाता है।
दन्तिदुर्ग (राष्ट्रकूट साम्राज्य) (736-756) ने चालुक्य साम्राज्य को पराजित कर राष्ट्रकूट साम्राज्य की नींव डाली। दंतिदुर्ग ने उज्जयिनी में हिरण्यगर्भ दान किया था, तथा उन्होंने महाराजाधिराज,परमेश्वर परमंभट्टारक इत्यादि उपाधियाँ धारण की थी। दंतिदुर्ग का उतराधिकारी कृष्ण प्रथम था, जिसने एलोरा के सुप्रसिद्ध कैलाश नाथ मंदिर का निर्माण करवाया था।
संगम राजवंश में जन्मे बुक्क (1357-1377 ई.) विजयनगर साम्राज्य के सम्राट थे। इन्हें बुक्क राय प्रथम के नाम से भी जाना जाता है। बुक्क ने तेलुगू कवि नाचन सोमा को संरक्षण दिया। 14वीं सदी के पूर्वार्ध में दक्षिण भारत में तुंगभद्रा नदी के किनारे विजयनगर राज्य की स्थापना हुई थी जिसके संस्थापक बुक्क तथा उसके ज्येष्ठ भ्राता हरिहर का नाम इतिहास में विख्यात है। संगम नामक व्यक्ति के पाँच पुत्रों में इन्हीं दोनों की प्रधानता थी। प्रारंभिक जीवन में वारंगल के शासक प्रतापरुद्र द्वितीय के अधीन पदाधिकारी थे। उत्तर भारत से आक्रमणकारी मुसलमानी सेना ने वारंगल पर चढ़ाई की, अत: दोनों भ्राता (हरिहर एवं बुक्क) कांपिलि चले गए। 1327 ई. में बुक्क बंदी बनाकर दिल्ली भेज दिया गया और इस्लाम धर्म स्वीकार करने पर दिल्ली सुल्तान का विश्वासपात्र बन गया। दक्षिण लौटने पर भारतीय जीवन का ह्रास देखकर बुक्क ने पुन: हिंदू धर्म स्वीकार किया और विजयनगर की स्थापना में हरिहर का सहयोगी रहा। ज्येष्ठ भ्राता द्वारा उत्तराधिकारी घोषित होने पर 1357 ई. में विजयनगर राज्य की बागडोर बुक्क के हाथों में आई। उसने बीस वर्षों तक अथक परिश्रम से शासन किया। पूर्व शासक से अधिक भूभाग पर उसका प्रभुत्व विस्तृत था।
गोविन्द तृतीय ध्रुव धारवर्ष का पुत्र था।
ध्रुव ने 13 वर्षों तक सफलतापूर्वक शासन करने के बाद संभवत: अपने जीवनकाल में अपने तीसरे और योग्यतम पुत्र गोविंद (तृतीय) को 793 ई. के आसपास राज्याभिषिक्त कर दिया। उसके पूर्व गोविंद का युवराजपद पर विधिवत् अभिषेक हो चुका था। इसका कारण था एक ओर ध्रुव की अपने गोविंद को राज्याधिकारी बनाने की इच्छा और दूसरी ओर उसका यह भय कि उसके बड़े लड़के अपना अधिकार पाने के लिये उसकी मृत्यु के बाद कहीं उत्तराधिकार का युद्ध न आरंभ कर दें। साथ ही ध्रुव ने अपने अन्य पुत्रों को अपने साम्राज्य के विभिन्न क्षेत्रों का प्रांतीय शासक नियुक्त कर दिया। परंतु गोविंद तृतीय की सैनिक योग्यता और राजनीतिक दक्षता मात्र से प्रभावित होकर अथवा अपने पिता के द्वारा उसकी राजगद्दी का उत्तराधिकार दे दिये जाने से ही संतुष्ट होकर वे भी चुप बैठनेवाले न थे। गोविंद तृतीय के सबसे बड़े भाई स्तंभ ने अपने पिता ध्रुव के मरने के बाद उत्तराधिकार के लिये अपनी शक्ति आजमाने की ठानी।
हरिहर प्रथम (1336–1356 CE), जिन्हें हक्क और वीर हरिहर प्रथम भी कहा जाता है, विजयनगर साम्राज्य के संस्थापक थे। ये भवन संगम के ज्येष्ठ पुत्र थे, और संगम राजवंश के संस्थापक थे, जो कि विजयनगर पर राज्य करने वाले चार राजवंशों में से प्रथम हैं। सत्ता में आने के तुरंत बाद इन्होंने वर्तमान कर्नाटक के पश्चिमी किनारे पर बार्कुरु में एक किले का निर्माण करवाया. शिलालेख से यह पता चलता है कि सन् 1339 में ये अनंतपुर जिले के गुट्टी में स्थित अपने मुख्यालय से वर्तमान कर्नाटक के उत्तरी भागों का प्रशासन किया करते थे। प्रारंभ में इनका नियंत्रण होयसल साम्राज्य के उत्तरी भागों पर था और सन् 1343 में होयसल वीर बल्लाल तृतीय की मृत्यु के बाद इन्होंने पूरे साम्राज्य पर अधिकार कर लिया। इनके काल के कन्नड़ शिलालेखों में इनका उल्लेख कर्नाटक विद्या विलास (महान ज्ञान एवं कौशल के स्वामी), भाषेगेतप्पूवरयारगंदा (वचन का पालन न करने वालों को दंड देने वाले), अरियाविभद (शत्रु राजाओं के लिए अग्नि के समान) के रूप में किया गया है। उनके भाइयों में से कम्पन नेल्लूर क्षेत्र का, मुदप्पा मुलबागलू क्षेत्र का, मरप्पा चंद्रगुट्टी क्षेत्र का प्रशासन किया करते थे एवं बुक्क राय इनके उप-सेनापति थे।
महाराजा जीवाजीराव सिंधिया एक ग्वालियर के महाराजा थे। महाराजा मॉडल रेलमार्गों में उनकी रुचि के कारण अभी भी लोकप्रिय हैं। मराठाओं के सिंधिया राजवंश के महाराजा जीवाजीराव सिंधिया (26 जून 1916 - 16 जुलाई 1961) मध्य भारत में ग्वालियर राज्य के अंतिम शासनकाल और मध्य भारत, भारत के पूर्व राज्य के राजप्रमुख (नियुक्त राज्यपाल) थे। महाराजा मॉडल रेलवे में अपनी रुचि के कारण अभी भी लोकप्रिय थे। उन्होंने अपने मेहमानों के लिए भोजन, मदिरा और चटनी परोसने के लिए ग्वालियर के जय विलास पैलेस में अपने महल की खाने की मेज पर चांदी की एक टॉय ट्रेन इकट्ठी की।
इस्माइल आदिल शाह बीजापुर के राजा थे जिन्होंने अपना अधिकांश समय अपने क्षेत्र का विस्तार करने में बिताया। उनके अल्पकालिक शासनकाल ने राजवंश के डेक्कन में एक गढ़ स्थापित करने में मदद की।
कृष्ण तृतीय ( 939 – 967 ई), मान्यखेत के राष्ट्रकूट राजवंश के अन्तिम महान एवं योग्य शासक थे। वह एक चतुर प्रशासक और कुशल सैन्य प्रचारक था। उसने राष्ट्रकूटों के गौरव को वापस लाने के लिए कई युद्ध किए और राष्ट्रकूट साम्राज्य के पुनर्निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने प्रसिद्ध कन्नड़ कवियों श्री पोना, जिन्होंने शांति पुराण, गजानुशा, को नारायण के नाम से भी जाना जाता है, जिन्होंने एरोटिक्स पर लिखा था, और अपभ्रंश कवि पुष्पदंत जिन्होंने महापुराण और अन्य रचनाएँ लिखीं। उनकी रानी एक चेदि राजकुमारी थी और उनकी बेटी बिज्जबाई का विवाह पश्चिमी गंगा राजकुमार से हुआ था।
महेन्द्रवर्मन प्रथम चम्पा राज्य के राजा थे।
वे पहले जैन धर्म के अनुयायी थे पर बाद मेंं उन्होंने शैव धर्म अपनाया।
उन्होंने 'मत्तविलास' 'विचित्र चित्त' एवं 'गुणभर शत्रुमल्ल, ललिताकुर, अवनिविभाजन, संर्कीणजाति, महेन्द्र विक्रम, अलुप्तकाम कलहप्रीथ आदि प्रशंसासूचक पदवी धारण की थी।
उनकी उपाधियां 'चेत्थकारी' और 'चित्रकारपुल्ली' भी थीं।
मयूरशर्मा (या मयूरशर्मन, मयूरवर्मा) (345 - 365 ई0) कर्नाटक के आधुनिक शिमोगा जिला के तालगुण्डा का एक ब्राह्मण पंडित थे । इन्होने बनवासी के कदंब वंश की स्थापना की थी। यह वंश ही था जिसने सबसे पहले आधुनिक कर्न्टक की भुमि पर राज्य किया था। इन्होने अपना नाम मयूरवर्मन कर लिया था, जिससे वह ब्राह्मण से क्षत्रिय लगे।
गुर्जर सम्राट मिहिरभोज प्रतिहार , प्रतिहार राजवंश के सबसे महान राजा माने जाते हैं। इन्होने लगभग 50 वर्ष तक राज्य किया था। इनका साम्राज्य अत्यन्त विशाल था | नौवीं शताब्दी में भारत की उत्कृष्ट राजनीतिक हस्तियों में से एक, वह ध्रुव धर्मशाला और धर्मपाल के साथ एक महान सामान्य और साम्राज्य निर्माता के रूप में रैंक करता है। इसकी ऊंचाई के अनुसार, भोज का साम्राज्य दक्षिण में नर्मदा नदी, उत्तर पश्चिम में सतलज नदी तक और ऊपर तक फैला हुआ है। पूर्व में बंगाल। इसने हिमालय की तलहटी से लेकर नर्मदा नदी तक एक बड़े क्षेत्र का विस्तार किया और उत्तर प्रदेश के वर्तमान जिले को शामिल किया।
महादजी शिंदे (या, महादजी सिंधिया ; 1730 -- 1794) मराठा साम्राज्य के एक शासक थे जिन्होंने ग्वालियर पर शासन किया। वे सरदार राणोजी राव शिंदे के पाँचवे तथा अन्तिम पुत्र थे।
शिंदे (अथवा सिंधिया) वंश के संस्थापक राणोजी शिंदे के पुत्रों में केवल महादजी पानीपत के तृतीय युद्ध से जीवित बच सके। तदनंतर, सात वर्ष उसके उत्तराधिकार संघर्ष में बीते (1761-68)। स्वाधिकार स्थापन के पश्चात् महादजी का अभूतपूर्व उत्कर्ष आरंभ हुआ (1768)। पेशवा के शक्तिसंवर्धन के साथ, उसने अपनी शक्ति भी सुदृढ़ की। पेशवा की ओर से दिल्ली पर अधिकार स्थापित कर (10 फरवरी, 1771), उसने शाह आलम को मुगल सिंहासन पर बैठाया (6 जनवरी, 1772)। इस प्रकार, पानीपत में खोये, उत्तरी भारत पर मराठा प्रभुत्व का उसने पुनर्लाभ किया। माधवराव की मृत्यु से उत्पन्न अव्यवस्था तथा उससे उत्पन्न आंग्ल-मराठा युद्ध में उसने रघुनाथराव (राघोबा) तथा अंग्रेजों के विरुद्ध नाना फड़नवीस और शिशु पेशवा का पक्ष ग्रहण किया।
राजा पुरुवास या राजा पोरस का राज्य पंजाब में झेलम से लेकर चेनाब नदी तक फैला हुआ था। वर्तमान लाहौर के आस-पास इसकी राजधानी थी।, जिनका साम्राज्य पंजाब में झेलम और चिनाब नदियों तक (ग्रीक में ह्यिदस्प्स और असिस्नस) और उपनिवेश ह्यीपसिस तक फैला हुआ था।
गुर्जर सम्राट पुल्केशिन चालुक्य सत्याश्रय, श्रीपृथ्वीवल्लभ , परमेश्वर परमभट्टारक जैसी उपाधियाँ पाने वाले यह गुर्जर सम्राट भारतीय इतिहास में एक महान शासक माने जाते हैं। इतिहासकारो का मानना है कि हूण गुर्जरो के विखण्डन से चालुक्य, प्रतिहार, चौहान, तंवर,चेची,सोलंकी,चप या चपराणा, चावडा आदि राजवंश व गुर्जर कुषाण साम्राज्य के विखण्डन से मैत्रक, गहलोत,परमार,हिन्दुशाही खटाणा, भाटी आदि नये राजवंश जन्म लेते हैं। गुर्जरो के इतिहास लेखक यानी भाट भी यहीं बताते हैं चालुक्य राजवंश भी गुर्जर हूण राजवंश की शाखा माना जाता है। चालुक्य साम्राज्य को ही सर्वप्रथम गुर्जरत्रा, गुर्जरात,गुर्जराष्ट्र व गुर्जर देश से सम्बोधित किया गया जो कि इनके गुर्जर होने का बडा प्रमाण है। चालुक्य राजवंश की नींव विष्णुवर्धन ने रखी। पुलकेशिन चालुक्य भी इसी राजवंश का सबसे महान शासक सिद्ध हुआ। पुलकेशिन व हर्षवर्धन दोनो समकालीन थे, महान सम्राट थे, यौद्धा थे, न्यायप्रिय,उदारशील,प्रजावत्सल शासक थे। दोनो को ही बराबर माना जाता है। जहाँ हर्षवर्धन उत्तर भारत के एकछत्र राजा थे वहीं पश्चिमोत्तर व दक्षिणी भारत के गुर्जर सम्राट पुलकेशिन थे। गुर्जर चालुक्य राजवंश की राजधानी आन्ध्र प्रदेश की बादामी थी। चालुक्य गुर्जर स्वयं को गुर्जर सम्राट ,गुर्जराधिराज, गुर्जर नरपति, गुर्जरेन्द्र व गुर्जर नरेश से सम्बोधित करते थे ।
रानी लक्ष्मीबाई (जन्म: 19 नवम्बर 1828 – मृत्यु: 18 जून 1858) मराठा शासित झाँसी राज्य की रानी और 1857 की राज्यक्रांति की द्वितीय शहीद वीरांगना (प्रथम शहीद वीरांगना रानी अवन्ति बाई लोधी 20 मार्च 1858 हैं) थीं। उन्होंने सिर्फ़ 29 साल की उम्र में अंग्रेज़ साम्राज्य की सेना से युद्ध किया और रणभूमि में वीरगति को प्राप्त हुईं।
राणा सांगा (महाराणा संग्राम सिंह) (12 अप्रैल 1484 - 17 मार्च 1527) (राज 1509-1528) [चित्तौडगढ] में सिसोदिया राजपूत राजवंश के राजा थे तथा राणा रायमल के सबसे छोटे पुत्र थे।
राणा रायमल के तीनों पुत्रों ( कुंवर पृथ्वीराज, जगमाल तथा राणा सांगा ) में मेवाड़ के सिंहासन के लिए संघर्ष प्रारंभ हो जाता है। एक भविष्यकर्त्ता के अनुसार सांगा को मेवाड़ का शासक बताया जाता है ऐसी स्थिति में कुंवर पृथ्वीराज व जगमाल अपने भाई राणा सांगा को मौत के घाट उतारना चाहते थे परंतु सांगा किसी प्रकार यहाँ से बचकर अजमेर पलायन कर जाते हैं तब सन् 1509 में अजमेर के कर्मचन्द पंवार की सहायता से राणा सांगा मेवाड़ राज्य प्राप्त हुआ | महाराणा सांगा ने सभी राजपूत राज्यो को संगठित किया और सभी राजपूत राज्य को एक छत्र के नीचे लाएं। उन्होंने सभी राजपूत राज्यो संधि की और इस प्रकार महाराणा सांगा ने अपना साम्राज्य उत्तर में पंजाब सतलुज नदी से लेकर दक्षिण में मालवा को जीतकर नर्मदा नदी तक कर दिया। पश्चिम में में सिंधु नदी से लेकर पूर्व में बयाना भरतपुर ग्वालियर तक अपना राज्य विस्तार किया इस प्रकार मुस्लिम सुल्तानों की डेढ़ सौ वर्ष की सत्ता के पश्चात इतने बड़े क्षेत्रफल हिंदू साम्राज्य कायम हुआ इतने बड़े क्षेत्र वाला हिंदू सम्राज्य दक्षिण में विजयनगर सम्राज्य ही था। दिल्ली सुल्तान इब्राहिम लोदी को खातौली व बाड़ी के युद्ध में 2 बार परास्त किया और और गुजरात के सुल्तान को हराया व मेवाड़ की तरफ बढ़ने से रोक दिया। बाबर को खानवा के युद्ध में पूरी तरह से राणा ने परास्त किया और बाबर से बयाना का दुर्ग जीत लिया। इस प्रकार राणा सांगा ने भारतीय इतिहास पर एक अमिट छाप छोड़ दी। 16वी शताब्दी के सबसे शक्तिशाली शासक थे इनके शरीर पर 80 घाव थे। इनको हिंदुपत की उपाधि दी गयी थी। इतिहास में इनकी गिनती महानायक तथा वीर के रूप में की जाती हैं।
राजेन्द्र प्रथम (1012 ई. - 1044 ई.) चोल राजवंश का सबसे महान शासक थे । उन्होंने अपनी महान विजयों द्वारा चोल सम्राज्य का विस्तार कर उसे दक्षिण भारत का सर्व शक्तिशाली साम्राज्य बनाया। उन्होंने 'गंगई कोंड' की उपाधि धारण की तथा गंगई कोंड चोलपुरम नामक नगर की स्थापना की। वहीं पर उन्होंने चोल गंगम नामक एक विशाल सरोवर का भी निर्माण किया।
पुष्यमित्र शुंग उत्तर भारत के शुंग साम्राज्य का संस्थापक और प्रथम राजा था। इससे पहले वह मौर्य साम्राज्य में सेनापति था। 185 ई॰पूर्व में शुंग ने अन्तिम मौर्य सम्राट (बृहद्रथ) की हत्या कर स्वयं को राजा उद्घोषित किया। उसके बाद उसने अश्वमेध यज्ञ किया और उत्तर भारत का अधिकतर हिस्सा अपने अधिकार क्षेत्र में ले लिया। शुंग राज्य के शिलालेख पंजाब के जालन्धर में मिले हैं और दिव्यावदान के अनुसार यह राज्य सांग्ला तक विस्तृत था।
छत्रपति शाहु (1682-1749) मराठा सम्राट और छत्रपति शिवाजीमहाराज के पौत्र और सम्भाजी महाराज के बेटे थे। ये ये छत्रपति शाहु महाराज के नाम से भी जाने जाते हैं। छत्रपति शाहूजी महाराज का जन्म 1682 में हुआ था। उनके बचपन का नाम यशवंतराव था। जब शाहूजी महाराज बालावस्था में थे तभी उनकी माता राधाबाई का निधन तब हो गया । उनके पिता का नाम श्रीमान जयसिंह राव अप्पा साहिब घटगे था। कोलहापुर के राजा शिवजी चतुर्थ की हत्या के पश्चात उनकी विधवा आनन्दीबाई ने उन्हें गोद ले लिया। शाहूजी महाराज को अल्पायु में ही कोल्हापुर की राजगद्दी का उतरदायित्व वहन करना पड़ा।
वर्ण-विधान के अनुसार शहूजी शूद्र थे। वे बचपन से ही शिक्षा व कौशल में निपुर्ण थे। शिक्षा प्राप्ति के पश्चात् उन्होने भारत भ्रमण किया। यद्यपि वे कोल्हापुर के महाराज थे परन्तु इसके बावजूद उन्हें भी भारत भ्रमण के दौरान जातिवाद के विष को पीना पड़ा। नासिक, काशी व प्रयाग सभी स्थानों पर उन्हें रूढ़ीवादी ढोंगी ब्राम्हणो का सामना करना करना पड़ा। वे शाहूजी महाराज को कर्मकांड के लिए विवश करना चाहते थे परंतु शाहूजी ने इंकार कर दिया।
रज़िया अल-दिन(1205-1240) शाही नाम “जलॉलात उद-दिन रज़ियॉ”, इतिहास में जिसे सामान्यतः “रज़िया सुल्तान” या “रज़िया सुल्ताना” के नाम से जाना जाता है, दिल्ली सल्तनत की सुल्तान (तुर्की शासकों द्वारा प्रयुक्त एक उपाधि) थी। उसने 1236 ई0 से 1240 ई0 तक दिल्ली सल्तनत पर शासन किया। रजिया पर्दा प्रथा त्यााग कर पुरूषों की तरह खुले मुंह राजदरबार में जाती थी। यह इल्तुतमिश की पुत्री थी। तुर्की मूल की रज़िया को अन्य मुस्लिम राजकुमारियों की तरह सेना का नेतृत्व तथा प्रशासन के कार्यों में अभ्यास कराया गया, ताकि ज़रुरत पड़ने पर उसका इस्तेमाल किया जा सके।. रज़िया सुल्ताना मुस्लिम एवं तुर्की इतिहास कि पहली महिला शासक थीं।
शिशुनाग 412 ई॰पू॰ गद्दी पर बैठे। महावंश के अनुसार वह लिच्छवि राजा के वेश्या पत्नी से उत्पन्न पुत्र थे । पुराणों के अनुसार वह क्षत्रिय थे । इन्होने सर्वप्रथम मगध के प्रबल प्रतिद्वन्दी राज्य अवन्ति पर वहां के शासक अवंतिवर्द्धन के विरुद्ध विजय प्राप्त की और उसे अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। इस प्रकार मगध की सीमा पश्चिम मालवा तक फैल गई। तदुपरान्त उन्होंने वत्स को मगध में मिलाया। वत्स और अवन्ति के मगध में विलय से, पाटलिपुत्र के लिए पश्चिमी देशों से, व्यापारिक मार्ग के लिए रास्ता खुल गया।
शिशुनाग ने मगध से बंगाल की सीमा से मालवा तक विशाल भू-भाग पर अधिकार कर लिया। शिशुनाग एक शक्तिशाली शासक थे जिसने गिरिव्रज के अलावा वैशाली नगर को भी अपनी राजधानी बनाया। 394 ई. पू. में इनकी मृत्यु हो गई।
स्कन्दगुप्त प्राचीन भारत में तीसरी से पाँचवीं सदी तक शासन करने वाले गुप्त राजवंश के आठवें राजा थे। हूणों के अतिरिक्त उन्होंने पुष्यमित्रों को भी विभिन्न संघर्षों में पराजित किया। पुष्यमित्रों को परास्त कर अपने नेतृत्व की योग्यता और शौर्य को सिद्ध कर स्कन्दगुप्त ने विक्रमादित्य कि उपाधि धारण की।
सीमुक अथवा सीमुख (230–207 ईसा पूर्व) भारत का राजा था जिसने सातवाहन राजवंश की स्थापना की। पुराणों में वह सिशुक या सिन्धुक नाम से वर्णित है।
पुराणों के अनुसार आंध्र सीमुख सुशर्मन् के अन्य भृत्यों की सहायता से काण्वायनों का नाम कर पृथ्वी पर राज्य करेगा। पुराणों द्वारा दी गई आंध्र वंशावली के शासकों तथा उनके राज्यकाल को जोड़ने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि सीमुक काण्वों के अंत (ई. पू. 45) से लगभग दो शताब्दी पहले हुआ होगा और इसका मौर्य साम्राज्य के अंत में हाथ रहा होगा। पुराणों के अनुसार इसने 23 वर्ष राज्य किया। जैन स्रोतों के अनुसार उसने जैन तथा बौद्ध मंदिरों का निर्माण किया, किंतु अपने राज्यकाल के अंतिम समय अपनी निर्दयता के कारण उसका वध कर दिया गया।
विष्णुगुप्त गुप्त वंश के कम ज्ञात राजाओं में से एक थे। उन्हें आमतौर पर गुप्त साम्राज्य का अंतिम मान्यता प्राप्त राजा माना जाता है। उनका शासनकाल 10 वर्षों तक चला, 540 से 550 ईस्वी तक। 1927-28 की खुदाई के दौरान नालंदा में खोजी गई उनकी मिट्टी की सील के टुकड़े से, यह पता चलता है कि वह कुमारगुप्त III के पुत्र और नरसिंहगुप्त के पोते थे।
विक्रमादित्य षष्ठ (1076 – 1126 ई) पश्चिमी चालुक्य शासक थे। चालुक्य-विक्रम संवत् उनके शासनारूढ़ होने पर आरम्भ किया गया। सभी चालुक्य राजाओं में वह सबसे अधिक महान, पराक्रमी थे तथा उसका शासन काल सबसे लम्बा रहा। उन्होंने 'परमादिदेव' और त्रिभुवनमल्ल' की उपाधि धारण की।
वह कला और साहित्य के संरक्षक और संवर्धक थे। उनके दरबार में कन्नड और संस्कृत के प्रसिद्ध कवि शोभा देते थे। उनके भाई कीर्तिवर्मा ने कन्नड में 'गोवैद्य' नामक पशुचिकित्सा ग्रन्थ लिखा। ब्रह्मशिव ने कन्नड में 'समयपरीक्षे' नामक ग्रन्थ लिखा और 'कविचक्रवर्ती' की उपाधि प्राप्त की। 12वीं शताब्दी के पूर्व किसी और ने कन्नड में उतने शिलालेख नहीं लिखवाये जितने विक्रमादित्य षष्ठ ने। संस्कृत के प्रसिद्ध कवि बिल्हण ने 'विक्रमांकदेवचरित' नाम से राजा का प्रशस्ति ग्रन्थ लिखा। विज्ञानेश्वर ने हिन्दू विधि से सम्बन्धित मिताक्षरा नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ लिखा। चन्दलादेवी नामक उनकी एक रानी (जिसे अभिनव सरस्वती कहते थे) अच्छी नृत्यांगना थी। अपने चरमोत्कर्ष के समय चन्द्रगुप्त षष्ठ का विशाल साम्राज्य दक्षिण भारत में कावेरी नदी से आरम्भ करके मध्य भारत में नर्मदा नदी तक विस्तृत था।
राजाराज चोल 1 दक्षिण भारत के चोल साम्राज्य के महान चोल सम्राट थे जिन्होंने 985 से 1014 तक राज किया। उनके शासन में चोलों ने दक्षिण में श्रीलंका तथा उत्तर में कलिंग तक साम्राज्य फैलाया। राजराज चोल ने कई नौसैन्य अभियान भी चलाये, जिसके फलस्वरूप मालाबार तट, मालदीव तथा श्रीलंका को आधिपत्य में लिया गया।
राजराज चोल ने हिंदुओं के विशालतम मंदिरों में से एक,तंजौर के बृहदीश्वर मन्दिर का निर्माण कराया। उन्होंने सन 1000 में भू-सर्वेक्षण की भीषण परियोजना शुरू कराई जिससे देश को वलनाडु इकाइयों में पुनर्संगठित करने में मदद मिली।
चोल वंश का दूसरा महान शासक कोतूतुङ त्रितीय था
नौवी शदी मै च्होलऔ का उदय हुआ। इनका राज्य तुन्ग्भद्रा तक फैला हुआ था। च्होल राजाओ ने शक्तिशली नौसैना का विकास किया। इस वंश की स्थापना विजयालय ने की। राजराज चोल ने शशिपादशेखर की उपाधि धारण की थी। राजराज प्रथम ने मालदीव पर भी विजय प्राप्त की थी राजराज प्रथम द्वारा निर्मित कराया गया बृहदेश्वर मंदिर यूनेस्को विश्व धरोहर सूची में शामिल है।
विक्रमादित्य II (733 - 744 सीई पर शासन किया) राजा विजयदित्य के पुत्र थे। अपने पिता की मृत्यु के बाद बदामी चालुक्य सिंहासन पर चढ़ गया। यह जानकारी 13 जनवरी, 735 ईस्वी के कन्नड़ में लक्ष्मीश्वर शिलालेखों से आती है शिलालेखों से यह पता चला है कि उनके राजद्रोह से पहले, एक ताज राजकुमार ( युवराजा ) के रूप में विक्रमादित्य II ने उनके खिलाफ सफल सैन्य अभियान चलाए थे आर्क दुश्मन, कांचीपुरम के पल्लव । उनकी सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धियां तीन मौकों पर कांचीपुरम पर कब्जा कर रही थीं, पहली बार एक ताज राजकुमार के रूप में पहली बार, सम्राट के रूप में दूसरी बार और तीसरे बार अपने बेटे और ताज राजकुमार कीर्तिवर्मन II के नेतृत्व में कब्जा कर लिया गया था । यह एक अन्य कन्नड़ शिलालेख द्वारा प्रमाणित किया जाता है, जिसे विरुपक्ष मंदिर शिलालेख के रूप में जाना जाता है जो सम्राट को तीन अवसरों पर कांची के विजेता के रूप में दर्शाता है और श्री विक्रमादित्य-भतरार-म्यूम-कांचियान-म्यूम पराजिसिडोर पढ़ता है । अन्य उल्लेखनीय उपलब्धि प्रसिद्ध विरुपक्ष मंदिर ( लोकेश्वर मंदिर) और मल्लिकार्जुन मंदिर ( त्रिलोकेश्वर मंदिर) की उनकी रानी लोकदेवी और पट्टादकल में त्रिलोकदेवी द्वारा अभिषेक थी। ये दो स्मारक पट्टाडकल में यूनेस्को विश्व धरोहर स्मारकों का केंद्र टुकड़ा हैं।
छत्रपति संभाजी राजे (छत्रपति संभाजी राजे भोसले या शंभुराजे; 1657-1689) मराठा सम्राट और छत्रपति शिवाजी महाराज के उत्तराधिकारी थे। उस समय मराठों के सबसे प्रबल शत्रु मुगल बादशाह औरंगजेब बीजापुर और गोलकुण्डा का शासन हिन्दुस्तान से समाप्त करने में उनकी प्रमुख भूमिका रही। संभाजी राजे अपनी शौर्यता के लिये काफी प्रसिद्ध थे।
संभाजी महाराज ने अपने कम समय के शासन काल में 210 युद्ध किये और इसमे एक प्रमुख बात ये थी कि उनकी सेना एक भी युद्ध में पराभूत नहीं हुई। शंभाजी राजे मराठा समुदाय से आते हैं जो की एक तरह का क्षत्रिय जनसमुदाय है, उनके पराक्रम की वजह से परेशान हो कर औरंगजेब ने कसम खायी थी के जब तक छत्रपती संभाजी पकड़े नहीं जायेंगे, वो अपना किमोंश सर पर नहीं चढ़ाएगा। 11 मार्च 1689 को औरंगजेब ने छत्रपति संभाजी महाराज की बड़ी क्रूरता के साथ हत्या कर दी। इस दुखद और दर्दनाक घटना के अगले ही दिन संभाजी महाराज के छोटे भाई राजाराम महाराज को छत्रपती बनाया गया।
आल्हा मध्यभारत में स्थित ऐतिहासिक बुंदेलखण्ड के सेनापति थे और अपनी वीरता के लिए विख्यात थे। आल्हा के छोटे भाई का नाम ऊदल था और वह भी वीरता में अपने भाई से बढ़कर ही था। जगनेर के राजा जगनिक ने आल्ह-खण्ड नामक एक काव्य रचा था उसमें इन वीरों की 52 लड़ाइयों की गाथा वर्णित है।ऊदल ने अपनी मातृभूमि की रक्षा हेतु पृथ्वीराज चौहान से युद्ध करते हुए ऊदल वीरगति प्राप्त हुए
आल्हा को अपने छोटे भाई की वीरगति की खबर सुनकर अपना अपना आपा खो बैठे और पृथ्वीराज चौहान की सेना पर मौत बनकर टूट पड़े आल्हा के सामने जो आया मारा गया 1 घंटे के घनघोर युद्ध की के बाद पृथ्वीराज और आल्हा आमने-सामने थे
दोनों में भीषण युद्ध हुआ पृथ्वीराज चौहान बुरी तरह घायल हुए आल्हा के गुरु गोरखनाथ के कहने पर
आल्हा ने पृथ्वीराज चौहान को जीवनदान दिया और बुंदेलखंड के महा योद्धा आल्हा ने नाथ पंथ स्वीकार कर लिया
आल्हा चंदेल राजा परमर्दिदेव (परमल के रूप में भी जाना जाता है) के एक महान सेनापति थे, जिन्होंने 1182 ई0 में पृथ्वीराज चौहान से लड़ाई लड़ी, जो आल्हा-खांडबॉल में अमर हो गए।
सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य या केवल हेमू (1501-1556) एक हिन्दू राजा थे, जिन्होंने मध्यकाल में 16वीं शताब्दी में भारत पर राज किया था। यह भारतीय इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण समय रहा जब मुगल एवं अफगान वंश, दोनों ही दिल्ली में राज्य के लिये तत्पर थे। कई इतिहसकारों ने हेमू को 'भारत का नैपोलियन' कहा है।
महाराजा सूरजमल (फरवरी 1707 – 25 दिसम्बर 1763) राजस्थान के भरतपुर के हिन्दू जाट शासक थे। उनका शासन जिन क्षेत्रों में था वे वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के आगरा, अलीगढ़, इटावा, हाथरस, एटा, मैनपुरी, मथुरा, मेरठ जिले; राजस्थान के भरतपुर, धौलपुर, मेवात, रेवाड़ी जिले; हरियाणा का गुरुग्राम, रोहतक जिलों के अन्तर्गत हैं। राजा सूरज मल में वीरता, धीरता, गम्भीरता, उदारता, सतर्कता, दूरदर्शिता, सूझबूझ, चातुर्य और राजमर्मज्ञता का सुखद संगम सुशोभित था। मेल-मिलाप और सह-अस्तित्व तथा समावेशी सोच को आत्मसात करने वाली भारतीयता के वे सच्चे प्रतीक थे। राजा सूरज मल के समकालीन एक इतिहासकार ने उन्हें जाटों का प्लेटों' कहा है। इसी तरह एक आधुनिक इतिहासकार ने उनकी स्प्ष्ट दृष्टि और बुद्धिमत्ता को देखने हुए उनकी तुलना ओडिसस से की है। सूरज मल के नेतृत्व में जाटों ने आगरा नगर की रक्षा करने वाली मुगल सेना (गैरिज़न) पर अधिकार कर कर लिया। 25 दिसम्बर 1763 ई में दिल्ली के शाहदरा में मुगल सेना द्वारा घात लगाकर किए गए एक हमले में सूरजमल की मृत्यु हो गयी। उनकी मृत्यु के समय उनके अपने किलों पर तैनात सैनिकों के अलावा, उनके पास 25,000 पैदल सेना और 15,000 घुड़सवारों की सेना थी।
महारानी ताराबाई (1675-1761) राजाराम महाराज की पहली पत्नी तथा छत्रपति शिवाजी महाराज के सरसेनापति हंबीरराव मोहिते की कन्या थीं। इनका जन्म 1675 में हुआ और इनकी मृत्यु 9 दिसंबर 1761 ई0 को हुयी। ताराबाई का पूरा नाम ताराबाई भोंसले था। राजाराम की मृत्यु के बाद इन्होंने अपने 4 वर्षीय पुत्र शिवाजी दित्तीय का राज्याभिषेक करवाया और मराठा साम्राज्य की संरक्षिका बन गयीं।ताराबाई का विवाह छत्रपति शिवाजी के छोटे पुत्र राजाराम प्रथम के साथ हुआ राजाराम 1689 से लेकर 1700 में उनकी मृत्यु हो जाने के पश्चात ताराबाई मराठा साम्राज्य कि संरक्षिका बनी। और उन्होंने शिवाजी दित्तीय को मराठा साम्राज्य का छत्रपति घोषित किया और एक संरक्षिका के रूप में मराठा साम्राज्य को चलाने लगी उस वक्त शिवाजी द्वितीय मात्र 4 वर्ष के थे 1700 से लेकर 1707 ईसवी तक मराठा साम्राज्य की संरक्षिका उन्होंने औरंगजेब को बराबर की टक्कर दी और उन्होंने 7 सालों तक अकेले दम पर मुगलों से टक्कर ली और कई सरदारों को एक करके वापस मराठा साम्राज्य को बनाने के लिए बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ताराबाई अपने पुत्र को गद्दी पर देखना चाहती थी। परंतु ऐसा हो ना सका औरंगजेब की मृत्यु के बाद बहादुर शाह प्रथम ने छत्रपति शाहू जो कि उसकी कैद में थे उनको दिल्ली से छोड़ दिया और जिसके करण साहू ने यहां पर आकर गद्दी के लिए संघर्ष शुरु हो गया और महाराष्ट्र में गृह युद्ध छिड़ गया अंततः शाहू ने युद्ध में ताराबाई की सेना को पराजित कर उन्हें पूरी तरीके से खत्म कर दिया। और उनको कोल्हापुर राज्य दे दिया और वहीं पर उनका राज्य स्थापित कर दिया और खुद मराठा समाज शाहु के काल में ही मराठा साम्राज्य अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंचा। और छत्रपति शाहू छत्रपति हालात में मौत होने वाले 1740 के दशक में ताराबाई अपनी पोते रामराज को शाहू के पास लेकर गई क्योंकि शाहू का कोई पुत्र नहीं था रामराज शाहु के पास और कोई पुत्र नहीं था इसीलिए शिवाजी के वंशज होने के नाते रामराज छत्रपति शाहू जी को अपना पुत्र घोषित कर दिया। और रामराज 1749 सतारा की गद्दी पर बैठ गए। उसके गददी पर बैठते ही पेशवा बालाजी बाजीराव को हटाने के लिए ताराबाई ने रामराज से कहा पर रामराज ने मना कर दिया। जिससे ताराबाई ने रामराज को सतारा के किले में कैद कर लिया। जब बालाजी बाजीराव को यह खबर पहुंची तो वे छत्रपति को रिहा करने के लिए सतारा की ओर चल दिए 1752 मई को यह खबर लगते ही उन्होंने दामाजी राव गायकवाड की 15000 सेना के साथ दाभाडे परिवार को एक करके जो कि पूरा परिवार पेशवा का पुराना दुश्मन था बालाजी बाजीराव के खिलाफ साजिश रची बालाजी बाजीराव नंवंबर 1752 में पूर्ण रूपेण परास्त किया और ताराबाई से संधि कर ली जिसके तहत ताराबाई ने रामराज को अपना पोता ना होना घोषित कर दिया और अब मराठा साम्राज्य की सारी शक्ति पेशवाओं के हाथ में चली गई। 14 जनवरी 1761 में पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठों की हार होने के बाद जून 1761 में बालाजी बाजीराव की मृत्यु हो गई और उसके बाद ही दिसंबर 1761 में ताराबाई का भी निधन हो गया। ताराबाई मराठा साम्राज्य की सबसे ताकतवर महिलाओं में से निकली और जिस तरह से उन्होंने 7 वर्षों तक औरंगजेब से लड़ाई लड़ी हो उनकी महानता को दर्शाता है और उनकी दूरदर्शिता को भी।
अनीयम तिरुनाल मार्तान्ड वर्मा (1706 - 7 जुलाई 1758) त्रावणकोर राज्य के महाराजा थे। वे आधुनिक त्रावणकोर के निर्माता कहे जाते हैं। उन्होने 1729 से लेकर 1758 तक आजीवन शासन किया। उनकी मृत्यु के पश्चात राम वर्मा (या 'धर्म राज') सिंहासन पर बैठे।
उन्होंने पड़ोसी राज्यों से अपने पैतृक डोमेन का विस्तार करने के लिए काफी योगदान दिया है और पूरे दक्षिणी केरल का एकीकरण किया हैं। उनके शासन के तहत त्रावणकोर दक्षिणी भारत में सबसे शक्तिशाली बन गया। पर वेह अप्ने भतीजे रामा वर्मा द्वारा असफल हो गये।
मार्तान्ड वर्मा जब 23 साल के हुये तब वेनाद के सिंहासन हासील किया। उन्होंने डच को कुचल लड़ाई 1741 में विस्तारवादी डिजाइन को खराब किय। मार्तान्ड वर्मा फिर उसकी सेना में अनुशासन की यूरोपीय मोड और आसपास के लिए वेनाद डोमेन का विस्तार किय। उन्होंने एक पर्याप्त स्थायी सेना का आयोजन किया और नायर अभिजात वर्ग (केरल के शासकों सैन्य निर्भर हो गया था, जिस पर) की शक्ति को कम किया और् त्रावणकोर लाइन पर उसके राज्य की उत्तरी सीमा गढ़वाले.
मार्तान्ड वर्मा के तहत त्रावणकोर समुद्री दुकानों के इस्तेमाल से उनकी शक्ति को मजबूत करने के लिए निर्धारित भारत में कुछ राज्यों में से एक था। व्यापार का नियंत्रण भी अवधि के शासन कला में महत्वपूर्ण के रूप में देखा गया था। यह भी करने के लिए मार्तान्ड वर्मा की नीति थी और् व्यापार में यूरोपीय भागीदारी को सीमित करने के एक साधन के रूप में सीरियाई ईसाई, अपने डोमेन के भीतर बड़े व्यापारिक समुदाय को संरक्षण दिया था। कुंजी वस्तु मिर्च था, लेकिन अन्य सामान भी शाही एकाधिकार आइटम के रूप में परिभाषित किया जाने लगा।
तिरुवनंतपुरम शहर जो इसे बनाया मार्तान्ड वर्मा के तहत प्रमुख बने और 1745 में त्रावणकोर की राजधानी बना। कालीकट के ज़मोरिन के खिलाफ कोचीन के शासक के साथ 1757 में अपने गठबंधन, जीवित रहने के लिए कोचीन सक्षम होना चाहिए. वर्मा की नीतियों मैसूर राज्य के खिलाफ सफलतापूर्वक त्रावणकोर का बचाव करने के लिए इसके अलावा में सक्षम था, जो उनके उत्तराधिकारी, राम वर्मा, , द्वारा बड़ी मात्रा में जारी रखा गया था।
शाह जहाँ पांचवे मुग़ल शहंशाह था। शाह जहाँ अपनी न्यायप्रियता और वैभवविलास के कारण अपने काल में बड़े लोकप्रिय रहे। किन्तु इतिहास में उनका नाम केवल इस कारण नहीं लिया जाता। शाहजहाँ का नाम एक ऐसे आशिक के तौर पर लिया जाता है जिसने अपनी बेग़म मुमताज़ बेगम के लिये विश्व की सबसे ख़ूबसूरत इमारत ताज महल बनाने का यत्न किया।
ललितादित्य मुक्तापीड (राज्यकाल 724-761 ई) कश्मीर के कार्कोट राजवंश के हिन्दू सम्राट थे। उनके काल में कश्मीर का विस्तार मध्य एशिया और बंगाल तक पहुंच गया। उन्होने अरब के मुसलमान आक्रान्ताओं को सफलतापूर्वक दबाया तथा तिब्बती सेनाओं को भी पीछे धकेला। उन्होने राजा यशोवर्मन को भी हराया जो हर्ष का एक उत्तराधिकारी था। उनका राज्य पूर्व में बंगाल तक, दक्षिण में कोंकण तक पश्चिम में तुर्किस्तान और उत्तर-पूर्व में तिब्बत तक फैला था। उन्होने अनेक भव्य भवनों का निर्माण किया।
कार्कोट कायस्थ राजवंश की स्थापना दुर्र्लभवर्धन ने की थी। दुर्र्लभवर्धन गोन्दडिया वंश के अंतिम राजा बालादित्य के राज्य में अधिकारी थे। बलादित्य ने अपनी बेटी अनांगलेखा का विवाह कायस्थ जाति के एक सुन्दर लेकिन गैर-शाही व्यक्ति दुर्र्लभवर्धन के साथ किया।
कार्कोटा एक नाग का नाम है ये नागवंशी कर्कोटा
कायस्थ क्षत्रिय थे। प्रसिद्ध इतिहासकार आर सी मजुमदार के अनुसार ललितादित्य ने दक्षिण की महत्वपूर्ण विजयों के पश्चात अपना ध्यान उत्तर की तरफ लगाया जिससे उनका साम्राज्य काराकोरम पर्वत शृंखला के सूदूरवर्ती कोने तक जा पहुँचा।
साहस और पराक्रम की प्रतिमूर्ति सम्राट ललितादित्य मुक्तापीड का नाम कश्मीर के इतिहास में सर्वोच्च स्थान पर है। उसका सैंतीस वर्ष का राज्य उसके सफल सैनिक अभियानों, उसके अद्भुत कला-कौशल-प्रेम और विश्व विजेता बनने की उसकी चाह से पहचाना जाता है। लगातार बिना थके युद्धों में व्यस्त रहना और रणक्षेत्र में अपने अनूठे सैन्य कौशल से विजय प्राप्त करना उसके स्वभाव का साक्षात्कार है। ललितादित्य ने पीकिंग को भी जीता और 12 वर्ष के पश्चात् कश्मीर लौटा।
कश्मीर उस समय सबसे शक्तिशाली राज्य था। उत्तर में तिब्बत से लेकर द्वारिका और उड़ीसा के सागर तट और दक्षिण तक, पूर्व में बंगाल, पश्चिम में विदिशा और मध्य एशिया तक कश्मीर का राज्य फैला हुआ था जिसकी राजधानी प्रकरसेन नगर थी। ललितादित्य की सेना की पदचाप अरण्यक (ईरान) तक पहुंच गई थी।
कृष्ण राज वाडियार चतुर्थ (4 जून 1884 - 3 अगस्त 1940), नलवडी कृष्ण राज वाडियार के नाम से भी लोकप्रिय थे, वे 1902 से लेकर 1940 में अपनी मृत्यु तक राजसी शहर मैसूर के सत्तारूढ़ महाराजा थे। जब भारत ब्रिटिश शासन के अधीन था तब भी वे भारतीय राज्यों के यशस्वी शासकों में गिने जाते थे। अपनी मौत के समय, वे विश्व के सर्वाधिक धनी लोगों में गिने जाते थे, जिनके पास 1940 में $400 अरब डॉलर की व्यक्तिगत संपत्ति थी जो 2010 की कीमतों के अनुसार $56 बिलियन डॉलर के बराबर होगी.
वे एक दार्शनिक सम्राट थे, जिन्हें पॉल ब्रन्टॉन ने प्लेटो के रिपब्लिक में वर्णित आदर्श को अपने जीवन में उतारने वाले व्यक्ति के रूप में देखा गया था। अंग्रेजी राजनीतिज्ञ लॉर्ड सैम्यूल ने उनकी तुलना सम्राट अशोक से की है। महात्मा गांधी उन्हें राजर्षि या "संत जैसा राजा" कहते थे और उनके अनुयायी उनके राज्य को राम राज्य के रूप में वर्णित करते थे, जो भगवान राम द्वारा शासित साम्राज्य के समान था।
कृष्णा चतुर्थ मैसूर के वाडियार राजवंश के 24वें शासक थे जिसने मैसूर राज्य पर 1399 से 1950 तक शासन किया।
शेरशाह सूरी (1472 - मई 1545) ( जन्म का नाम फ़रीद खाँ) भारत में जन्मे पठान थे, जिन्होंने हुमायूँ को 1540 में हराकर उत्तर भारत में सूरी साम्राज्य स्थापित किया था। शेरशाह सूरी ने पहले बाबर के लिये एक सैनिक के रूप में काम किया था जिन्होंने उन्हें पदोन्नत कर सेनापति बनाया और फिर बिहार का राज्यपाल नियुक्त किया। 1537 में, जब हुमायूँ कहीं सुदूर अभियान पर थे तब शेरशाह ने बंगाल पर कब्ज़ा कर सूरी वंश स्थापित किया था। सन् 1539 में, शेरशाह को चौसा की लड़ाई में हुमायूँ का सामना करना पड़ा जिसे शेरशाह ने जीत लिया। 1540 ई. में शेरशाह ने हुमायूँ को पुनः हराकर भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया और शेर खान की उपाधि लेकर सम्पूर्ण उत्तर भारत पर अपना साम्रज्य स्थापित कर दिया।एक शानदार रणनीतिकार, शेर शाह ने खुद को सक्षम सेनापति के साथ ही एक प्रतिभाशाली प्रशासक भी साबित किया। 1540-1545 के अपने पांच साल के शासन के दौरान उन्होंने नयी नगरीय और सैन्य प्रशासन की स्थापना की, पहला रुपया जारी किया है, भारत की डाक व्यवस्था को पुनः संगठित किया और अफ़गानिस्तान में काबुल से लेकर बांग्लादेश के चटगांव तक ग्रांड ट्रंक रोड को बढ़ाया। साम्राज्य के उसके पुनर्गठन ने बाद में मुगल सम्राटों के लिए एक मजबूत नीव रखी विशेषकर हुमायूँ के बेटे अकबर के लिये।
यशोवर्मन का राज्यकाल 700 से 740 ई0 के बीच में रखा जा सकता है। कन्नौज उसकी राजधानी थी। कान्यकुब्ज (कन्नौज) पर इसके पहले हर्ष का शासन था जो बिना उत्तराधिकारी छोड़े ही मर गये जिससे शक्ति का 'निर्वात' पैदा हुआ।
यह भी संभ्भावना है कि उसे राज्याधिकार इससे पहले ही 690 ई0 के लगभग मिला हो। यशोवर्मन् के वंश और उसके प्रारंभिक जीवन के विषय में कुछ निश्चयात्मक नहीं कहा जा सकता। केवल वर्मन् नामांत के आधार पर उसे मौखरि वंश से संबंधित नहीं किया जा सकता। जैन ग्रंथ बप्प भट्ट, सूरिचरित और प्रभावक चरित में उसे चंद्रगुप्त मौर्य का वंशज कहा गया है किंतु यह संदिग्ध है। उसका नालंदा अभिलेख इस विषय पर मौन है। गउडवहो में उसे चंद्रवंशी क्षत्रिय कहा गया है। गउडवहो में यशोवर्मन् की विजययात्रा का वर्णन है। सर्वप्रथम इसके बाद बंग के नरेश ने उसकी अधीनता स्वीकार की। दक्षिणी पठार के एक नरेश को अधीन बनाता हुआ, मलय पर्वत को पार कर वह समुद्रतट तक पहुँचा। उसने पारसीकों (पारसी) को पराजित किया और पश्चिमी घाट के दुर्गम प्रदेशों से भी कर वसूल किया। नर्मदा नदी पहुँचकर, समुद्रतट के समीप से वह मरू देश पहुँचा। तत्पश्चात् श्रीकंठ (थानेश्वर) और कुरूक्षेत्र होते हुए वह अयोध्या गया। मंदर पर्वत पर रहनेवालों को अधीन बनाता हुआ वह हिमालय पहुँचा और अपनी राजधानी कन्नौज लौटा।
इस विरण में परंपरागत दिग्विजय का अनुसरण दिखलाई पड़ता है। पराजित राजाओं का नाम न देने के कारण वर्णन संदिग्ध लगता है। यदि मगध के पराजित नरेश को ही गौड़ के नरेश स्वीकार कर लिया जाय तो भी इस मुख्य घटना को ग्रंथ में जो स्थान दिया गया है वह अत्यल्प है। किंतु उस युग की राजनीतिक परिस्थिति में ऐसी विजयों को असंभव कहकर नहीं छोड़ा जा सकता। अन्य प्रमाणों से विभिन्न दिशाओं में यशोवर्मन् की कुछ विजयों का संकेत और समर्थन प्राप्त होता है। नालंदा के अभिलेख में भी उसकी प्रभुता का उल्लेख है। अभिलेख का प्राप्तिस्थान मगध पर उसके अधिकार का प्रमाण है। चालुक्य अभिलेखों में सकलोत्तरापथनाथ के रूप में संभवत: उसी का निर्देश है और उसी ने चालुक्य युवराज विजयादित्य को बंदी बनाया था। अरबों का कन्नौज पर आक्रमण सभवत: उसी के कारण विफल हुआ। कश्मीर के ललितादित्य से भी आरंभ में उसके संबंध मैत्रीपूर्ण थे और संभवत: दोनों ने अरब और तिब्बत के विरूद्ध चीन की सहायता चाही हो किंतु शीघ्र ही ललितादित्य और यशोवर्मन् की महत्वाकांक्षाओं के फलस्वरूप दीर्घकालीन संघर्ष हुआ। संधि के प्रयत्न असफल हुए और यशोंवर्मन् पराजित हुआ। संभवत: युद्ध में यशोवर्मन् की मृत्यु नहीं हुई थी, फिर भी इतिहास के लिये उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है।
यशेवर्मन् ने भवभूति और वाक्पतिराज जैसे प्रसिद्ध कवियों को आश्रय दिया था। वह स्वयं कवि था। सुभाषित ग्रथों के कुछ पद्यों और रामाभ्युदय नाटक का रचयिता कहा जाता है। उसने मगध में अपने नाम से नगर बसाया था। उसका यश गउडवहो और राजतरंगिणी के अतिरिक्त जैन ग्रंथ प्रभावक चरित, प्रबंधकोष और बप्पभट्ट चरित एवं उसके नालंदा के अभिलेख में परिलक्षित होता है।
कश्मीर से यशोवर्मा के नाम के सिक्के प्राप्त होते हैं। यशोवर्मा के संबंध में विद्वानों ने अटकलबाजियाँ लगाई थीं। कुछ ने उसे कन्नौज का यशोवर्मन् ही माना है। किंतु अब इसमें संदेह नहीं रह गया है कि यशोवर्मा कश्मीर के उत्पलवंशीय नरेश शंकरवर्मन का ही दूसरा नाम था।
नरसिंहवर्मन् 1 पल्लव राजवंश का राजा। इसने 630 से 668 तक राज किया। इसने महाबलिपुरम में अपने पिता महेन्द्रवर्मन् के आरम्भ किये निर्माण महाबलिपुरम के तट मन्दिर परिसर को पूरा किया। यह मल्ल भी था इसीलिये इसे ममल्लन् बी कहते हैं और महाबलिपुरम् को ममल्लपुरम् भी कहते हैं।
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