डिस्कवर द स्पिरिचुअल मास्टर्स हिंदू गुरुओं और संतों की एक व्यापक सूची है, जो भारत की समृद्ध आध्यात्मिक विरासत के लिए एक मार्गदर्शक के रूप में कार्य करती है। इस सूची में कुछ सबसे प्रसिद्ध और प्रभावशाली आध्यात्मिक नेता शामिल हैं जिन्होंने सदियों से भारत के आध्यात्मिक और सांस्कृतिक परिदृश्य को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
हिंदू धर्म एक विविध और जटिल धर्म है, और इसकी आध्यात्मिक परंपराओं को इसके आध्यात्मिक गुरुओं या गुरुओं की शिक्षाओं के माध्यम से संरक्षित और प्रसारित किया गया है। इन गुरुओं और संतों ने अपने अनुयायियों को आध्यात्मिक मार्गदर्शन और ज्ञान प्रदान किया है, और उनकी शिक्षाएँ आज भी दुनिया भर में लाखों लोगों को प्रेरित करती हैं।
सूची में आदि शंकराचार्य, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, श्री रमण महर्षि, परमहंस योगानंद और कई अन्य जैसे ऐतिहासिक और समकालीन आध्यात्मिक गुरु शामिल हैं। सूची में भारत के विभिन्न क्षेत्रों के गुरु और संत भी शामिल हैं, जो विभिन्न हिंदू संप्रदायों और आध्यात्मिक परंपराओं का प्रतिनिधित्व करते हैं।
डिस्कवर द स्पिरिचुअल मास्टर्स भारत की आध्यात्मिक विरासत की खोज और हिंदू धर्म की गहरी समझ हासिल करने में रुचि रखने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए एक अमूल्य संसाधन है। चाहे आप एक आध्यात्मिक साधक हों, धर्म के छात्र हों, या भारत की समृद्ध आध्यात्मिक परंपराओं के बारे में उत्सुक हों, हिंदू गुरुओं और संतों की यह व्यापक सूची निश्चित रूप से प्रेरित और ज्ञानवर्धक है।
स्वामी विवेकानन्द (जन्म: 12 जनवरी,1863 - मृत्यु: 4 जुलाई,1902) वेदान्त के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु थे। उनका वास्तविक नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था। उन्होंने अमेरिका स्थित शिकागो में सन् 1893 में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था। भारत का आध्यात्मिकता से परिपूर्ण वेदान्त दर्शन अमेरिका और यूरोप के हर एक देश में स्वामी विवेकानन्द की वक्तृता के कारण ही पहुँचा। उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी जो आज भी अपना काम कर रहा है। वे रामकृष्ण परमहंस के सुयोग्य शिष्य थे। उन्हें 2 मिनट का समय दिया गया था लेकिन उन्हें प्रमुख रूप से उनके भाषण की शुरुआत "मेरे अमेरिकी बहनों एवं भाइयों" के साथ करने के लिये जाना जाता है। उनके संबोधन के इस प्रथम वाक्य ने सबका दिल जीत लिया था।
कलकत्ता के एक कुलीन बंगाली कायस्थपरिवार में जन्मे विवेकानंद आध्यात्मिकता की ओर झुके हुए थे। वे अपने गुरु रामकृष्ण देव से काफी प्रभावित थे जिनसे उन्होंने सीखा कि सारे जीवो मे स्वयं परमात्मा का ही अस्तित्व हैं; इसलिए मानव जाति अथेअथ जो मनुष्य दूसरे जरूरत मंदो मदद करता है या सेवा द्वारा परमात्मा की भी सेवा की जा सकती है।
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आदि शंकर (संस्कृत: आदिशङ्कराचार्यः) ये भारत के एक महान दार्शनिक एवं धर्मप्रवर्तक थे। उन्होने अद्वैत वेदान्त को ठोस आधार प्रदान किया। भगवद्गीता, उपनिषदों और वेदांतसूत्रों पर लिखी हुई इनकी टीकाएँ बहुत प्रसिद्ध हैं। उन्होंने सांख्य दर्शन का प्रधानकारणवाद और मीमांसा दर्शन के ज्ञान-कर्मसमुच्चयवाद का खण्डन किया। परम्परा के अनुसार उनका जन्म 508-9 ईसा पूर्व तथा महासमाधि 477 ईसा पूर्व में हुई थी। इन्होंने भारतवर्ष में चार कोनों में चार मठों की स्थापना की थी जो अभी तक बहुत प्रसिद्ध और पवित्र माने जाते हैं और जिन पर आसीन संन्यासी 'शंकराचार्य' कहे जाते हैं। वे चारों स्थान ये हैं- (1) ज्योतिष्पीठ बदरिकाश्रम, (2) श्रृंगेरी पीठ, (3) द्वारिका शारदा पीठ और (4) पुरी गोवर्धन पीठ। इन्होंने अनेक विधर्मियों को भी अपने धर्म में दीक्षित किया था। ये शंकर के अवतार माने जाते हैं। इन्होंने ब्रह्मसूत्रों की बड़ी ही विशद और रोचक व्याख्या की है।उनके विचारोपदेश आत्मा और परमात्मा की एकरूपता पर आधारित हैं जिसके अनुसार परमात्मा एक ही समय में सगुण और निर्गुण दोनों ही स्वरूपों में रहता है। स्मार्त संप्रदाय में आदि शंकराचार्य को शिव का अवतार माना जाता है। इन्होंने ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक और छान्दोग्योपनिषद् पर भाष्य लिखा। वेदों में लिखे ज्ञान को एकमात्र ईश्वर को संबोधित समझा और उसका प्रचार तथा वार्ता पूरे भारतवर्ष में की। उस समय वेदों की समझ के बारे में मतभेद होने पर उत्पन्न चार्वाक, जैन और बौद्ध मतों को शास्त्रार्थों द्वारा खण्डित किया और भारत में चार कोनों पर ज्योति, गोवर्धन, श्रृंगेरी एवं द्वारिका आदि चार मठों की स्थापना की।
कलियुग के प्रथम चरण में विलुप्त तथा विकृत वैदिक ज्ञानविज्ञान को उद्भासित और विशुद्ध कर वैदिक वाङ्मय को दार्शनिक, व्यावहारिक, वैज्ञानिक धरातल पर समृद्ध करने वाले एवं राजर्षि सुधन्वा को सार्वभौम सम्राट ख्यापित करने वाले चतुराम्नाय-चतुष्पीठ संस्थापक नित्य तथा नैमित्तिक युग्मावतार श्रीशिवस्वरुप भगवत्पाद शंकराचार्य की अमोघदृष्टि तथा अद्भुत कृति सर्वथा स्तुत्य है।
सतयुग की अपेक्षा त्रेता में, त्रेता की अपेक्षा द्वापर में तथा द्वापर की अपेक्षा कलि में मनुष्यों की प्रज्ञाशक्ति तथा प्राणशक्ति एवं धर्म औेर आध्यात्म का ह्रास सुनिश्चित है। यही कारण है कि कृतयुग में शिवावतार भगवान दक्षिणामूर्ति ने केवल मौन व्याख्यान से शिष्यों के संशयों का निवारण किया। त्रेता में ब्रह्मा, विष्णु औऱ शिव अवतार भगवान दत्तात्रेय ने सूत्रात्मक वाक्यों के द्वारा अनुगतों का उद्धार किया। द्वापर में नारायणावतार भगवान कृष्णद्वैपायन वेदव्यास ने वेदों का विभाग कर महाभारत तथा पुराणादि की एवं ब्रह्मसूत्रों की संरचनाकर एवं शुक लोमहर्षणादि कथाव्यासों को प्रशिक्षितकर धर्म तथा आध्यात्म को उज्जीवित रखा। कलियुग में भगवत्पाद श्रीमद् शंकराचार्य ने भाष्य , प्रकरण तथा स्तोत्रग्रन्थों की संरचना कर , विधर्मियों-पन्थायियों एवं मीमांसकादि से शास्त्रार्थ , परकायप्रवेशकर , नारदकुण्ड से अर्चाविग्रह श्री बदरीनाथ एवं भूगर्भ से अर्चाविग्रह श्रीजगन्नाथ दारुब्रह्म को प्रकटकर तथा प्रस्थापित कर , सुधन्वा सार्वभौम को राजसिंहासन समर्पित कर एवं चतुराम्नाय - चतुष्पीठों की स्थापना कर अहर्निश अथक परिश्रम के द्वारा धर्म और आध्यात्म को उज्जीवित तथा प्रतिष्ठित किया।
व्यासपीठ के पोषक राजपीठ के परिपालक धर्माचार्यों को श्रीभगवत्पाद ने नीतिशास्त्र , कुलाचार तथा श्रौत-स्मार्त कर्म , उपासना तथा ज्ञानकाण्ड के यथायोग्य प्रचार-प्रसार की भावना से अपने अधिकार क्षेत्र में परिभ्रमण का उपदेश दिया। उन्होंने धर्मराज्य की स्थापना के लिये व्यासपीठ तथा राजपीठ में सद्भावपूर्ण सम्वाद के माध्यम से सामंजस्य बनाये रखने की प्रेरणा प्रदान की। ब्रह्मतेज तथा क्षात्रबल के साहचर्य से सर्वसुमंगल कालयोग की सिद्धि को सुनिश्चित मानकर कालगर्भित तथा कालातीतदर्शी आचार्य शंकर ने व्यासपीठ तथा राजपीठ का शोधनकर दोनों में सैद्धान्तिक सामंजस्य साधा।
दसनामी गुसांई गोस्वामी (सरस्वती,गिरि, पुरी, बन, पर्वत, अरण्य, सागर, तीर्थ, आश्रम और भारती उपनाम वाले गुसांई, गोसाई, गोस्वामी) इनके आध्यात्मिक उत्तराधिकारी माने जाते हैं और उनके प्रमुख सामाजिक संगठन का नाम
"अंतरराष्ट्रीय जगतगुरु दसनाम गुसांई गोस्वामी एकता अखाड़ा परिषद" है। शंकराचार्य ने पूरे भारत में मंदिरों और शक्तिपीठों की पुनः स्थापना की। नील पर्वत पर स्थित चंडी देवी मंदिर इन्हीं द्वारा स्थापित किया माना जाता है। शिवालिक पर्वत श्रृंखला की पहाड़ियों के मध्य स्थित माता शाकंभरी देवी शक्तिपीठ में जाकर इन्होंने पूजा अर्चना की और शाकंभरी देवी के साथ तीन देवियां भीमा, भ्रामरी और शताक्षी देवी की प्रतिमाओं को स्थापित किया। कामाक्षी देवी मंदिर भी इन्हीं द्वारा स्थापित है जिससे उस युग में धर्म का बढ़-चढ़कर प्रसार हुआ था।
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स्वामी श्रील भक्तिवेदांत प्रभुपाद
अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (1 सितम्बर 1896 – 14 नवम्बर 1977) जिन्हें स्वामी श्रील भक्तिवेदांत प्रभुपाद के नाम से भी जाना जाता है,सनातन हिन्दू धर्म के एक प्रसिद्ध गौडीय वैष्णव गुरु तथा धर्मप्रचारक थे। आज संपूर्ण विश्व की हिन्दु धर्म भगवान श्री कृष्ण और श्रीमदभगवतगीता में जो आस्था है आज समस्त विश्व के करोडों लोग जो सनातन धर्म के अनुयायी बने हैं उसका श्रेय जाता है अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद को, इन्होंने वेदान्त कृष्ण-भक्ति और इससे संबंधित क्षेत्रों पर शुद्ध कृष्ण भक्ति के प्रवर्तक श्री ब्रह्म-मध्व-गौड़ीय संप्रदाय के पूर्वाचार्यों की टीकाओं के प्रचार प्रसार और कृष्णभावना को पश्चिमी जगत में पहुँचाने का काम किया। ये भक्तिसिद्धांत ठाकुर सरस्वती के शिष्य थे जिन्होंने इनको अंग्रेज़ी भाषा के माध्यम से वैदिक ज्ञान के प्रसार के लिए प्रेरित और उत्साहित किया। इन्होने इस्कॉन (ISKCON) की स्थापना की और कई वैष्णव धार्मिक ग्रंथों का प्रकाशन और संपादन स्वयं किया।
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अभिनवगुप्त (975-1025) दार्शनिक, रहस्यवादी एवं साहित्यशास्त्र के मूर्धन्य आचार्य। कश्मीरी शैव और तन्त्र के पण्डित। वे संगीतज्ञ, कवि, नाटककार, धर्मशास्त्री एवं तर्कशास्त्री भी थे।अभिनवगुप्त का व्यक्तित्व बड़ा ही रहस्यमय है। महाभाष्य के रचयिता पतंजलि को व्याकरण के इतिहास में तथा भामतीकार वाचस्पति मिश्र को अद्वैत वेदांत के इतिहास में जो गौरव तथा आदरणीय उत्कर्ष प्राप्त हुआ है वही गौरव अभिनव को भी तंत्र तथा अलंकारशास्त्र के इतिहास में प्राप्त है। इन्होंने रस सिद्धांत की मनोवैज्ञानिक व्याख्या (अभिव्यंजनावाद) कर अलंकारशास्त्र को दर्शन के उच्च स्तर पर प्रतिष्ठित किया तथा प्रत्यभिज्ञा और त्रिक दर्शनों को प्रौढ़ भाष्य प्रदान कर इन्हें तर्क की कसौटी पर व्यवस्थित किया। ये कोरे शुष्क तार्किक ही नहीं थे, प्रत्युत साधनाजगत् के गुह्य रहस्यों के मर्मज्ञ साधक भी थे।
अभिनवगुप्त के आविर्भावकाल का पता उन्हीं के ग्रंथों के समयनिर्देश से भली भाँति लगता है। इनके आरंभिक ग्रंथों में क्रमस्तोत्र की रचना 66 लौकिक संवत् (991 ई.) में और भैरवस्तोत्र की 68 संवत (993 ई.) में हुई। इनकी ईश्वर-प्रत्यभिज्ञा-विमर्षिणी का रचनाकाल 90 लौकिक संवत् (1015 ई.) है। फलत: इनकी साहित्यिक रचनाओं का काल 990 ई. से लेकर 1020 ई. तक माना जा सकता है। इस प्रकार इनका समय दशम शती का उत्तरार्ध तथा एकादश शती का आरंभिक काल स्वीकार किया जा सकता है।
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एक भारतीय संत को लाहिड़ी महाशय और उनके अनेक चेलों ने महावतार बाबाजी का नाम दिया जो 1861 और 1935 के बीच महावतार बाबाजी से मिले।
इन भेंटों में से कुछ का वर्णन परमहंस योगानन्द ने अपनी पुस्तक एक योगी की आत्मकथा (1946) में किया है इसमें योगानन्द की महावतार बाबाजी के साथ स्वंय की भेट का प्रत्यक्ष वर्णन भी शामिल है। एक और प्रत्यक्ष वर्णन श्री युक्तेश्वर गिरि,ने अपनी पुस्तक द होली साईंस में दिया था। ये सब वर्णन और बाबाजी महावतार के साथ हुई अन्य भेंटें योगानंद द्वारा उल्लिखित विभिन्न आत्मकथाओं में वर्णित हैं।
महावतार बाबाजी का असली नाम और जन्म तिथि ज्ञात नहीं है इसलिए उस अवधि के दौरान उनसे मिलनेवाले उन्हें सर्वप्रथम लाहिरी महाशय द्वारा दी गई पदवी के नाम से पुकारते थे। "महावतार" का अर्थ है "महान अवतार" और "बाबाजी" का सरल सा मतलब है "श्रद्धेय पिता". कुछ मुलाकातें जिनके दो या अधिक साक्षी भी थे-महावतार बाबाजी से मुलाकात करने वाले उन सभी व्यक्तियों के बीच चर्चाओं से संकेत मिलता है कि वे सभी एक ही व्यक्ति से मिले थे।
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अगस्त्य (तमिल:அகத்தியர், अगतियार) एक वैदिक ॠषि थे। ये वशिष्ठ मुनि के बड़े भाई थे। इनका जन्म श्रावण शुक्ल पंचमी (तदनुसार 3000 ई.पू.) को काशी में हुआ था। वर्तमान में वह स्थान अगस्त्यकुंड के नाम से प्रसिद्ध है। इनकी पत्नी लोपामुद्रा विदर्भ देश की राजकुमारी थी। इन्हें सप्तर्षियों में से एक माना जाता है। देवताओं के अनुरोध पर इन्होंने काशी छोड़कर दक्षिण की यात्रा की और बाद में वहीं बस गये थे।
वैज्ञानिक ऋषियों के क्रम में महर्षि अगस्त्य भी एक वैदिक ऋषि थे। महर्षि अगस्त्य राजा दशरथ के राजगुरु थे। इनकी गणना सप्तर्षियों में की जाती है। महर्षि अगस्त्य को मंत्रदृष्टा ऋषि कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने अपने तपस्या काल में उन मंत्रों की शक्ति को देखा था। ऋग्वेद के अनेक मंत्र इनके द्वारा दृष्ट हैं। महर्षि अगस्त्य ने ही ऋग्वेद के प्रथम मंडल के 165 सूक्त से 191 तक के सूक्तों को बताया था। साथ ही इनके पुत्र दृढ़च्युत तथा दृढ़च्युत के बेटा इध्मवाह भी नवम मंडल के 25वें तथा 26वें सूक्त के द्रष्टा ऋषि हैं।
महर्षि अगस्त्य को पुलस्त्य ऋषि का बेटा माना जाता है। उनके भाई का नाम विश्रवा था जो रावण के पिता थे। पुलस्त्य ऋषि ब्रह्मा के पुत्र थे। महर्षि अगस्त्य ने विदर्भ-नरेश की पुत्री लोपामुद्रा से विवाह किया, जो विद्वान और वेदज्ञ थीं। दक्षिण भारत में इसे मलयध्वज नाम के पांड्य राजा की पुत्री बताया जाता है। वहां इसका नाम कृष्णेक्षणा है। इनका इध्मवाहन नाम का पुत्र था।
अगस्त्य के बारे में कहा जाता है कि एक बार इन्होंने अपनी मंत्र शक्ति से समुद्र का समूचा जल पी लिया था, विंध्याचल पर्वत को झुका दिया था और मणिमती नगरी के इल्वल तथा वातापी नामक दुष्ट दैत्यों की शक्ति को नष्ट कर दिया था। अगस्त्य ऋषि के काल में राजा श्रुतर्वा, बृहदस्थ और त्रसदस्यु थे। इन्होंने अगस्त्य के साथ मिलकर दैत्यराज इल्वल को झुकाकर उससे अपने राज्य के लिए धन-संपत्ति मांग ली थी।
'सत्रे ह जाताविषिता नमोभि: कुंभे रेत: सिषिचतु: समानम्। ततो ह मान उदियाय मध्यात् ततो ज्ञातमृषिमाहुर्वसिष्ठम्॥ इस ऋचा के भाष्य में आचार्य सायण ने लिखा है- 'ततो वासतीवरात् कुंभात् मध्यात् अगस्त्यो शमीप्रमाण उदियाप प्रादुर्बभूव। तत एव कुंभाद्वसिष्ठमप्यृषिं जातमाहु:॥
दक्षिण भारत में अगस्त्य तमिल भाषा के आद्य वैय्याकरण हैं। यह कवि शूद्र जाति में उत्पन्न हुए थे इसलिए यह 'शूद्र वैयाकरण' के नाम से प्रसिद्ध हैं। यह ऋषि अगस्त्य के ही अवतार माने जाते हैं। ग्रंथकार के नाम परुनका यह व्याकरण 'अगस्त्य व्याकरण' के नाम से प्रख्यात है। तमिल विद्वानों का कहना है कि यह ग्रंथ पाणिनि की अष्टाध्यायी के समान ही मान्य, प्राचीन तथा स्वतंत्र कृति है जिससे ग्रंथकार की शास्त्रीय विद्वता का पूर्ण परिचय उपलब्ध होता है।
भारतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार में उनके विशिष्ट योगदान के लिए जावा, सुमात्रा आदि में इनकी पूजा की जाती है। महर्षि अगस्त्य वेदों में वर्णित मंत्र-द्रष्टा मुनि हैं। इन्होंने आवश्यकता पड़ने पर कभी ऋषियों को उदरस्थ कर लिया था तो कभी समुद्र भी पी गये थे।
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जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज (अंग्रेजी: Kripalu Maharaj, संस्कृत: जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज, जन्म: 5 अक्टूबर 1922, मृत्यु: 15 नवम्बर 2013) एक सुप्रसिद्ध हिन्दू आध्यात्मिक गुरु एवं वेदों के प्रकांड विद्वान थे। मूलत: इलाहाबाद के निकट मनगढ़ नामक ग्राम (जिला प्रतापगढ़) में जन्मे जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज का पूरा नाम रामकृपालु त्रिपाठी था।उन्होंने जगद्गुरु कृपालु परिषद् के नाम से विख्यात एक वैश्विक हिन्दू संगठन का गठन किया था। जिसके इस समय 5 मुख्य आश्रम पूरे विश्व में स्थापित हैं। विदेशों में इनका मुख्य आध्यात्मिक केन्द्र (द हार्वर्ड प्लूरिश प्रोजेक्ट) यूएसए में है। इनमें से चार भारत में तथा एक (द हार्वर्ड प्लूरिश प्रोजेक्ट) अमरीका में है। जेकेपी राधा माधव धाम तो सम्पूर्ण पश्चिमी गोलार्द्ध, विशेषकर उत्तरी अमेरिका में सबसे विशाल हिन्दू मन्दिर है।14 जनवरी 1957 को मकर संक्रांति के दिन महज़ 34 वर्ष की आयु में उन्हें काशी विद्वत् परिषद् की ओर से जगद्गुरु की उपाधि से विभूषित किया गया था। वे अपने प्रवचनों में समस्त वेदों, उपनिषदों, पुराणों, गीता, वेदांत सूत्रों आदि के खंड, अध्याय, आदि सहित संस्कृत मन्त्रों की संख्या क्रम तक बतलाते थे जो न केवल उनकी विलक्षण स्मरणशक्ति का द्योतक था, वरन् उनके द्वारा कण्ठस्थ सारे वेद, वेदांगों, ब्राह्मणों, आरण्यकों, श्रुतियों, स्मृतियों, विभिन्न ऋषियों और शंकराचार्य प्रभृति जद्गुरुओं द्वारा विरचित टीकाओं आदि पर उनके अधिकार और अद्भुत ज्ञान को भी दर्शाता था।[कृपया उद्धरण जोड़ें]जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज का 15 नवम्बर 2013 (शुक्रवार) सुबह 7 बजकर 5 मिनट पर गुड़गाँव के फोर्टिस अस्पताल में निधन हो गया।
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श्यामाचरण लाहिड़ी (30 सितम्बर 1828 – 26 सितम्बर 1895) 19वीं शताब्दी के उच्च कोटि के साधक थे जिन्होंने सद्गृहस्थ के रूप में यौगिक पूर्णता प्राप्त कर ली थी। आपको 'लाहिड़ी महाशय' भी कहते हैं। इनकी गीता की आध्यात्मिक व्याख्या आज भी शीर्ष स्थान पर है। इन्होंने वेदान्त, सांख्य, वैशेषिक, योगदर्शन और अनेक संहिताओं की व्याख्या भी प्रकाशित की। इनकी प्रणाली की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि गृहस्थ मनुष्य भी योगाभ्यास द्वारा चिरशांति प्राप्त कर योग के उच्चतम शिखर पर आरूढ़ हो सकता है।
आपका जन्म बंगाल के नदिया जिले की प्राचीन राजधानी कृष्णनगर के निकट धरणी नामक ग्राम के एक संभ्रान्त ब्राह्मण कुल में अनुमानतः 1825-26 ई. में हुआ था। आपका पठनपाठन काशी में हुआ। बंगला, संस्कृत के अतिरिक्त अपने अंग्रेजी भी पड़ी यद्यपि कोई परीक्षा नहीं पास की। जीविकोपार्जन के लिए छोटी उम्र में सरकारी नौकरी में लग गए। आप दानापुर में मिलिटरी एकाउंट्स आफिस में थे। कुछ समय के लिए सरकारी काम से अल्मोड़ा जिले के रानीखेत नामक स्थान पर भेज दिए गए। हिमालय की इस उपत्यका में गुरुप्राप्ति और दीक्षा हुई। आपके तीन प्रमुख शिष्य युक्तेश्वर गिरि, केशवानंद और प्रणवानन्द ने गुरु के सम्बन्ध में प्रकाश डाला है। योगानंद परमहंस ने 'एक योगी की आत्मकथा' नामक जीवनवृत्त में गुरु को बाबा जी कहा है। दीक्षा के बाद भी इन्होंने कई वर्षों तक नौकरी की और इसी समय से गुरु के आज्ञानुसार लोगों को दीक्षा देने लगे थे।
सन् 1880 में पेंशन लेकर आप काशी आ गए। इनकी गीता की आध्यात्मिक व्याख्या आज भी शीर्ष स्थान पर है। इन्होंने वेदान्त, सांख्य, वैशेषिक, योगदर्शन और अनेक संहिताओं की व्याख्या भी प्रकाशित की। इनकी प्रणाली की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि गृहस्थ मनुष्य भी योगाभ्यास द्वारा चिरशांति प्राप्त कर योग के उच्चतम शिखर पर आरूढ़ हो सकता है। आपने अपने सहज आडम्बररहित गार्हस्थ्य जीवन से यह प्रमाणित कर दिया था। धर्म के संबंध में बहुत कट्टरता के पक्षपाती न होने पर भी आप प्राचीन रीतिनीति और मर्यादा का पूर्णतया पालन करते थे। शास्त्रों में आपका अटूट विश्वास था।
जब आप रानीखेत में थे तो अवकाश के समय शून्य विजन में पर्यटन पर प्राकृतिक सौन्दर्यनिरीक्षण करते। इसी भ्रमण में दूर से अपना नाम सुनकर द्रोणगिरि नामक पर्वत पर चढ़ते-चढ़ते एक ऐसे स्थान पर पहुँचे जहाँ थोड़ी सी खुली जगह में अनेक गुफाएँ थीं। इसी एक गुफा के करार पर एक तेजस्वी युवक खड़े दीख पड़े। उन्होंने हिंदी में गुफा में विश्राम करने का संकेत किया। उन्होंने कहा 'मैंने ही तुम्हें बुलाया था'। इसके बाद पूर्वजन्मों का वृत्तांत बताते हुए शक्तिपात किया। बाबा जी से दीक्षा का जो प्रकार प्राप्त हुआ उसे क्रियायोग कहा गया है। क्रियायोग की विधि केवल दीक्षित साधकों को ही बताई जाती है। यह विधि पूर्णतया शास्त्रोक्त है और गीता उसकी कुंजी है। गीता में कर्म, ज्ञान, सांख्य इत्यादि सभी योग है और वह भी इतने सहज रूप में जिसमें जाति और धर्म के बंधन बाधक नहीं होते। आप हिंदू, मुसलमान, ईसाई सभी को बिना भेदभाव के दीक्षा देते थे। इसीलिए आपके भक्त सभी धर्मानुयायी हैं। उन्होंने अपने समय में व्याप्त कट्टर जातिवाद को कभी महत्व नहीं दिया। वह अन्य धर्मावलंबियों से यही कहते थे कि आप अपनी धार्मिक मान्यताओं का आदर और अभ्यास करते हुए क्रियायोग द्वारा मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। पात्रानुसार भक्ति, ज्ञान, कर्म और राजयोग के आधार पर व्यक्तित्व और प्रवृत्तियों के अनुसार साधना करने की प्रेरणा देते। उनके मत से शास्त्रों पर शंका अथवा विवाद न कर उनका तथ्य आत्मसात् करना चाहिए। अपनी समस्याओं के हल करने का आत्मचिंतन से बढ़कर कोई मार्ग नहीं।
लाहिड़ी महाशय के प्रवचनों का पूर्ण संग्रह प्राप्य नहीं है किन्तु गीता, उपनिषद्, संहिता इत्यादि की अनेक व्याख्याएँ बँगला में उपलब्ध हैं। भगवद्गीताभाष्य का हिंदी अनुवाद लाहिड़ी महाशय के शिष्य श्री भूपेद्रनाथ सान्याल ने प्रस्तुत किया है। श्री लाहिड़ी की अधिकांश रचनाएँ बँगला में हैं।
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स्वामी निगमानन्द परमहंस (18 अगस्त 1880 - 29 नवम्बर 1935) भारत के एक महान सन्यासी ब सदगुरु थे। उनके शिश्य लोगं उन्हें आदरपूर्वक श्री श्री ठाकुर बुलाते हैं। ऐसा माना जाता है की स्वामी निगमानंद ने तंत्र, ज्ञान, योग और प्रेम(भक्ति) जैशे चतुर्विध साधना में सिद्धि प्राप्त की थी, साथ साथ में कठिन समाधी जैसे निर्विकल्प समाधी का भी अनुभूति लाभ किया था। उनके इन साधना अनुभूति से बे पांच प्रसिध ग्रन्थ यथा ब्रह्मचर्य साधन, योगिगुरु, ज्ञानीगुरु, तांत्रिकगुरु और प्रेमिकगुरु बंगला भाषा में प्रणयन किये थे।
उन्होंने असाम बंगीय सारस्वत मठ जोरहट जिला और नीलाचल सारस्वत संघ पूरी जिला में स्थापना की थी जो आज भी अपना काम कर रहा है।
उन्होने सारे साधना मात्र तिन साल में (1902-1905) समाप्त कर लिया था और परमहंस श्रीमद स्वामी निगमानंद सारस्वती देव के नाम से विख्यात हुए।
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परमहंस योगानन्द (5 जनवरी 1893 – 7 मार्च 1952), बीसवीं सदी के एक आध्यात्मिक गुरू, योगी और संत थे। उन्होंने अपने अनुयायियों को क्रिया योग उपदेश दिया तथा पूरे विश्व में उसका प्रचार तथा प्रसार किया। योगानंद के अनुसार क्रिया योग ईश्वर से साक्षात्कार की एक प्रभावी विधि है, जिसके पालन से अपने जीवन को संवारा और ईश्वर की ओर अग्रसर हुआ जा सकता है। योगानन्द प्रथम भारतीय गुरु थे जिन्होने अपने जीवन के कार्य को पश्चिम में किया। योगानन्द ने 1920 में अमेरिका के लिए प्रस्थान किया। संपूर्ण अमेरिका में उन्होंने अनेक यात्रायें की। उन्होंने अपना जीवन व्याख्यान देने, लेखन तथा निरन्तर विश्व व्यापी कार्य को दिशा देने में लगाया। उनकी उत्कृष्ट आध्यात्मिक कृति योगी कथामृत (An Autobiography of a Yogi) की लाखों प्रतियां बिकीं और वह सर्वाधिक बिकने वाली आध्यात्मिक आत्मकथा रही है।
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श्री राघवेंद्र(c.1595 – c.1671) एक हिंदू विद्वान, धर्मशास्त्री और संत थे। उन्हें सुधा परिमलचार्य के रूप में भी जाना जाता था। उनके विविध कृतियों में माधव, जयतीर्थ और व्यासतीर्थ के कार्यों पर टिप्पणी, द्वैत के दृष्टिकोण से प्रधान उपनिषदों की व्याख्या और पूर्वा मीमांसा पर एक ग्रंथ शामिल हैं। उन्होंने 1624 से 1671 तक कुंभकोणम में मठ में पुजारी के रूप में कार्य किया राघवेंद्र वीणा के एक कुशल वादक भी थे और उन्होंने वेनू गोपल के नाम से कई गीतों की रचना की। मन्त्रालयम में उनका मंदिर हर साल हजारों आगंतुकों को आकर्षित करता है।
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अद्वैत आचार्य (मूल नाम कमलाक्ष भट्टाचार्य ; 1434 - 1559), चैतन्य महाप्रभु के सखा तथा हरिदास ठाकुर के गुरु थे। वे श्री चैतन्य महाप्रभु के अन्तरंग पार्षदों में से एक थे तथा सदाशिव एवं महाविष्णु के अवतार माने जाते हैं। यह उनकी प्रार्थनाओं द्वारा आह्वाहन का ही प्रतिफल था जिसके कारण श्री चैतन्य महाप्रभु इस पृथ्वी पर अवतरित हुए ।
अद्वैत आचार्य का जन्म श्री चैतन्य से लगभग पचास वर्ष पूर्व 1434 में लाउड (वर्तमान सुनामगंज जिला, बांग्लादेश ) के नवग्राम में हुआ था। उन्होंने अपना अधिकांश जीवन अपनी पत्नी और परिवार के साथ नादिया के शांतिपुर (वर्तमान मतीगंज) में बिताया। अद्वैत आचार्य के छह पुत्र थे, अच्युतानन्द दास, कृष्ण मिश्र, गोपाल दास, बलराम दास मिश्र, स्वरूप दास और जगदीश मिश्र।
अद्वैत आचार्य के वंश और जीवन का वर्णन कई ग्रन्थों में किया गया है, जिसमें संस्कृत में कृष्णदास का बाल्यालीलासूत्र (1487? ) और बंगाली में नरहरिदास का अद्वैतविलास । उनकी कई गतिविधियों का वर्णन चैतन्य चरितामृत, चैतन्यमङ्गल और चैतन्य भागवत में किया गया है।
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आलवार (तमिल: ஆழ்வார்கள்) ([aːɻʋaːr] ; अर्थ : ‘भगवान में डुबा हुआ' ) तमिल कवि एवं सन्त थे। इनका काल 6ठी से 9वीं शताब्दी के बीच रहा। उनके पदों का संग्रह "दिव्य प्रबन्ध" कहलाता है जो 'वेदों' के तुल्य माना जाता है। आलवार सन्त भक्ति आन्दोलन के जन्मदाता माने जाते हैं।
विष्णु या नारायण की उपासना करनेवाले भक्त 'आलवार' कहलाते हैं। इनकी संख्या 12 हैं। उनके नाम इस प्रकार है -
(1) पोय्गै आलवार
(2) भूतत्तालवार
(3) पेयालवार
(4) तिरुमालिसै आलवार
(5) नम्मालवार
(6) मधुरकवि आलवार
(7) कुलशेखरालवार
(8) पेरियालवार
(9) आण्डाल
(10) तोण्डरडिप्पोड़ियालवार
(11) तिरुप्पाणालवार
(12) तिरुमंगैयालवार।इन बारह आलवारों ने घोषणा की कि भगवान की भक्ति करने का सबको समान रूप से अधिकार प्राप्त है। इन्होंने, जिनमें कतिपय निम्न जाति के भी थे, समस्त तमिल प्रदेश में पदयात्रा कर भक्ति का प्रचार किया। इनके भावपूर्ण लगभग 4000 गीत मालायिर दिव्य प्रबन्ध में संग्रहित हैं। दिव्य प्रबन्ध भक्ति तथा ज्ञान का अनमोल भण्डार है। आलवारों का संक्षिप्त परिचय नीचे दिया जा रहा है-
प्रथम तीन आलवारों में से पोरगे का जन्मस्थान काँचीपुरम, भूतन्तालवार का जन्मस्थन महाबलिपुरम और पेयालवार का जन्म स्थान चेन्नै (मैलापुर) बतलाया जाता है। इन आलवारों के भक्तिगान 'ज्ञानद्वीप' के रूप में विख्यात हैं। मद्रास से 15 मील दूर तिरुमिषिसै नामक एक छोटा सा ग्राम है। यहीं पर तिरुमिष्सिे का जन्म हुआ। मातापिता ने इन्हें शैशवावस्था में ही त्याग दिया। एक व्याध के द्वारा इनका लालन-पालन हुआ। कालांतर में ये बड़े ज्ञानी और भक्त बने। नम्मालवार का दूसरा नाम शठकोप बतलाया जाता है। पराकुंश मुनि के नाम से भी ये विख्यात हैं। आलवारों में यही महत्वपूर्ण आलवार माने जाते हैं। इनका जन्म ताम्रपर्णी नदी के तट पर स्थित तिरुक्कुरुकूर नामक ग्राम में हुआ। इनकी रचनाएँ दिव्य प्रबंधम् में संकलित हैं। दिव्य प्रबंधम् के 4000 पद्यों में से 1000 पद्य इन्हीं के हैं। इनकी उपासना गोपी भाव की थी। छठे आलवार मधुर कवि गरुड़ के अवतार माने जाते हैं। इनका जन्मस्थान तिरुक्कालूर नामक ग्राम है। ये शठकोप मुनि के समकालीन थे और उनके गीतों को मधुर कंठ में गाते थे। इसीलिये इन्हें मधुरकवि कहा गया। इनका वास्तविक नाम अज्ञात है। सातवें आलवार कुलशेखरालवार केरल के राजा दृढ़क्त के पुत्र थे। ये कौस्तुभमणि के अवतार माने जाते हैं। भक्तिभाव के कारण इन्होने राज्य का त्याग किया और श्रीरंगम् रंगनाथ जी के पास चले गए। उनकी स्तुति में उन्होंने मुकुंदमाला नामक स्तोत्र लिखा है। आठवें आलवार पेरियालवार का दूसरा नाम विष्णुचित है। इनका जन्म श्रीविल्लिपुत्तुर में हुआ। आंडाल इन्हीं की पोषित कन्या थी। बारह आलवारों में आंडाल महिला थी। एकमात्र रंगनाथ को अपना पति मानकार ये भक्ति में लीन रहीं। कहते हैं, इन्हें भगवान की ज्योति प्राप्त हुई। आंडाल की रचनाएँ निरुप्पाबै और नाच्चियार तिरुमोषि बहुत प्रसिद्ध है। आंडाल की उपासना माधुर्य भाव की है। तोंडरडिप्पोड़ियालवार का जन्म विप्रकुल में हुआ। इनका दूसरा नाम विप्रनारायण है। बारहवें आलवार तिरुमगैयालवार का जन्म शैव परिवार में हुआ। ये भगवान की दास्य भावना से उपासना करते थे। इन्होनें तमिल में छ ग्रंथ लिखे हैं, जिन्हें तमिल वेदांग कहते हैं।
इन आलवारों के भक्तिसिद्धांतों को तर्कपूर्ण रूप से प्रतिष्ठित करने वाले अनेक आचार्य हुए हैं जिनमें रामानुजाचार्य और वेदांतदेशिक प्रमुख हैं।
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अय्या वैकुंदर (सी.1833-सी.1851) (तमिल: அய்யா வைகுண்டர், संस्कृत: अय्या वैघुंढर) जिसे वैकुंडा स्वामी के नाम से भी जाना जाता है, भगवान नारायण और उनकी पत्नी देवी लक्ष्मी के लिए पैदा हुए एक-परन का पहला और सबसे महत्वपूर्ण पूर्ण अवतार है। 20 वीं मासी, 1008 K.E (1 मार्च 1833 CE) पर तिरुचेंदूर का सागर। सभी कम देवों के साथ-साथ त्रिगुणात्मक देव-प्रमुखों के साथ अवतरित, भगवान नारायण ने अय्या वैकुंठर के जन्म से ठीक पहले तिरुचेंदूर के समुद्र तट पर अपना नौवां अवतार ग्रहण किया। यह भगवान नारायण का अवतार था जिसने बाद में अय्या वैकुंठर को जन्म दिया, और ये सभी घटनाएँ काली के विनाश के लिए उनकी भव्य और व्यवस्थित रूपरेखा का हिस्सा हैं। इससे पहले, काली के विनाश के समय के रूप में, देवी लक्ष्मी, जिसमें दिव्य ब्रह्मांड के सभी देवियों (देवों के स्त्री रूप) शामिल हैं, को मकरा नामक एक विशाल सुनहरी मछली के रूप में विकसित होने के लिए तिरुचेंदूर के समुद्र में भेजा गया था। यह उनके गर्भ से शिशु अय्या वैकुंठर का जन्म भगवान नारायण के लिए हुआ था और उनके जन्म के तुरंत बाद उन्हें विंचाई दी गई थी। काली के विनाश के मिशन में भगवान नारायण और अय्या वैकुंदर की संयुक्त भूमिका शामिल है। जबकि भगवान नारायण का मुख्य दायित्व काली का विनाश करना है, अय्या वैकुंठर की भूमिका दुनिया को धर्म युकम के लिए तैयार करना है। शाब्दिक रूप से, अय्या वैकुंठ सूक्ष्म माध्यम के रूप में कार्य करता है, जिस पर भगवान नारायण ने कलियुग में 7 युगों की सबसे बड़ी बुराई कलियुग को नष्ट करने के लिए अपना मंच बनाया था। चूंकि अय्या वैकुंठर का जन्म त्रिमूर्ति के गंभीर तप के बाद हुआ है और देवों के 33 कुलों और सात लोगाओं के देव-ऋषियों के 44 वंशों सहित अन्य सभी कम देवों के बाद, अय्या वैकुंठर अपने आप में सर्वोच्च भगवान हैं। वह कलियुग का केंद्रीय चरित्र है जैसा कि अकिलाथिरत्तु अम्मानई के आख्यानों और शिक्षाओं में है।
दूसरी ओर, अय्या वैकुंदर एक वास्तविक ऐतिहासिक शख्सियत हैं और अकिलम में पाए गए अधिकांश उपदेश और गतिविधियाँ और अय्या वैकुंदर के जीवन के बारे में अन्य ग्रंथों को ऐतिहासिक रूप से प्रलेखित किया गया था और बाहरी रूप से महत्वपूर्ण समकालीन स्रोतों में भी विस्तृत किया गया था। हालांकि अय्या वैकुंदर के मिशन की प्रमुख विशेषताओं को अकिलाथिरत्तु के माध्यम से प्रकट किया गया है, वह मौखिक रूप से भी पढ़ाते हैं। उनके मौखिक शिक्षण पथिराम, शिवकांता अतिकारा पथिरम और थिंगल पथम की पुस्तकों में संकलित हैं। हालांकि अकिलम सीधे तौर पर संगठित धर्म या विश्वास के किसी भी रूप को बनाने के खिलाफ है, अकिलम की शिक्षाएं और विशेष रूप से अरुल नूल की कुछ पुस्तकें अय्यवाज़ी विश्वास का आधार हैं। अय्या वैकुंदर की अवतरण तिथि को तमिल कैलेंडर (3 या 4 मार्च सीई) के अनुसार मासी के 20 वें दिन अय्या वैकुंडा अवतारम के रूप में मनाया जाता है और इस तिथि तक मनाया जाता है।
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भक्तिविनोद ठाकुर (IAST: Bhakti-vinoda Ṭhākura, बंगाली उच्चारण: bʱɔktibinodo tʰakur) (2 सितंबर 1838 - 23 जून 1914), जन्म केदारनाथ दत्ता (केदार-नाथ दत्ता, बंगाली: [kedɔrnɔtʰ dɔtto]), एक थे हिंदू दार्शनिक, गुरु और गौड़ीय वैष्णववाद के आध्यात्मिक सुधारक, जिन्होंने 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत में भारत में इसके पुनरुत्थान को प्रभावित किया और समकालीन विद्वानों द्वारा अपने समय के सबसे प्रभावशाली गौड़ीय वैष्णव नेता के रूप में उनकी प्रशंसा की गई। उन्हें अपने बेटे भक्तिसिद्धांत सरस्वती के साथ, पश्चिम में गौड़ीय वैष्णववाद के प्रचार और इसके अंतिम वैश्विक प्रसार का श्रेय भी दिया जाता है। केदारनाथ दत्ता का जन्म 2 सितंबर 1838 को बंगाल प्रेसीडेंसी के बीरनगर शहर में एक पारंपरिक हिंदू परिवार में हुआ था। अमीर बंगाली जमींदारों की। गाँव की स्कूली शिक्षा के बाद, उन्होंने कलकत्ता के हिंदू कॉलेज में अपनी शिक्षा जारी रखी, जहाँ उन्होंने खुद को समकालीन पश्चिमी दर्शन और धर्मशास्त्र से परिचित कराया। वहां वे ईश्वर चंद्र विद्यासागर, बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय और शिशिर कुमार घोष जैसे बंगाली पुनर्जागरण के प्रमुख साहित्यिक और बौद्धिक शख्सियतों के करीबी सहयोगी बन गए। 18 साल की उम्र में, उन्होंने बंगाल और उड़ीसा के ग्रामीण क्षेत्रों में एक शिक्षण करियर शुरू किया, जब तक कि वे न्यायिक सेवा में ब्रिटिश राज के कर्मचारी नहीं बन गए, जहाँ से वे 1894 में जिला मजिस्ट्रेट के रूप में सेवानिवृत्त हुए।
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ब्रह्मानंद स्वामी (12 फरवरी 1772 - 1832) स्वामीनारायण संप्रदाय के संत और स्वामीनारायण के परमहंस में से एक के रूप में प्रतिष्ठित है। स्वामीनारायण संप्रदाय में उन्हें स्वामीनारायण के अष्ट कवि (आठ कवियों) में से एक के रूप में भी जाना जाता है। स्वामीनारायण संप्रदाय के ग्रंथों में यह उल्लेख किया गया है कि स्वामीनारायण ने ब्रह्मानंद स्वामी के बारे में कहा था कि जैसा कि "ब्रह्मानंद" नाम से पता चलता है, "ब्रह्मानंद" ब्रह्मा का अवतार है।
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स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती (आईएएसटी: स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती) (21 दिसंबर 1871 - 20 मई 1953), जिन्हें गुरु देव (अर्थ "दिव्य शिक्षक") के रूप में भी जाना जाता है, भारत में ज्योतिर मठ मठ के शंकराचार्य थे। एक सरयूपारीन ब्राह्मण परिवार में जन्मे, उन्होंने आध्यात्मिक गुरु की तलाश में नौ साल की उम्र में घर छोड़ दिया। चौदह वर्ष की आयु में, वे स्वामी कृष्णानंद सरस्वती के शिष्य बन गए। 34 वर्ष की आयु में, उन्हें संन्यास के क्रम में दीक्षा दी गई और 1941 में 70 वर्ष की आयु में ज्योतिर मठ के शंकराचार्य बने। उनके शिष्यों में स्वामी शांतानंद सरस्वती, भावातीत ध्यान के संस्थापक महर्षि महेश योगी, स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती और स्वामी करपात्री शामिल थे। शांतानंद सरस्वती के पक्षकारों के अनुसार, ब्रह्मानंद ने 1953 में अपनी मृत्यु से पांच महीने पहले एक वसीयत बनाई, जिसमें शांतानंद को अपना उत्तराधिकारी नामित किया।
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डॉo चतुर्भुज सहाय (1883 - 1957) भारत के एक सन्त पुरुष एवं समर्थ गुरु थे जिन्होने अपने गुरु महात्मा रामचंद्र जी महाराज के नाम पर मथुरा में रामाश्रम सत्संग,मथुरा की स्थापना की।
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कविराज कृष्णदास बंगाल के वैष्णव कवि। बंगाल में उनका वही स्थान है जो उत्तर भारत में तुलसीदास का।
इनका जन्म बर्दवान जिले के झामटपुर ग्राम में कायस्थ कुल में हुआ था। इनका समय कुछ लोग 1496 से 1598 ई. और कुछ लोग 1517 से 1615 ई. मानते हैं। इन्हें बचपन में ही वैराग्य हो गया। कहते हैं कि नित्यानन्द ने उन्हें स्वप्न में वृन्दावन जाने का आदेश दिया। तदनुसार इन्होंने वृन्दावन में रहकर संस्कृत का अध्ययन किया और संस्कृत में अनेक ग्रंथों की रचना की जिसमें गोविन्दलीलामृत अधिक प्रसिद्ध है। इसमें राधा-कृष्ण की वृंदावन की लीला का वर्णन है। किंतु इनका महत्व पूर्ण ग्रंथ चैतन्यचरितामृत है। इसमें महाप्रभु चैतन्य की लीला का गान किया है। इसमें उनकी विस्तृत जीवनी, उनके भक्तों एवं भक्तों के शिष्यों के उल्लेख के साथ-साथ गौड़ीय वैष्णवों की दार्शनिक एवं भक्ति संबंधी विचारधारा का निदर्शन है। इस महाकाव्य का बंगाल में अत्यंत आदर है और ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह महत्वपूर्ण है।
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पट्टीनाथर (तमिल: பட்டினத்தார், रोमानीकृत: Paṭṭiṉattar) दो अलग-अलग तमिल व्यक्तियों से पहचाना जाने वाला नाम है, एक 10वीं शताब्दी ईस्वी और दूसरा 14वीं शताब्दी ईस्वी।
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रामदास काठियाबाबा (शुरुआती 24 जुलाई 1800 - 8 फरवरी 1909) हिंदू द्वैतद्वैतवादी निम्बार्क संप्रदाय के एक हिंदू संत थे। निम्बार्क समुदाय के 54 वें आचार्य श्री श्री 108 स्वामी रामदास काठिया बाबाजी महाराज, हर जगह काठिया बाबा के नाम से जाने जाते थे उनकाजन्म लगभग दो सौ साल पहले पंजाब राज्य के लोनाचामारी गांव में हुआ था।
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रामकृष्ण परमहंस भारत के एक महान संत, आध्यात्मिक गुरु एवं विचारक थे। इन्होंने सभी धर्मों की एकता पर जोर दिया। उन्हें बचपन से ही विश्वास था कि ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं अतः ईश्वर की प्राप्ति के लिए उन्होंने कठोर साधना और भक्ति का जीवन बिताया। स्वामी रामकृष्ण मानवता के पुजारी थे। साधना के फलस्वरूप वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि संसार के सभी धर्म सच्चे हैं और उनमें कोई भिन्नता नहीं। वे ईश्वर तक पहुँचने के भिन्न-भिन्न साधन मात्र हैं।
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संत निर्मला (मराठी: संत निर्मळा) 14वीं शताब्दी के महाराष्ट्र, भारत में एक कवि थे। चोखामेला की छोटी बहन के रूप में, उन्हें अपने भाई के साथ समान रूप से पवित्र माना जाता था और इस प्रकार उन्हें एक हिंदू संत भी माना जाता है। निर्मला का विवाह अछूत महार जाति के बांका से हुआ था। उनके लेखन में बड़े पैमाने पर अभंग शामिल हैं जो जाति व्यवस्था के परिणामस्वरूप उनके साथ हुए अन्याय और असमानताओं का वर्णन करते हैं। निर्मला ने सांसारिक विवाहित जीवन पर पछतावा किया और पंढरपुर के देवता में रहस्योद्घाटन किया। उन्होंने अपनी कविताओं में कभी भी अपने पति बांका का जिक्र नहीं किया।
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नित्यानंद (जन्म अरुणाचलम राजशेखरन; 1 जनवरी 1978), अनुयायियों के बीच नित्यानंद परमशिवम या परमहंस नित्यानंद के रूप में जाने जाते हैं, एक भारतीय हिंदू गुरु, धर्मगुरु और पंथ नेता हैं। वह नित्यानंद ध्यानपीठम के संस्थापक हैं, एक ट्रस्ट जो कई देशों में मंदिरों, गुरुकुलों और आश्रमों का मालिक है।
भारतीय अदालतों में दायर बलात्कार और अपहरण के आरोपों के बाद, वह भारत से भाग गया और 2019 से छिपा हुआ है। वह आरोपों से संबंधित अदालत द्वारा जारी गैर-जमानती वारंट के अधीन है। 2020 में, उसने अपनी खुद की स्थापना की घोषणा की कैलाश नामक स्वयंभू द्वीप राष्ट्र।
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स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरि
श्री युक्तेश्वर गिरि (बांग्ला : শ্রী যুক্তেশ্বর গিরী) (10 मई 1855 - 9 मार्च 1936) महान क्रियायोगी एवं उत्कृष्ट ज्योतिषी थे । वे लाहिड़ी महाशय के शिष्य और स्वामी सत्यानन्द गिरि तथा परमहंस योगानन्द के गुरु थे। उनका मूल नाम प्रियनाथ कांड़ार (बांग्ला : প্রিয়নাথ কাঁড়ার)
श्री युक्तेश्वर गिरी ने गुरुपरम्परा को कायम रखते हुए क्रियायोगकी दिक्षा दिया । आप भारतके विशिष्ट सन्त हैं । आपने परमहंस योगानन्द को पश्चिमके लिए तैयार किया था ।
श्री युक्तेश्वर गिरी जी ने वेदान्त, मिमांसा, योग, वैशेषिक तथा गीता ,बाइबल सम्पूर्णका गहरा व्याख्या किया है । वे महान् क्रियायोगी तथा प्रखर ज्योतिष थे, एवम् आप विज्ञानके भी ज्ञाता थे । परमहंस योगानन्द ने अपनी आत्मकथामें अपने गुरु युक्तेश्वर गिरी ज्यूका वर्णन एवम् विषद् कार्यें की चर्चा किया है । भारतीय सन्त समाजमें युक्तेश्वर जीका नाम आदर के साथ लिया जाता है । आपने पुस्तक भी लिखा है ।
व्यक्तिगत जीवन
कॉलेज छोड़ने के बाद प्रिया नाथ ने शादी की और उनकी एक बेटी भी हुई। उनकी शादी के कुछ साल बाद उनकी पत्नी की मृत्यु हो गई।
आध्यात्मिक करियर
अंततः उन्हें औपचारिक रूप से "श्री युक्तेश्वर गिरि" के रूप में मठवासी स्वामी के आदेश में दीक्षा दी गई (ध्यान दें: इस प्रकार 'श्री' एक अलग सम्मान नहीं है, बल्कि उनके दिए गए नाम का हिस्सा है)। "... कई लोग सामान्य प्रक्रिया का पालन करते हैं (अनौपचारिक रूप से किसी का नाम लिखने या कहने के लिए) और "श्री" को छोड़ देते हैं और केवल "युक्तेश्वर" कहते हैं, लेकिन यह सही नहीं है। यदि कोई शुरुआत में "श्री" लगाना चाहता है प्रचलित फैशन में, तब उनका नाम इस प्रकार दिखेगा: "श्री श्रीयुक्तेश्वर गिरि।" [10]
1884 में, प्रिया नाथ लाहिड़ी महाशय से मिलीं, जो उनके गुरु बने और उन्हें क्रिया योग के मार्ग में दीक्षित किया। श्री युक्तेश्वर ने अगले कई वर्षों में अपने गुरु की संगति में बहुत समय बिताया, अक्सर बनारस में लाहिड़ी महाशय जाते थे। 1894 में, इलाहाबाद में कुंभ मेले में भाग लेने के दौरान, वह लाहिड़ी महाशय के गुरु, महावतार बाबाजी से मिले, [11] जिन्होंने श्री युक्तेश्वर को हिंदू शास्त्रों और ईसाई बाइबिल की तुलना करते हुए एक किताब लिखने के लिए कहा। [12] उस बैठक में महावतार बाबाजी ने श्री युक्तेश्वर को 'स्वामी' की उपाधि भी प्रदान की। श्रीयुक्तेश्वर ने 1894 में अनुरोधित पुस्तक को कैवल्य दर्शनम, या द होली साइंस नाम देते हुए पूरा किया।
आध्यात्मिक जीवन
श्री युक्तेश्वर ने सेरामपुर में अपने बड़े दो मंजिला परिवार के घर को एक आश्रम में बदल दिया, जिसका नाम "प्रियधाम" रखा गया, जहां वे छात्रों और शिष्यों के साथ रहते थे। 1903 में, उन्होंने पुरी के समुद्र तटीय शहर में एक आश्रम भी स्थापित किया, जिसका नाम "करार आश्रम" रखा। [16] इन दो आश्रमों से, श्रीयुक्तेश्वर ने छात्रों को पढ़ाया, और "साधु सभा" नामक एक संगठन शुरू किया।
शिक्षा में रुचि के परिणामस्वरूप श्री युक्तेश्वर ने भौतिकी, शरीर विज्ञान, भूगोल, खगोल विज्ञान और ज्योतिष विषयों पर स्कूलों के लिए एक पाठ्यक्रम विकसित किया [17] उन्होंने बुनियादी अंग्रेजी और हिंदी सीखने पर बंगालियों के लिए एक पुस्तक भी लिखी, जिसे फर्स्ट बुक कहा जाता है, और लिखा ज्योतिष पर एक बुनियादी किताब। बाद में, उन्हें महिलाओं की शिक्षा में दिलचस्पी हो गई, जो उस समय बंगाल में असामान्य थी।
युक्तेश्वर ज्योतिष (भारतीय ज्योतिष) में विशेष रूप से कुशल थे, और उन्होंने अपने छात्रों को विभिन्न ज्योतिषीय रत्न और चूड़ियाँ निर्धारित कीं। [19] उन्होंने खगोल विज्ञान और विज्ञान का भी अध्ययन किया, जैसा कि द होली साइंस में उनके युग सिद्धांत के निर्माण में प्रमाणित है।
श्री युक्तेश्वर और उनके शिष्य, परमहंस योगानंद
उनके पास केवल कुछ दीर्घकालिक शिष्य थे, लेकिन 1910 में, युवा मुकुंद लाल घोष श्री युक्तेश्वर के सबसे प्रसिद्ध शिष्य बन गए, अंततः परमहंस योगानंद के रूप में दुनिया भर में क्रिया योग की शिक्षाओं को सभी धर्मों के अपने चर्च के साथ फैलाया - स्व- रियलाइजेशन फेलोशिप/योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ इंडिया। योगानंद ने श्री युक्तेश्वर के शिष्यों की कम संख्या को उनके सख्त प्रशिक्षण विधियों के लिए जिम्मेदार ठहराया, जिसे योगानंद ने कहा "कठोर के अलावा अन्य के रूप में वर्णित नहीं किया जा सकता"।
गुरु की भूमिका के बारे में, श्री युक्तेश्वर ने कहा:
देखो, आँख मूंद कर विश्वास करने का कोई मतलब नहीं है कि मेरे द्वारा तुम्हें छूने के बाद, तुम बच जाओगे, या यह कि स्वर्ग से एक रथ तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा होगा। गुरु की प्राप्ति के कारण, पवित्र स्पर्श ज्ञान के प्रस्फुटन में सहायक होता है, और इस आशीर्वाद को प्राप्त करने के प्रति सम्मान करते हुए, आपको स्वयं एक ऋषि बनना चाहिए, और दी गई साधना की तकनीकों को लागू करके अपनी आत्मा को उन्नत करने के मार्ग पर आगे बढ़ना चाहिए। गुरु द्वारा।
लेखक डब्ल्यू.वाई. इवांस-वेंट्ज़ ने योगानंद की आत्मकथा योगी की प्रस्तावना में श्री युक्तेश्वर की अपनी छाप का वर्णन किया:
श्री युक्तेश्वर कोमल भाव और वाणी के, मनभावन उपस्थिति के, और सम्मान के योग्य थे, जो उनके अनुयायियों ने अनायास ही उन्हें दे दिया। हर व्यक्ति जो उन्हें जानता था, चाहे वह अपने समुदाय का हो या न हो, उन्हें सर्वोच्च सम्मान में रखता था। मुझे उनकी लंबी, सीधी, सन्यासी आकृति स्पष्ट रूप से याद है, जो भगवा रंग के वेश में सांसारिक खोज को त्याग चुके हैं, क्योंकि वे मेरा स्वागत करने के लिए आश्रम के प्रवेश द्वार पर खड़े थे। उसके बाल लंबे और कुछ घुँघराले थे, और उसका चेहरा दाढ़ी वाला था। उनका शरीर मांसल रूप से दृढ़ था, लेकिन पतला और सुगठित था, और उनके कदम ऊर्जावान थे।
युक्तेश्वर ने 9 मार्च 1936 को करार आश्रम, पुरी, भारत में महासमाधि प्राप्त की।
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त्रैलंग स्वामी (जिन्हें तैलंग स्वामी भी कहते हैं) (ज्ञात 1529 ई. या 1607 -1887) एक हिन्दू योगी थे, जो अपने आध्यात्मिक शक्तियों के लिये प्रसिद्ध हुए। ये जीवन के उत्तरार्द्ध में वाराणसी में निवास करते थे। इनकी बंगाल में भी बड़ी मान्यता है, जहाँ ये अपनी यौगिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों एवं लम्बी आयु के लिये प्रसिद्ध रहे हैं। कुछ ज्ञात तथ्यों के अनुसार त्रैलंग स्वामी की आयु लगभग 300 वर्ष रही थी, जिसमें ये वाराणसी में 1737-1887 तक (लगभग 150 वर्ष) रहे। इन्हें भगवान शिव का अवतार माना जाता है। साथ ही इन्हें वाराणसी के 'सचल विश्वनाथ' (चलते फिरते शिव) की उपाधि भी दी गयी है।
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हंस राम सिंह रावत, जिन्हें श्री हंस जी महाराज और कई अन्य मानद उपाधियों से पुकारा जाता है (8 नवंबर 1900 - 19 जुलाई 1966), एक भारतीय धार्मिक नेता थे।
उनका जन्म वर्तमान उत्तराखंड, भारत में हरिद्वार के उत्तर-पूर्व में गढ़-की-सेधिया में हुआ था। उनके माता-पिता रणजीत सिंह रावत और कालिंदी देवी थे। उन्हें उनके छात्रों द्वारा एक सतगुरु माना जाता था, जो उन्हें प्यार से "श्री महाराज जी" या सिर्फ "गुरु महाराज जी" कहते थे। उनकी पहली पत्नी सिंदूरी देवी से एक बेटी थी, और उनकी दूसरी पत्नी राजेश्वरी देवी से चार बेटे थे, जो बाद में अनुयायियों के बीच जाने गए। "माता जी" और "श्री माता जी" के रूप में।
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रोनाल्ड हेनरी निक्सन (10 मई 1898 - 14 नवंबर 1965), जिन्हें बाद में श्री कृष्ण प्रेम या श्री कृष्णप्रेम के नाम से जाना जाता था, एक ब्रिटिश आध्यात्मिक आकांक्षी थे, जो 20 वीं शताब्दी की शुरुआत में भारत गए थे। अपने आध्यात्मिक शिक्षक श्री यशोदा माई (1882 - 1944) के साथ, उन्होंने भारत के अल्मोड़ा के पास मिर्तोला में एक आश्रम की स्थापना की। वह वैष्णव हिंदू धर्म का पालन करने वाले पहले यूरोपीय लोगों में से एक थे, और कई भारतीय शिष्यों के साथ उनका बहुत सम्मान किया जाता था। बाद में, उनके प्रमुख शिष्य श्री माधव आशीष के खाते के अनुसार, कृष्ण प्रेम ने गौड़ीय वैष्णव परंपरा के हठधर्मिता और प्रथाओं को पार कर लिया, जिसमें उन्हें "रूढ़िवादी" और अंध परंपरावाद से मुक्त एक सार्वभौमिक आध्यात्मिक मार्ग की शुरुआत की गई थी।
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आनंदमयी मां भारत की एक अति प्रसिद्ध संत रही जो अनेक महान सन्तों द्वारा वन्दनीय थीं। माँ का जन्म 30 अप्रैल 1896 में तत्कालीन भारत के ब्रह्मन बारिया जिले के के खेऊरा ग्राम में हुआ आजकल वह बांग्लादेश के हिस्सा है। पिता श्री बिपिन बिहारी भट्टा चार्य व माता मोक्षदा सुंदरी उन्हें बचपन में निर्मला नाम से पुकारते थे। उनके पिताजी विष्णु उपासक थे ,व भजन में प्रवीण थे लौकिक धन नहीं था। निर्मला दो वर्ष ग्रामीण विद्यालय में अध्ययन किया प्रतिभा की धनी बचपन से लगीं। यथा वे एकाकी व अंतर्मुख रहती, 13 वर्ष की आयु में आपका विवाह तब की परंपरा अनुसार विक्रम पुर के रमानी मोहन चक्रवर्ती से कर दिया गया। वे तब से 5 वर्ष अपने चचेरे भाई के यहां रही जंहा वे दिव्य ध्यान में समय बिताती रही। बिना सिखाये ही वैदिक अचारों से देव पूजन करती कुछ ऐसा भी रहा कि वह भीतर ही भीतर दिव्य देवों से वार्ता किया करती। सर्वप्रथम उनके एक पड़ोसी सज्जन ने उन्हें ऐसा देख माँ कहना प्रारंभ किया। 17 वर्ष की आयु में वे ओष्ठ ग्राम में 1918 में पति देव संग रहने गई जंहा से वे बाजितपुर चले गए जंहा 1924 तक रही।
वैवाहिक जीवन में वे जबभी स्पर्श आदि से कुछ विवाहोचित कर्म करने की सोचते तो माँ का शरीर मृत समान हो जाता। संयम में अदभुत सामर्थ्य है। जिसके जीवन में संयम है, जिसके जीवन में ईश्वरोपासना है। वह सहज ही में महान हो जाता है। आनंदमयी माँ का जब विवाह हुआ तब उनका व्यक्तित्व अत्यंत आभासंपन्न थी। शादी के बाद उनके पति उन्हें संसार-व्यवहार में ले जाने का प्रयास करते रहते थे किंतु आनंदमयी माँ उन्हें संयम और सत्संग की महिमा सुनाकर, उनकी थोड़ी सेवा करके, विकारों से उनका मन हटा देती थीं। इस प्रकार कई दिन बीते, हफ्ते बीते, कई महीने बीत गये लेकिन आनंदमयी माँ ने अपने पति को विकारों में गिरने नहीं दिया। आखिरकार कई महीनों के पश्चात् एक दिन उनके पति ने कहाः “तुमने मुझसे शादी की है फिर भी क्यों मुझे इतना दूर दूर रखती हो?”
तब आनंदमयी माँ ने जवाब दियाः “शादी तो जरूर की है लेकिन शादी का वास्तविक मतलब तो इस प्रकार हैः शाद अर्थात् खुशी। वास्तविक खुशी प्राप्त करने के लिए पति-पत्नी एक दूसरे के सहायक बनें न कि शोषक। काम-विकार में गिरना यह कोई शादी का फल नहीं है।”
इस प्रकार अनेक युक्तियों और अत्यंत विनम्रता से उन्होंने अपने पति को समझा दिया। वे संसार के कीचड़ में न गिरते हुए भी अपने पति की बहुत अच्छी तरह से सेवा करती थीं। पति नौकरी करके घर आते तो गर्म-गर्म भोजन बनाकर खिलातीं।
वे घर भी ध्यानाभ्यास किया करती थीं। कभी-कभी स्टोव पर दाल चढ़ाकर, छत पर खुले आकाश में चंद्रमा की ओर त्राटक करते-करते ध्यानस्थ हो जातीं। इतनी ध्यानमग्न हो जातीं कि स्टोव पर रखी हुई दाल जलकर कोयला हो जाती। घर के लोग डाँटते तो चुपचाप अपनी भूल स्वीकार कर लेतीं लेकिन अन्दर से तो समझती कि ‘मैं कोई गलत मार्ग पर तो नहीं जा रही हूँ…’ इस प्रकार उनके ध्यान-भजन का क्रम चालू ही रहा। घर में रहते हुए ही उनके पास एकाग्रता का कुछ सामर्थ्य आ गया।
एक रात्रि को वे उठीं और अपने पति को भी उठाया। फिर स्वयं महाकाली का चिंतन करके अपने पति को आदेश दियाः “महाकाली की पूजा करो।” उनके पति ने उनका पूजन कर दिया। आनंदमयी माँ में उन्हें महाकाली के दर्शन होने लगे। उन्होंने आनंदमयी माँ को प्रणाम किया।
तब आनंदमयी माँ बोलीं- अब महाकाली को तो माँ की नजर से ही देखना है न?”
पतिः “यह क्या हो गया।”
आनंदमयी माँ- “तुम्हारा कल्याण हो गया।”
कहते हैं कि उन्होंने अपने पति को दीक्षा दे दी और साधु बनाकर उत्तरकाशी के आश्रम में भेज दिया।
1922 में अक्टूबर मास की शरद पूर्णिमा को चन्द्र
से त्राटक करते हुए गहन ध्यान में लीन हो गई व परम
सत्य से एकाकार हो गई उस समय शरीर की आयु 26
वर्ष थी।
इसके बाद वे ध्यान व कीर्तन मैं रच बस गई अनेक शिष्य
भी हो गए।
पतिदेव ढाका के नवाब के सचिव बन गए तो वे सभंग चले गए।
1929 में रमानी के कालीमंदिर परिसर में पहला आश्रम बना
एक बार वे 1वर्ष से अधिक समय मौन में चली गई
समाधि व मौन बस। पतिदेव उनमें माता का भाव रखते
व भोलेनाथ नाम से शिष्य हो गए।
बाद में वे भारत भर में विचरण करती रही हरि बाबा उड़िया
बाबा अखंडानंद सरस्वती आदि मित्र सन्त थे
परमहंस योगानंद व स्वामी शिवानंद सब उन्हें आत्म प्रकाश से सुसज्ज अत्यंत विकसित पुष्प कहते
पर वे सभी सन्तों को व सब से पिताजी कहती थी
चाहे 25 वर्ष के साधु क्यों न हो
माँ आनंदमयी को संतों से बड़ा प्रेम था। वे भले प्रधानमंत्री से पूजित होती थीं किंतु स्वयं संतों को पूजकर आनंदित होती थीं। श्री अखण्डानंदजी महाराज सत्संग करते तो वे उनके चरणों में बैठकर सत्संग सुनती। एक बार सत्संग की पूर्णाहूति पर माँ आनंदमयी सिर पर थाल लेकर गयीं। उस थाल में चाँदी का शिवलिंग था। वह थाल अखण्डानंदजी को देते हुए बोलीं-
“बाबाजी ! आपने कथा सुनायी है, दक्षिणा ले लीजिए।”
माँ- “बाबाजी और भी दक्षिणा ले लो।”
अखण्डानंदजीः “माँ ! और क्या दे रही हो?”
माँ- “बाबाजी ! दक्षिणा में मुझे ले लो न !”
अखण्डानंदजी ने हाथ पकड़ लिया एवं कहाः
“ऐसी माँ को कौन छोड़े? दक्षिणा में आ गयी मेरी माँ।”
यह स्वामी अखंडानंद जी का एक प्रसंग है
यथा उनके अन्य स्थानों पर आश्रम बन गए
देश विदेश के विद्वान भक्त उनसे प्रभावित रहे।
यथा देश की स्वतंत्रता के बाद वे और प्रसिद्ध हो गई
1982 में कनखल आश्रम हरिद्वार में वे ब्रह्म लीन
हो गई
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मातृश्री अनसूया देवी (जन्म 28 मार्च 1923 -1985) जिन्हे अम्मा के नाम से जाना जाता है, आंध्र प्रदेश कि अध्यात्मिक गुरु थी।
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आण्डाल, (तमिल : ஆண்டாள்) दक्षिण भारत की सन्त महिला थीं। वे बारह आलवार सन्तों में से एक हैं। उन्हें दक्षिण की मीरा कहा जाता है।
अंदाल का जन्म विक्रम सं. 770 में हुआ था। अपने समय की यह प्रसिद्ध आलवार संत थीं। इनकी भक्ति की तुलना राजस्थान की प्रख्यात कृष्णभक्त कवयित्री मीरा से की जाती है। प्रसिद्धि है कि वयस्क होने पर भगवान श्रीरंगनाथ के लिए जो माला यह गूँथतीं, भगवान् को पहनाने के पूर्व उसे स्वयं पहन लेतीं और दर्पण के सामने जाकर भगवान से पूछतीं, प्रभु, मेरे इस शृंगार को ग्रहण कर लोगे? तत्पश्चात् उक्त उच्छिष्ट माला भगवान् को पहनाया करतीं। विश्वास है कि इन्होंने अपना विवाह श्रीरंगनाथ के साथ रचाया और उसे बड़ी धूमधाम से संपन्न किया। विवाह संस्कार के उपरांत यह मतावली होकर श्रीरंगनाथ जी की शय्या पर चढ़ गईं और इनके ऐसा करते ही मंदिर में सर्वत्र एक आलोक व्याप्त हो गया। इतना ही नहीं, तत्काल इनके शरीर से भी विद्युत के समान एक ज्योतिकिरण फूटी और अनेक दर्शकों के देखते देखते यह भगवान के विग्रह में विलीन हो गई। इस घटना से संबद्ध विवाहोत्सव अब भी प्रति वर्ष दक्षिण के मंदिरों में मनाया जाता है।
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अनुकूलचंद्र चक्रवर्ती (14 सितंबर 1888 - 27 जनवरी 1969), जिन्हें श्री श्री ठाकुर के नाम से जाना जाता है, एक चिकित्सक, एक दार्शनिक, एक आध्यात्मिक नेता और देवघर में सत्संग के संस्थापक थे। उनका जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था
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अरुणगिरिनाधर (अरुणा-गिरी-नाधर, अरुणकिरिनातर, तमिल: [aɾuɳaɡɯɾɯn̪aːdar]) एक तमिल शैव संत-कवि थे, जो भारत के तमिलनाडु में 15वीं शताब्दी के दौरान रहते थे। अपने ग्रंथ ए हिस्ट्री ऑफ इंडियन लिटरेचर (1974) में, चेक इंडोलॉजिस्ट कामिल ज्वेलबिल ने अरुणगिरिनाथर की अवधि को लगभग 1370 सीई और लगभग 1450 सीई के बीच रखा है। वह थिरुपुगाज़, तिरुप्पुका, [tiɾupːɯɡaɻ], जिसका अर्थ है "पवित्र स्तुति" या "दिव्य महिमा"), भगवान मुरुगन की प्रशंसा में तमिल में कविताओं की एक पुस्तक के रचयिता थे।
उनकी कविताओं को उनके गीतात्मकता के साथ जटिल छंदों और लयबद्ध संरचनाओं के लिए जाना जाता है। थिरुप्पुगाज़ में, साहित्य और भक्ति को सामंजस्यपूर्ण रूप से मिश्रित किया गया है। थिरुप्पुगाज़ मध्यकालीन तमिल साहित्य के प्रमुख कार्यों में से एक है, जो अपने काव्यात्मक और संगीत गुणों के साथ-साथ अपनी धार्मिक, नैतिक और दार्शनिक सामग्री के लिए जाना जाता है।
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आवैय्यार (तमिल : ஔவையார்) नाम वाली एक से अधिक कवयित्रियाँ तमिल साहित्य में विभिन्न कालों में हुई हैं। ये कवयित्रियाँ तमिल साहित्य के सबसे प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण कवियों में से हैं।
अबिधान चिन्तामणि के अनुसार 'आवैय्यार' नाम की तीन कवयित्रियाँ हुईं हैं। उनमें से प्रथम आवैय्यार संगम काल (तीसरी शताब्दी ईसापूर्व) में हुईं थीं। उन्होंने पुरनाणूरु में 59 कविताएँ लिखीं। द्वितीय अवैय्यार का जीवनकाल 10वीं शताब्दी में चोल राजवंश के काल में रहा। अतः वे कम्बर और ओत्ताकूतर के समय में रहीं। तमिल लोग उनको एक वृद्ध और बुद्धिमती महिला मानते हैं। अव्वै कुराल और अनेक अन्य कविताएँ इस काल की हैं। तृतीय आवैय्यर को प्रायः 'आतिचूदि', 'कोन्डै वेन्धन' , 'नलवाळि' और 'मूधुरै' आदि नमों से जाना जाता है।
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अत्रि (वैदिक ऋषि) ब्रम्हा जी के मानस पुत्रों में से एक थे। चन्द्रमा, दत्तात्रेय और दुर्वासा ये तीन पुत्र थे। इन्हें अग्नि, इन्द्र और सनातन संस्कृति के अन्य वैदिक देवताओं के लिए बड़ी संख्या में भजन लिखने का श्रेय दिया जाता है। अत्रि सनातन परंम्परा में सप्तर्षि (सात महान वैदिक ऋषियों) में से एक है, और सबसे अधिक ऋग्वेद: में इनका उल्लेख है।[कृपया उद्धरण जोड़ें]
अयोध्या नरेश श्रीराम अपने वनवास काल मे भार्या सीता तथा बन्धु लक्ष्मण के संग अत्रि ऋषि के चित्रकूट आश्रम मे आए थे। अत्रि ऋषि सती अनुसुईया के पति थे। सती अनुसुईया सोलह सतियों में से एक थीं। जिन्होंने अपने तपोबल से ब्रम्हा, विष्णु एवं महेश को बालक रूप में परिवर्तित कर दिया था।[कृपया उद्धरण जोड़ें]पुराणों में वर्णित है कि इन्हीं तीनों देवों ने माता अनुसुईया से वरदान प्राप्त किया था, कि हम आपके पुत्र रूप में आपके गर्भ से जन्म लेंगे । यही तीनों चन्द्रमा (ब्रम्हा) दत्तात्रेय (विष्णु) और दुर्वासा (शिव) के अवतार हैं। यह भी धारणा है कि ऋषि अत्रि ने अंजुली में जल भरकर सागर को सोख लिया था फिर सागर ने याचना की कि हे! ऋषिवर् मुझमें निवास करने वाले समस्त जीव-जन्तु एवं पशु-पक्षी जल के बिना प्यास से मारे जाएंगे अतः मैं आपसे यह विनम्र निवेदन करता हूं कि मुझे जलाजल कर दें। तब ऋषि अत्रि प्रसन्न हुए और उन्होंने मूत्रमार्ग से सागर को मुक्त कर दिया । माना जाता है तब से ही सागर का जल खारा हो गया ।
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बाबा हरि दास (जन्म 26 मार्च 1923, अल्मोड़ा) एक योगगुरु तथा धर्म और मोक्ष के व्याख्याकार हैं। उन्होने अष्टाङ्ग योग की पारम्परिक शिक्षा ग्रहण की हुई है। इसके अलावा वे क्रियायोग, आयुर्वेद, सांख्य, तंत्रयोग, वेदान्त तथा संस्कृत के विद्वान हैं।
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बाबा मस्तनाथ (जन्म 1764) एक हिंदू संत थे। उनका जन्म भारतीय राज्य हरियाणा के रोहतक जिले के कंसरेती गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम सबला जी रेबारी हिंदू समुदाय से हैं। वे गुरु गोरक्षनाथ जी के अवतार हैं। वे मठ अस्थल बोहर (8वीं शताब्दी में चौरंगीनाथ जी द्वारा स्थापित) चले गए। उन्होंने इसका कायाकल्प किया और मठ को पुनर्जीवित किया। 2012 में उनके सातवें शिष्य महंत चांदनाथ ने उनके नाम पर बाबा मस्त नाथ विश्वविद्यालय की स्थापना की। महाराजा अपने पंचभौतिक तत्वों में सौ वर्षों तक विद्यमान रहे। उसके समय में औरंगजेब की धार्मिक कट्टरता, सूबेदारों की स्वतन्त्रता, विदेशी आक्रमणों का विनाश तथा यूरोपीय कम्पनियों की परम्परागत राजनीतिक शक्ति छीन लेने के षड़यन्त्रों के फलस्वरूप दिल्ली की राजसत्ता कमजोर होती जा रही थी। पंजाब, हरियाणा आदि सूबे जीर्ण-शीर्ण हो रहे थे। चौरंगी नाथजी ने निरंतर अग्नि को प्रज्वलित करके बारह वर्षों तक धूना के रूप में जाना जाता है। [1]
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बामाक्षेपा (वामाक्षेपा) (1837-1911) पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिला में अवस्थित तारापीठ के एक सिद्ध तांत्रिक संन्यासी हैं | ऐसा माना जाता है कि माँ तारा देवी ने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दान दिया था | निगमानन्द उनके तन्त्र शिष्य थे|
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गुरु बसव (कन्नड़: ಬಸವಣ್ಣ) या बसवेश्वर (कन्नड़: ಬಸವೇಶ್ವರ), (1134-1196)) एक दार्शनिक और सामाजिक सुधारक थे। उन्होने हिंदू धर्म में जाति व्यवस्था और अनुष्ठान के विरुद्ध संघर्ष किया। उन्हें विश्व गुरु और भक्ति भंडारी भी कहा जाता है। अपनी शिक्षाओं और preachings सभी सीमाओं से परे जाना और कर रहे हैं सार्वभौमिक और अनन्त है। वह एक महान मानवीय था। गुरु बसवन्नाजिसमें परमात्मा अनुभव जीवन लिंग, जाति और सामाजिक स्थिति की परवाह किए बिना सभी उम्मीदवारों को समान अवसर देने का केंद्र था जीवन की एक नई तरह की वकालत की। अपने आंदोलन के पीछे आधारशिला परमेश्वर के एक सार्वभौमिक अवधारणा में दृढ़ विश्वास था। गुरु बसवन्नाmonotheistic निराकार भगवान की अवधारणा के एक समर्थक है।एक सच्चे दूरदर्शी अपने समय से आगे विचारों के साथ, वह एक है कि विकास के चरम पर एक और सब को समृद्ध समाज के अनुरूप। एक महान रहस्यवादी जा रहा है, के अलावा गुरु बसवन्नाप्रधानमंत्री ने दक्षिणी Kalachuri साम्राज्य दक्षिण भारत में गया था और एक साहित्यिक क्रांति Vachana साहित्य शुरू करने से उत्पन्न। गुरु बसवन्नास्वभाव, विकल्प, पेशे से एक राजनेता, स्वाद, सहानुभूति द्वारा एक मानवतावादी और सजा से एक सामाजिक सुधारक द्वारा पत्र की एक आदमी एक आदर्शवादी द्वारा एक फकीर किया गया है करने के लिए कहा जाता है। कई महान योगियों और समय के रहस्यवादी यह कि भगवान है और जीवन में देखने का एक नया तरीका को परिभाषित Vachanas (Lit. बातें - कन्नड़ में पवित्र भजन) के रूप में दिव्य अनुभव का सार के साथ समृद्ध अपने आंदोलन में शामिल हो गए।
गुरु बसवन्नाके रास्ते बाद में दिया है एक नई धर्म (या "संप्रदाय") कहा जाता है Lingavanta धर्म या Lingayata जन्म। Lingayata के लिए अन्य समानार्थक शब्द हैं: बसव धर्म, Sharana धर्म, Vachana धर्म।
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धन्ना भगत (जन्म 1415 ई.) एक रहस्यवादी कवि और एक वैष्णव भक्त थे, जिनके तीन भजन आदि ग्रंथ में मौजूद हैं। वह एक कृष्ण भक्त थे। उनके जन्म स्थान को लेकर मत भेद है। कुछ मान्यताओं के अनुसार उनका जन्म स्थान राजस्थान के टोंक जिले में तहसील दूनी के पास धुवा गाँवमें हिन्दू धालीवाल जाट परिवार में हुआ था। एक अन्य श्रोत ठाकुर देशराज द्वारा रचित उपन्यास "जाट इतिहास" के अनुसार इनका जन्म स्थान राजस्थान के जयपुर में फागी तहसील का चौरू गाँव है। चोरू गांव में धन्ना जी के विशाल मंदिर का निर्माण पूरा करके दिनांक 1 जून 2022 को धन्ना जी की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा कि गई ।इनका जन्म बैशाख बुदी 3 संवत 1472 (1415 ई.) को हरितवाल गोत्र के एक जाट परिवार में हुआ। इनके पिता का नाम रामेश्वर जाट व माता का नाम गंगा बाई गड़वाल था। बचपन में ही इनके पिता चौरू को छोड़कर अभयनगर जाकर रहने लगे, जिसे वर्तमान मे धुंआकला के नाम से जाना जाता है। चौरू मे भी एक हिन्दू मंदिर और एक गुरूद्वारा है।
धुंआकला में इनके स्थान पर इनका मंदिर और गुरूद्वारा बना हुुुआ है। हिन्दु व सिख धर्म के लोगों मे इनकी गहरी आस्था है।इनके मंदिर से कुुछ ही दूरी पर अरावली की पहाड़िया है जहां धन्ना भगत जी जिस गुफा में तपस्या करते थे वहां भगवान शिव का प्राचीन मंदिर स्थित है जिसे धुंधलेश्वर महादेव मंदिर के नाम से जाना जाता है।
और सिख धर्म के ग्रंथों मे भी धन्ना भगत का उल्लेख है। भक्त धन्ना ने कोई पंथ तो नही चलाया
जिला मुख्यालय से यह स्थान मात्र 32 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।यहा बाइक,कार व बस द्वारा आया जा सकता है।
नजदीकी हवाईअड्डा जयपुर अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डा है।
नजदीकी रेलवे स्टेशन बनस्थली निवाई रेलवे स्टेशन (BNLW) है।
इसके नजदीकी गाँवो मे घाङ,भरनी आदि है,जहाँ से यहाँ पहुंचा जा सकता है।
मंंदिर धन्ना भगत - धन्ना भगत मन्दिर
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हिंदू गुरु नित्यानंद (नवंबर/दिसंबर, 1897 - 8 अगस्त 1961) एक भारतीय गुरु थे। उनके उपदेश "चिदाकाश गीता" में प्रकाशित हैं। नित्यानंद का जन्म कोइलैंडी (पंडालायिनी), मद्रास प्रेसीडेंसी, ब्रिटिश भारत (अब कोझिकोड जिले, केरल में) में हुआ था।
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भक्ति चारु स्वामी (IAST: भक्ति चारु स्वामी, 17 सितंबर 1945 - 4 जुलाई 2020) इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर कृष्णा कॉन्शसनेस (इस्कॉन) के एक भारतीय आध्यात्मिक नेता थे। वह इस्कॉन के संस्थापक ए सी भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद के शिष्य भी थे।
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भक्ति तीर्थ स्वामी (IAST: भक्ति-तीर्थ स्वामी; 25 फरवरी, 1950 - 27 जून, 2005), जिन्हें पहले जॉन एहसान और तोशोम्बे अब्दुल कहा जाता था और जिन्हें सम्मानित कृष्णपद (कृष्णपाद) के नाम से भी जाना जाता था, एक गुरु और अंतर्राष्ट्रीय शासी निकाय आयुक्त थे। सोसाइटी फॉर कृष्णा कॉन्शसनेस (आमतौर पर हरे कृष्ण या इस्कॉन के रूप में जाना जाता है)। वह इस्कॉन में सर्वोच्च रैंकिंग वाले अफ्रीकी अमेरिकी थे। उन्होंने धार्मिक विषयों पर 17 पुस्तकें लिखीं और संयुक्त राज्य अमेरिका और अन्य देशों में सामुदायिक विकास परियोजनाओं का नेतृत्व किया। वह वाशिंगटन, डीसी में इंस्टीट्यूट फॉर एप्लाइड स्पिरिचुअल टेक्नोलॉजी के संस्थापक और निदेशक थे, "एक गैर-लाभकारी, गैर-सांप्रदायिक संगठन जिसकी सदस्यता विभिन्न आध्यात्मिक पथों और पेशेवर पृष्ठभूमि का प्रतिनिधित्व करती है"। उन्होंने अक्सर यात्रा की और आध्यात्मिक सलाहकार के रूप में सेवा की। उन्होंने तीसरे विश्व गठबंधन के अध्यक्ष के रूप में भी काम किया। 7 फरवरी, 2006 को कोलंबिया जिले की परिषद ने उन्हें कोलंबिया जिले के निवासियों के लिए सामाजिक परिवर्तन के प्रति समर्पण के लिए मान्यता दी।
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स्वामी भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद (6 फ़रवरी 1874 – 1 जनवरी 1937) गौडीय वैष्णव सम्प्रदाय के प्रमुख गुरू एवं आध्यात्मिक प्रचारक थे।[कृपया उद्धरण जोड़ें] उन्हें 'भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर' भी कहते हैं। उनका मूल नाम विमल प्रसाद दत्त था।[कृपया उद्धरण जोड़ें]श्रीकृष्ण की भक्ति-उपासना के अनन्य प्रचारकों में स्वामी भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी का नाम अग्रणी है।[कृपया उद्धरण जोड़ें] उन्हीं से प्रेरणा और आशीर्वाद प्राप्त कर स्वामी भक्तिवेदान्त प्रभुपाद ने पूरे संसार में श्रीकृष्ण भावनामृत संघ की शाखाएं स्थापित कर लाखों व्यक्तियों को हिन्दूधर्म तथा भगवान श्रीकृष्ण का अनन्य भक्त बनाने में सफलता प्राप्त की थी।[कृपया उद्धरण जोड़ें]
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भास्कर राय (भास्कर राय माखिन) (1690-1785) को व्यापक रूप से हिंदू धर्म की शाक्त परंपरा में देवी मां की पूजा से संबंधित सभी प्रश्नों पर एक अधिकार माना जाता है। उनका जन्म हैदराबाद, तेलंगाना में एक महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। दक्षिण भारत में भोंसले वंश के राजा सरफोजी द्वितीय ने भास्कर राय का स्वागत किया और उसके बाद वह तमिलनाडु में बस गए। शक्तिवाद अध्ययन में विशेषज्ञता वाले धर्म के एक प्रोफेसर डगलस रेनफ्रू ब्रूक्स के अनुसार, भास्कर राय "न केवल श्रीविद्या के एक शानदार व्याख्याकार थे, वह एक विश्वकोश लेखक थे", और वह एक "विचारक थे, जिनके पास तांत्रिक और वैदिक परंपराओं का धन था।" उसकी उंगलियों पर"। वह शाक्त तंत्रवाद की श्रीविद्या परंपरा से संबंधित थे। भास्कर राय 40 से अधिक और वेदांत से लेकर भक्ति की कविताओं और भारतीय तर्क और संस्कृत व्याकरण से लेकर तंत्र के अध्ययन तक के लेखक हैं। उनके कई ग्रंथों को शक्तिवाद परंपरा के लिए विशेष रूप से उल्लेखनीय माना जाता है, जिनमें से एक देवी मां पर केंद्रित है:
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ब्रह्मचैतन्य या गोंडवलेकर महाराज (19 फरवरी 1845 - 22 दिसंबर 1913) एक भारतीय हिंदू संत और आध्यात्मिक गुरु थे। ब्रह्मचैतन्य हिंदू देवता राम के भक्त थे और उन्होंने अपने नाम "ब्रह्मचैतन्य रामदासी" पर हस्ताक्षर किए। वह तुकामाई के शिष्य थे, और आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए 13-वर्ण राम नाम मंत्र "श्री राम जय राम जय जय राम" का उपयोग करते हुए जप ध्यान की वकालत की।
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चंद्रशेखरेंद्र सरस्वती
जगद्गुरु चन्द्रशेखरेन्द्र सरस्वती स्वामिगल (तमिल : சந்திரசேகரேந்திர சரஸ்வதி சுவாமிகள்) (20 मई 1894 – 8 जनवरी 1994) काँची कामकोटिपीठम के 68वें जगद्गुरु थे। उन्हे प्रायः परमाचार्य या 'महा पेरिययवाल' कहा जाता है।
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स्वामी चंद्रशेखर भारती (जन्म नरसिंह शास्त्री; 1892-1954) 1912-1954 में श्रृंगेरी शारदा पीठम के जगद्गुरु शंकराचार्य थे। वह 20वीं शताब्दी के दौरान हिंदू धर्म में सबसे महत्वपूर्ण आध्यात्मिक शख्सियतों में से एक थे। वह एक जीवनमुक्त (जीवित रहते हुए मुक्त हुए के लिए संस्कृत) है।
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चट्टंपी स्वामीकल (25 अगस्त 1853 - 5 मई 1924) एक हिंदू संत और समाज सुधारक थे। उनके विचारों और कार्यों ने केरल में कई सामाजिक, धार्मिक, साहित्यिक और राजनीतिक संगठनों और आंदोलनों की शुरुआत को प्रभावित किया और पहली बार हाशिए पर पड़े लोगों को आवाज दी।
चट्टंपी स्वामीकल ने वेदों के स्रोतों का हवाला देते हुए हिंदू ग्रंथों की रूढ़िवादी व्याख्या की निंदा की। स्वामीकल ने अपने समकालीन, नारायण गुरु के साथ, 19वीं शताब्दी के अंत में केरल के भारी कर्मकांड और जाति-ग्रस्त हिंदू समाज को सुधारने का प्रयास किया। स्वामीकल ने महिलाओं की मुक्ति के लिए भी काम किया और उन्हें समाज के सामने आने के लिए प्रोत्साहित किया। स्वामीकल ने शाकाहार को बढ़ावा दिया और अहिंसा (अहिंसा) को स्वीकार किया। स्वामीकल का मानना था कि अलग-अलग धर्म एक ही स्थान की ओर जाने वाले अलग-अलग रास्ते हैं। चट्टंपी स्वामीकल ने अपने बौद्धिक और आध्यात्मिक रूप से समृद्ध जीवन के दौरान केरल के विभिन्न क्षेत्रों के कई दोस्तों को बनाए रखा। उन्होंने इन दोस्तों के साथ रहकर अध्यात्म, इतिहास और भाषा पर कई किताबें लिखीं।
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स्वामी चिन्मयानन्द (8 मई 1916 - 3 अगस्त 1993) हिन्दू धर्म और संस्कृति के मूलभूत सिद्धान्त वेदान्त दर्शन के एक महान प्रवक्ता थे। उन्होंने सारे भारत में भ्रमण करते हुए देखा कि देश में धर्म संबंधी अनेक भ्रांतियां फैली हैं। उनका निवारण कर शुद्ध धर्म की स्थापना करने के लिए उन्होंने गीता ज्ञान-यज्ञ प्रारम्भ किया और 1953 ई में चिन्मय मिशन की स्थापना की।
स्वामी जी के प्रवचन बड़े ही तर्कसंगत और प्रेरणादायी होते थे। उनको सुनने के लिए हजारों लोग आने लगे। उन्होंने सैकड़ों संन्यासी और ब्रह्मचारी प्रशिक्षित किये। हजारों स्वाध्याय मंडल स्थापित किये। बहुत से सामाजिक सेवा के कार्य प्रारम्भ किये, जैसे विद्यालय, अस्पताल आदि। स्वामी जी ने उपनिषद्, गीता और आदि शंकराचार्य के 35 से अधिक ग्रंथों पर व्याख्यायें लिखीं। गीता पर लिखा उनका भाष्य सर्वोत्तम माना जाता है।
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चोखामेला (1300-1400) महाराष्ट्र के एक प्रसिद्ध संत थे जिन्होने कई अभंगों की रचना की है। इसके कारण उन्हें भारत का दलित-महार जाति पहला महान् कवि कहा गया है। सामाजिक-परिवर्तन के आन्दोलन में चोखामेला पहले संत थे, जिन्होंने भक्ति-काल के दौर में सामाजिक-गैर बराबरी को लोगों के सामने रखा। अपनी रचनाओं में वे दलित समाज के लिए खासे चिंतित दिखाई पड़ते हैं।
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दादा भगवान (7 नवंबर, 1908 - 2 जनवरी, 1988), जिन्हें दादाश्री के नाम से भी जाना जाता है, अंबालाल मुलजीभाई पटेल, भारत के गुजरात के एक आध्यात्मिक नेता थे, जिन्होंने अक्रम विज्ञान आंदोलन की स्थापना की थी। वे कम उम्र से ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे। उन्होंने 1958 में "आत्म-साक्षात्कार" प्राप्त करने से पहले बंबई में सूखे गोदी का रखरखाव करने वाली एक कंपनी के लिए एक ठेकेदार के रूप में काम किया। उन्होंने व्यवसाय छोड़ दिया और अपने आध्यात्मिक लक्ष्यों पर ध्यान केंद्रित किया। उनके शिक्षण के आसपास का आंदोलन अक्रम विज्ञान आंदोलन के रूप में विकसित हुआ और पश्चिमी भारत और विदेशों में अनुयायी बन गए।
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दामोदरदेव (असमिया भाषा : দামোদৰ দেৱ; 1488–1598) सोलहवीं शताब्दी के एकशरण धर्म के उपदेशक एवं प्रचारक थे। दामोदरदेव महापुरुष भट्टदेव के बाद साहित्यिकक प्रेरणा बने।
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दयानंद सरस्वती (आर्ष विद्या)
स्वामी दयानंद सरस्वती (15 अगस्त 1930 - 23 सितंबर 2015) अद्वैत वेदांत के एक प्रसिद्ध पारंपरिक शिक्षक, संन्यास के हिंदू आदेश के एक त्यागी थे, और अर्श विद्या गुरुकुलम और एआईएम फॉर सेवा के संस्थापक थे।
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श्री ध्यानयोगी मधुसूदनदास, जिन्हें काशीनाथ और मधुसूदनदास के नाम से भी जाना जाता है, भारत के बिहार में पैदा हुए एक भारतीय योगी और लेखक थे। उनके शिष्यों में श्री आनंदी मां और ओमदासजी महाराज शामिल थे। वह कुंडलिनी महा योग के उस्ताद थे जो संयुक्त राज्य अमेरिका में इसे लोकप्रिय बनाने के लिए जिम्मेदार थे।
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संत ज्ञानेश्वर महाराष्ट्र तेरहवीं सदी के एक महान सन्त थे| इन्होंने ज्ञानेश्वरी की रचना की। संत ज्ञानेश्वर की गणना भारत के महान संतों एवं मराठी कवियों में होती है। ये संत नामदेव के समकालीन थे और उनके साथ इन्होंने पूरे महाराष्ट्र का भ्रमण कर लोगों को ज्ञान-भक्ति से परिचित कराया और समता, समभाव का उपदेश दिया। वे महाराष्ट्र-संस्कृति के 'आद्य-प्रवर्तकों' में भी माने जाते हैं।
शिष्य - साचीदानंद महाराज
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द्रोणाचार्य ऋषि भारद्वाज तथा घृतार्ची नामक अप्सरा के पुत्र तथा ध कुरू प्रदेश में पांडु के पुत्रों तथा धृतराष्ट्र पुत्रों के वे गुरु थे। महाभारत युद्ध के समय वह कौरव पक्ष के सेनापति थे। गुरु द्रोणाचार्य के अन्य शिष्यों में एकलव्य का नाम उल्लेखनीय है। उसने द्रोणाचार्य द्वारा गुरु दक्षिणा माँगे जाने पर अपने दाएं हाथ का अंगूठा काट कर दे दिया। एकलव्य निषाद राज का पुत्र था और एक राजकुमार भी। कौरवों और पांडवों ने द्रोणाचार्य के आश्रम मे ही अस्त्रों और शस्त्रों की शिक्षा पाई थी। अर्जुन द्रोणाचार्य के प्रिय शिष्य थे। वे अर्जुन को विश्व का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाना चाहते थे।
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एकनाथ (आईएएसटी: एका-नाथ, मराठी उच्चारण: [एकनाथ]) (8 नवंबर 1533-1599), जिसे आमतौर पर संत एकनाथ के नाम से जाना जाता है, एक भारतीय हिंदू संत, दार्शनिक और कवि थे। वह हिंदू देवता विठ्ठल के भक्त थे और वारकरी आंदोलन के एक प्रमुख व्यक्ति हैं। एकनाथ को अक्सर प्रमुख मराठी संत ज्ञानेश्वर और नामदेव के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी के रूप में देखा जाता है।
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स्वामी गगनगिरी महाराज एक भारतीय हिंदू संत और नाथ संप्रदाय के गुरु थे। वह आधुनिक भारत के सबसे प्रभावशाली हठयोगियों में से एक हैं। गगनगिरी महाराज अपनी जल तपस्या और गहन ध्यान साधना के लिए विशेष रूप से जाने जाते थे। उन्हें स्वयं आदि दत्तात्रेय का अवतार माना जाता है। स्वामीजी भारतीय साधुओं, योगियों और संतों के बीच व्यापक रूप से सम्मानित व्यक्ति थे।
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गजानन महाराज Shegaon (Buldhana जिला), महाराष्ट्र, भारत भारत के सुप्रसिद्द संतों में से एक संत है। संत गजानन महाराज संस्थान विदर्भ क्षेत्र में सबसे बड़ा मंदिर ट्रस्ट है। गजान महाराज को तिहा प्ररथाम बंकट लाल ने शे संत गजानन महाराज शेगांव में पिंपल झाड़ के नीचे भोजन पत्र से खाना खाते लोगों को दिखे
गाव मे देखा था| बंकट लाल तत पश्यात गजान महाराज के भक्त बंन उस गमय शेगाव एकपछोटासा गाव था, जो आज एक बडा तीर्थ क्षेत्र बन चुका ह महाराष्ट्र के कोने कोने से और भारत भर से भाविक गजानन महाराज के दर्षण प्राप्त करने शेगाव आते है|
संत गजानन महाराज के गुरु संत नर्सिंग महाराज शेगांव से बारह किलोमीटर दूर गुप्त गंगा नदी पारस तहसील के पास हुआ था
भारत देश के राज्य महाराष्ट्र के जिला बुलढाणा तहसील शेगांव में स्थित है
गजानन महाराज के भक्त गजानन महाराज का भगवान गणेश के अवतार के रूप में विश्वास करते हैं, दासगणू महाराज ने एक 21 अध्याय जीवनी में लिखा है, "श्री गजानन विजय" में गजानन महाराज के मराठी भाषा मराठी होने, गजानन महाराज के समकालीन उन्हें जिन इंजन Buwa, गणपत Buwa और Awaliya बाबा जैसे कई नामों से पहचान की जाती है .श्री गजानन महाराज (शेगाव) एक बहुत ही जाने माने अवतार है |
यह माना जाता है की वे भगवान श्री गणेश के अवतार है|
श्रीपाद श्री वल्लभ चरित्र में एक जगह श्रीपाद श्री वल्लभ कहते है की वे अपनी पुनरावतार (श्री नुर्सिह सरस्वती) की जन्मभूमी (माहुर) के पास फिर से अपने गणेश अंश के रूप में प्रकट होंग| श्री गजानन महाराज उसी जन्मभूमी (माहुर) के पास शेगाव में प्रकट हुए|
श्री गजानन महाराज और श्री स्वामी समर्थ महाराज के बीच मे कई समानताएं |
यह कहना आवश्यक है, क्योकि श्री स्वामी समर्थ महाराज ही श्री नुर्सिह सरस्वती थे | श्री नुर्सिंह सरस्वती महाराज शैल्य में गुप्त हुए और ठीक 350 सालो के पश्चात वहा से श्री स्वामी समर्थ महाराज प्रकट हुवे|
जब श्री स्वामी समर्थ महाराज ने अक्कलकोट में समाधी ली उसी के आसपास श्री गजानन महाराज शेगाव में प्रकट हुए इससे यही लगता है की अक्कलकोट के श्री स्वामी समर्थ महाराज ने अपना अगला
अवतार शेगाव में श्री गजानन महाराज के रूप में लिया| श्री गजानन महाराज प्रभू श्रीराम और श्रीकृष्ण की तरह अजानाबाहू थे|
वे श्री स्वामी समर्थ महाराज की तरह परमहंस संन्यासी भी थे| श्री स्वामी समर्थ महाराज भी अजानबाहू थे|
श्री गजानन महाराज गांजा पीते अवश्य थे किंतु वे ऐसे किसी भी पदार्थ की आसक्ति नहीं रखते थे| केवल एक भक्त ने उनसे यह वरदान मांगा था की उस भक्त की याद में वे कभी कभी इस पदार्थ का सेवन करते रहे| यह भक्त श्री क्षेत्र काशी से श्री गजानन महाराज के दर्शन के लिए आया था|
उसने अपने अति प्रिय पदार्थ (गांजा) को अपने प्रभू को समर्पित करने का वायदा किया था| उस वायदे को पूरा करने के लिए वह काशी से शेगाव आया था| श्री गजानन महाराज के कई लीलाओं का वर्णन श्री दासगणु महाराज ने अपनी काव्यरचना "श्री गजानन विजय" में किया है| यह ग्रंथ संत साहित्य में एक अति उत्तम ग्रंथ माना जाता है| ये कई लोगो का अनुभव है की इसके नित्य पठन से स्वंय श्री गजानन महाराज उनकी हर मुसीबत में रक्षा करते है|
एक मानव शरीर को स्वीकार महाराज एक मात्र मनोरंजन (लीला) के रूप में वह Brahmadnyani है, यही कारण है क्यों हजारों श्रद्धालु उनके आशीर्वाद के लिए Shegaon झुंड। वह कैसे कार्य करता है और महान भक्तों को विले, दुष्ट एयरवेज से लोगों को बदल देती है वास्तव में अज्ञात है। अपने सांसारिक दिनों में कोई भी कभी भी उसे किसी विशेष मंत्र जप japamala आदि धारण देखा लेकिन वह सर्वोच्च संत, किसका आशीर्वाद सभी को होना चाहिए है।
एक पौराणिक कथा के अनुसार, एक पैसे Bankat लाल अग्रवाल पहला नाम ऋणदाता एक सड़क पर एक "superconscious राज्य में गजानन महाराज 23 फ़रवरी 1878 पर देखा था। उसे एक संत होने के लिए संवेदन, Bankat उसे घर ले और उससे पूछा कि उसके साथ रहना. महापुरूष का कहना है कि वह अपने जीवनकाल में, वह एक Janrao देशमुख के जीवन पर एक ताजा पट्टा दे, आग के बिना मिट्टी के पाइप प्रकाश व्यवस्था, पानी के साथ एक अच्छी तरह से सूखा भरने, घुमा canes के द्वारा अपने हाथों से गन्ने के रस ड्राइंग के रूप में इस तरह के कई चमत्कार प्रदर्शन और एक औरत का कुष्ठ रोग के इलाज के. वह 8 सितम्बर 1910 पर समाधि ले ली. उसके नाम में एक मंदिर पर बनाया गया है समाधि]] Shegaon, पर.
गजानन महाराज संस्थान Shivshankarbhau पाटिल का प्रमुख विश्वास का सिर है और अच्छी तरह से अपने प्रशासन और मंदिर के प्रबंधन के लिए भारत में जाना जाता है, bhojan kaksha, इंजीनियरिंग और प्रबंधन कॉलेज, आनंद सागर और कई अन्य परियोजनाओं के विश्वास पर स्थित संस्था द्वारा चलाए श्री गजानन Shegaon संस्थान महाराज अमरावती विश्वविद्यालय से संबद्ध shegaon द्वारा प्रबंधित. इस कॉलेज से इंजीनियरिंग की शिक्षा के लिए सर्वश्रेष्ठ संस्थानों में से एक है। आनंद सागर परियोजना भी नाममात्र दर पर सभी सुविधाओं के साथ पर्यटकों के लिए 650 एकड़ जमीन पर विश्वास के द्वारा विकसित की है। मंदिर महाराष्ट्र में अपनी साफ, स्वच्छ, साफ और विनम्र और सम्मानजनक गजानन महाराज विश्वास के सेवकों है डब्ल्यूएचओ बस सेवा के लिए वहाँ काम करती है पर्यावरण व्यवहार के लिए प्रसिद्ध है।
गजानन महाराज द्वारा यह कहा जाता है प्रकट होता है कि वह फिर से Domak महाराष्ट्र के गांव (pothi में पता चला) (Morshi के पास) और उनके शब्दों में सच साबित हुई. वह Domak गांव में फिर से निकल आया और 13 सालों से भक्तों को दर्शन दे. गजानन महाराज Domak गजानन महाराज Shegoan के रूप में ही दिखता है और इन 13 वर्षों में चमत्कार की एक बहुत कुछ किया है। भक्त उनके दर्शन के लिए तलाश डब्ल्यूएचओ दिन ब दिन बढ़ रहे हैं।
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अय्याला सोमयाजुलु गणपति शास्त्री, जिन्हें गणपति मुनि (1878-1936) के नाम से भी जाना जाता है, रमण महर्षि के शिष्य थे। उन्हें उनके शिष्यों द्वारा "काव्याकंठ" (जिसके गले में कविता है), और "नयना" के रूप में भी जाना जाता था।
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संत गरीब दास (1717-1778) भक्ति और काव्य के लिए जाने जाते हैं। गरीब दास ने एक विशाल संग्रह की रचना की जो सदग्रंथ साहिब के नाम से प्रसिद्ध है। गरीब दास साहेब ने सद्गुरु कबीर साहेब की अमृतवाणी का विवरण किया
जिसे रत्न सागर भी कहते हैं। अच. ऐ. रोज के अनुसार गरीबदास की ग्रन्थ साहिब पुस्तक में 7000 कबीर के पद लिए गए थे और 17000 स्वयं गरीब दास ने रचे थे। गरीबदास का दर्शन था कि राम में और रहीम में कोई अन्तर नहीं है।बाबा गरीबदास की समाधि स्थल गाँव छुडानी, हरियाणा और जिला सहारनपुर उत्तर प्रदेश में आज भी सुरक्षित है। संत गरीब दास जी को 10 वर्ष की आयु में कबीर परमात्मा स्वयं आकर मिले थे, उनको अपना ज्ञान बताया।
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गौराकिसोरा दास बाबाजी (आईएएसटी: गौरकिशोर दास बाबाजी; 1838-1915) हिंदू धर्म की गौड़ीय वैष्णव परंपरा से एक प्रसिद्ध आचार्य हैं, और उनके वंश के अनुयायियों द्वारा महात्मा या संत के रूप में माना जाता है। अपने जीवनकाल के दौरान गौरकिशोर दास बाबाजी भक्ति योग की प्रक्रिया पर अपनी शिक्षाओं और वृंदावन में एक साधु, या बाबाजी के रूप में अपने अपरंपरागत अवधूत जैसे व्यवहार के लिए प्रसिद्ध हुए।
उनका जन्म 17 नवंबर 1838 को आधुनिक बांग्लादेश के हिस्से फरीदपुर जिले के तेपाखोला के पास वाग्याना गांव में एक साधारण व्यापारी परिवार में हुआ था। अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद जब वे 29 वर्ष के थे, उन्होंने बाद के शिष्य, भगवत दास बाबाजी से मिलने के बाद, जगन्नाथ दास बाबाजी के संरक्षण में गौड़ीय वैष्णव परंपरा में एक बाबाजी के जीवन को स्वीकार किया। वह वृंदावन और नवद्वीप के पवित्र शहरों में रहकर, राधा और कृष्ण (भजन) के पवित्र नामों के गायन और जप में गहराई से लीन होकर एक तपस्वी बन गए।
1915 में उनके 77वें जन्मदिन पर उनका निधन हो गया
1900 की शुरुआत में, भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने स्वीकार किया कि उन्होंने गौरकिशोर दास बाबाजी से दीक्षा (एक रात के सपने में) ली और 'वर्षभानवी देवी दैत्य दास' नाम दिया। भक्तिसिद्धांत सारस्वत ने बाद में संन्यास क्रम में दीक्षा का एक अपरंपरागत रूप लिया, जिसमें "वह बस गौर किशोर दास बाबाजी की एक तस्वीर के सामने बैठ गए और उस आदेश को अपने ऊपर रख लिया।" यह कुछ विवादित विषय द्वारा माना जाता है।
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ज्ञानानंद (निया-ना-नान-दा) एक भारतीय गुरु थे, जिन्हें अनुयायियों द्वारा स्वामी श्री ज्ञानानंद गिरि के रूप में संदर्भित किया जाता है। वे श्री शिवरत्न गिरि स्वामीगल के मुख्य शिष्य थे और आदि शंकर द्वारा स्थापित चार मठों में से एक ज्योतिर मठ के नेताओं (पीठपतिपाठियों) में से एक थे। पीठाथिपथियों की इस वंशावली को 'गिरि' परंपरा भी कहा जाता है, जैसा कि पीठाथिपथियों के नाम से देखा जाता है, जो 'गिरि' के साथ समाप्त होता है। ज्ञानानंद एक महायोगी, सिद्ध पुरुष, हिमालयी ऋषि और भारतीय दार्शनिक हैं। वे अपने वंश के कारण अद्वैत वेदांत में विश्वास करते थे। उनके पास विद्यानंद, त्रिवेणी और दासगिरी सहित कई शिष्य थे। उन्होंने हरि को 1. हरिदोस गिरि को आशीर्वाद दिया और मानव जाति को कष्टों से उबारने और मदद करने के लिए गुरु बक्थि प्रचारा स्वामी के पास अपने असामान्य रूप से लंबे कार्यकाल के माध्यम से कई निपुण शिष्य थे- ब्रह्मनामदा जिन्होंने पोलुर के अच्युतदास, पुस्कर में समाधि ली। उसे गुमनामी पसंद थी। पहचाने जाने से बचने के लिए उसने पहचान बदल ली।
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गोपालानंद स्वामी (1781-1852) स्वामीनारायण संप्रदाय के एक परमहंस थे, जिन्हें स्वामीनारायण ने अभिषेक किया था। उन्होंने स्वामीनारायण संप्रदाय के प्रसार के लिए कई अनुयायियों का काम किया और उनका मार्गदर्शन किया। स्वामीनारायण सम्प्रदाय का मानना है कि गोपालानंद स्वामी को उन योगियों में से एक माना जाता है, जिन्होंने पवित्र योग के क्षेत्र में अष्टांग योग या 8 गुना पथ प्राप्त किए। यह भी माना जाता है कि गोपालानंद स्वामी को वडताल और अहमदाबाद देश दोनों के प्रमुख के रूप में नियुक्त किया गया था।
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गोपी कृष्ण (30 मई 1903 - 31 जुलाई 1984) एक योगी, रहस्यवादी, शिक्षक, समाज सुधारक और लेखक थे। उनका जन्म भारतीय राज्य जम्मू और कश्मीर में श्रीनगर के बाहर एक छोटे से गाँव में हुआ था। उन्होंने अपने शुरुआती साल वहीं बिताए, और बाद में ब्रिटिश भारत के पंजाब में लाहौर में रहे। वह पश्चिमी पाठकों के बीच कुंडलिनी की अवधारणा को लोकप्रिय बनाने वाले पहले लोगों में से एक थे। उनकी आत्मकथा कुंडलिनी: द इवोल्यूशनरी एनर्जी इन मैन, जिसने कुंडलिनी के जागरण की घटना का अपना व्यक्तिगत विवरण प्रस्तुत किया, (बाद में नाम बदलकर लिविंग विद कुंडलिनी), ग्रेट ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रकाशित हुआ और तब से ग्यारह प्रमुख भाषाओं में छपी है। जून मैकडैनियल के अनुसार, उनके लेखन ने कुंडलिनी योग में पश्चिमी रुचि को प्रभावित किया है।
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संत गोरा कुम्भार (Sant Gora Kumbhar) (गोरोबा के रूप में भी जाना जाता है) भक्ति आंदोलन और महाराष्ट्र के वारकरी संप्रदाय से जुड़े एक हिंदू संत थे।गोरा कुम्भार और अन्य संतों ने अभंग (शब्दों को नष्ट नहीं किया जा सकता है) के सैकड़ों गीतों को भी लिखा और गाया। वारकरी संप्रदाय का मुख्य सिद्धांत कीर्तन का दैनिक जप था।
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गुलाबराव महाराज (6 जुलाई 1881 - 20 सितंबर 1915) महाराष्ट्र, भारत के एक हिंदू संत थे। एक अंधे व्यक्ति, उन्हें लोगों को जीवन की दृष्टि देने का श्रेय दिया जाता है। उन्होंने 34 वर्ष के अपने छोटे से जीवन में 6000 से अधिक पृष्ठों, 130 भाष्य और लगभग 25,000 छंदों वाली विभिन्न विषयों पर 139 पुस्तकें लिखीं।
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गुणितानंद स्वामी (28 सितंबर 1784 - 11 अक्टूबर 1867), जन्म मूलजी जानी, स्वामीनारायण सम्प्रदाय के एक प्रमुख परमहंस थे, जिन्हें स्वामीनारायण द्वारा नियुक्त किया गया था: 22 : 16 : 123 और बोचासनवासी अक्षर पुरुषोत्तम द्वारा स्वामीनारायण के पहले आध्यात्मिक उत्तराधिकारी के रूप में स्वीकार किया गया स्वामीनारायण संस्था (BAPS).: 16 भारत के गुजरात में भद्रा के छोटे कृषक समुदाय में एक धार्मिक परिवार में जन्मे, उन्होंने पहली बार अपने पिता के गुरु, रामानंद स्वामी के अधीन स्वामीनारायण का सामना करने और उनके अधीन स्वामी बनने से पहले धार्मिक शिक्षा प्राप्त की। 25.: 19 वे अपने आध्यात्मिक प्रवचनों और ईश्वरीय सेवा के लिए पूजनीय थे
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गुरु जम्भेश्वर, जिन्हें गुरु जंभाजी के नाम से भी जाना जाता है, (1451-1536) बिश्नोई पंथ के संस्थापक थे। उन्होंने सिखाया कि ईश्वर एक दिव्य शक्ति है जो हर जगह व्याप्त है। उन्होंने पौधों और जानवरों की रक्षा करना भी सिखाया क्योंकि वे प्रकृति के साथ शांतिपूर्वक सह-अस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण हैं।
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गुरुमयी चिद्विलासानन्द
24 जून 1955 को मालती शेट्टी के रूप में जन्मी गुरुमाई चिद्विलासानन्द (या गुरुमाई या स्वामी चिद्विलासानन्द), सिद्धयोग पथ की गुरु या आध्यात्मिक प्रमुख हैं, जिनके भारत में गणेशपुरी और पश्चिमी दुनिया में आश्रम हैं, जिनका दक्षिण में SYDA फाउंडेशन का मुख्यालय है। फॉल्सबर्ग, न्यूयॉर्क।
गुरुमाई जी ने अपने गुरु, स्वामी मुक्तानन्द से आध्यात्मिक दीक्षा (शक्तिपात) प्राप्त की, जब वे 14 वर्ष की थीं, उस समय उन्होंने उन्हें और उनके भाई स्वामी नित्यानंद को अपना उत्तराधिकारी नामित किया। 1982 में वह एक त्यागी (सन्यासिन) बन गईं। उसी वर्ष बाद में मुक्तानंद की मृत्यु हो गई और वह और उनके भाई संयुक्त रूप से सिद्ध योग के प्रमुख बन गए। वे बड़ी संख्या में भक्तों को समायोजित करने के लिए साउथ फॉल्सबर्ग आश्रम का विस्तार करने के लिए आगे बढ़े। 1985 में नित्यानंद ने सिद्धयोग पथ छोड़ दिया।
उन्होंने 1989 किंडल माय हार्ट से शुरू करते हुए कई भक्ति पुस्तकें लिखी हैं।
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हरिदास ठाकुर (IAST हरिदास) (जन्म 1451 या 1450) एक प्रमुख वैष्णव संत थे जिन्हें हरे कृष्ण आंदोलन के प्रारंभिक प्रचार में सहायक होने के लिए जाना जाता था। उन्हें रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी के अलावा चैतन्य महाप्रभु का सबसे प्रसिद्ध धर्मान्तरित माना जाता है। अत्यधिक विपत्ति का सामना करते हुए उनकी सत्यनिष्ठा और अटूट विश्वास की कहानी चैतन्य चरितामृत, अंत्य लीला में कही गई है। ऐसा माना जाता है कि चैतन्य महाप्रभु ने स्वयं हरिदास को नामाचार्य के रूप में नामित किया था, जिसका अर्थ है 'नाम का शिक्षक'। हरिदास ठाकुर, भगवान कृष्ण के भक्त थे, और उन्होंने प्रतिदिन 300,000 बार भगवान, हरे कृष्ण के नाम का जप करने का अभ्यास किया था।
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हरिहरानंद गिरि (बांग्ला: স্বামী হরিহরানন্দ গিরী) (27 मई 1907 - 3 दिसंबर 2002), एक भारतीय योगी और गुरु थे जिन्होंने भारत के साथ-साथ पश्चिमी देशों में भी शिक्षा दी। उनका जन्म पश्चिम बंगाल के नदिया जिले में रवींद्रनाथ भट्टाचार्य के रूप में हुआ था। वह क्रिया योग संस्थान, संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रमुख और दुनिया भर में क्रिया योग केंद्रों के संस्थापक थे। कुछ स्रोतों के अनुसार, हरिहरानंद युक्तेश्वर गिरि के प्रत्यक्ष शिष्य थे।
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इसैग्ननियार (तमिल: இசைஞானியார், 7वीं शताब्दी), जिसे इसैननियार, इसैग्ननियार, इसैग्ननियार और इसाईजनियार के नाम से भी जाना जाता है और इसे इसाई-ज्ञानी अम्मैयार (इसाई-ज्ञानी अम्मैयार) के नाम से भी जाना जाता है, सुंदरार की माँ है, जो सबसे प्रमुख नयनार संतों में से एक हैं। वह खुद एक नयनार संत के रूप में मानी जाती हैं, जो शैव धर्म के हिंदू संप्रदाय में अपने पति सदैया नयनार के साथ पूजनीय हैं। उन्हें आम तौर पर 63 नयनारों की सूची में अंतिम के रूप में गिना जाता है। इसाइगनियार तीन महिला संतों में से एक हैं। सुंदरार एकमात्र नयनार हैं जिनके माता-पिता दोनों नयनार के रूप में सूचीबद्ध हैं। आइज़ैगनियार का समावेश, केवल व्यक्तिगत योग्यता के बजाय, सुंदरार के साथ उसके जुड़ाव के आधार पर प्रवाहित होता है। उनकी सन्यासी स्थिति को उनके पुत्र की महानता के प्रमाण के रूप में देखा जाता है।
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जग्गी वासुदेव (जन्म: 3 सितम्बर, 1957) एक लेखक हैं। उनको "सद्गुरु" भी कहा जाता है। वह ईशा फाउंडेशन नामक लाभरहित मानव सेवी संस्थान के संस्थापक हैं। ईशा फाउंडेशन भारत सहित संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैंड, लेबनान, सिंगापुर और ऑस्ट्रेलिया में योग कार्यक्रम सिखाते है, साथ ही साथ कई सामाजिक और सामुदायिक विकास योजनाओं पर भी काम करते हैं। इन्हें संयुक्त राष्ट्र आर्थिक और सामाजिक परिषद (अंग्रेजी: ECOSOC) में विशेष सलाहकार की पदवी प्राप्त है। उन्होने 8 भाषाओं में 100 से अधिक पुस्तकों की रचना की है। सन् 2017 में भारत सरकार द्वारा उन्हें सामाजिक सेवा के लिए पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया है।
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संत श्री जलाराम बापा (गुजराती: જલારામ) एक हिन्दू संत थे। वे राम-भक्त थे। वे 'बापा' के नाम से प्रसिद्ध हैं। उनका जन्म 1799 में गुजरात के राजकोट जिले के वीरपुर गाँव में हुआ था।
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संत जनाबाई भारत में हिंदू परंपरा में एक मराठी धार्मिक कवि थे, जिनका जन्म संभवत: 13वीं शताब्दी के सातवें या आठवें दशक में हुआ था। 1350 में उनकी मृत्यु हो गई। जनाबाई का जन्म गंगाखेड 1258-1350, महाराष्ट्र में रैंड और करंद नाम के एक जोड़े के यहाँ हुआ था। जाति व्यवस्था के तहत युगल मतंग के थे। उसकी माँ की मृत्यु के बाद, उसके पिता उसे पंढरपुर ले गए। बचपन से ही, जनाबाई ने दामाशेती के घर में एक नौकरानी के रूप में काम किया, जो पंढरपुर में रहती थी और जो प्रमुख मराठी धार्मिक कवि नामदेव के पिता थे। जनाबाई संभवतः नामदेव से थोड़ी बड़ी थीं, और कई वर्षों तक उनकी देखभाल करती रहीं।
पंढरपुर का विशेष रूप से मराठी भाषी हिंदुओं के बीच उच्च धार्मिक महत्व है। जनाबाई के नियोक्ता दामाशेती और उनकी पत्नी गोनाई बहुत धार्मिक थे। अपने आसपास के धार्मिक वातावरण और अपने सहज झुकाव के प्रभाव से, जनाबाई हमेशा भगवान विठ्ठल की एक उत्साही भक्त थीं। वे एक प्रतिभाशाली कवियित्री भी थीं। हालाँकि उनकी कभी कोई औपचारिक स्कूली शिक्षा नहीं हुई, फिर भी उन्होंने अभंग (अभंग) रूप के कई उच्च-गुणवत्ता वाले धार्मिक छंदों की रचना की। उनकी कुछ रचनाएँ नामदेव की रचनाओं के साथ सुरक्षित रखी गई हैं। लगभग 300 अभंगों के लेखक होने का श्रेय परंपरागत रूप से जनाबाई को दिया जाता है। हालांकि, शोधकर्ताओं का मानना है कि उनमें से कुछ वास्तव में कुछ अन्य लेखकों की रचनाएं थीं।
ज्ञानेश्वर, नामदेव, एकनाथ और तुकाराम के साथ, जनाबाई का मराठी भाषी हिंदुओं के मन में एक पूजनीय स्थान है, जो विशेष रूप से महाराष्ट्र में वारकरी (वारकरी) संप्रदाय से संबंधित हैं। भारत में पूरी तरह से संत माने जाने वाले व्यक्तियों को संत (संत) की उपाधि देने की परंपरा के अनुसार, जनाबाई सहित उपरोक्त सभी धार्मिक हस्तियों को आमतौर पर महाराष्ट्र में उस विशेषण के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है। इस प्रकार, जनाबाई को नियमित रूप से संत जनाबाई (संत जनाबाई) कहा जाता है।
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जयतीर्थ दास इनसे भिन्न हैं। वे हरे कृष्ण आन्दोलन से जुड़े सन्त थे।
जयतीर्थ ( 1345 - 1388 ई ) एक हिंदू दार्शनिक, महान द्वैतवादी, नीतिज्ञ और मध्वचार्य पीठ के छठे आचार्य थे। उन्हें टीकाचार्य के नाम से भी जाना जाता है। मध्वाचार्य की कृतियों की सम्यक व्याख्या के कारण द्वैत दर्शन के इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण विचारकों में उनकी गिनती होती है। मध्वाचार्य, व्यासतीर्थ और जयतीर्थ को द्वैत दर्शन के 'मुनित्रय' की संज्ञा दी गयी है। वे आदि शेष के अंश तथा इंद्र के अवतार माने गये हैं।
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श्री जीव गोस्वामी (1513-1598), वृंदावन में चैतन्य महाप्रभु द्वारा भेजे गए छः षण्गोस्वामी में से एक थे। उनकी गणना गौड़ीय सम्प्रदाय के सबसे महान दार्शनिकों एवं सन्तों में होती है। उन्होने भक्ति योग, वैष्णव वेदान्त आदि पर अनेकों ग्रंथों की रचना की। वे दो महान सन्तों रूप गोस्वामी एवं सनातन गोस्वामी के भतीजे थे।
इनका जन्म श्री वल्लभ अनुपम के यहां 1533 ई0 (तद.1455 शक. भाद्रपद शुक्ल द्वादशी को हुआ था। श्री सनातन गोस्वामी, श्री रूप गोस्वामी तथा श्री वल्लभ, ये तीनों भाई नवाब हुसैन शाह के दरबार में उच्च पदासीन थे। इन तीनों में से एक के ही संतान थी, श्री जीव गोस्वामी। बादशाह की सेवाओं के बदले इन लोगों को अच्छा भुगतान होता था, जिसके कारण इनका जीवन अत्यंत सुखमय था। और इनके एकमात्र पुत्र के लिए किसी वस्तु की कमी न थी। श्री जीव के चेहरे पर सुवर्ण आभा थी, इनकी आंखें कमल के समान थीं, व इनके अंग-प्रत्यंग में चमक निकलती थी।
श्री गौर सुदर्शन के रामकेली आने पर श्री जीव को उनके दर्शन हुए, जबकि तब जीव एक छोटे बालक ही थे। तब महाप्रभु ने इनके बारे में भविष्यवाणी की कि यह बालक भविष्य में गौड़ीय संप्रदाय का प्रचारक व गुरु बनेगा। बाद में इनके पिता व चाचाओं ने महाप्रभु के सेवार्थ इनको परिवार में छोड़कर प्रस्थान किया।
इन्हें जब भी उनकी या गौरांग के चरणों की स्मृति होती थी, ये मूर्छित हो जाते थे। बाद में लोगों के सुझाव पर ये नवद्वीप में मायापुर पहुंचे व श्रीनिवास पंडित के यहां, नित्यानंद प्रभु से भेंट की। फिर वे दोनों शची माता से भी मिले। फिर नित्य जी के आदेशानुसार इन्होंने काशी को प्रस्थान किया। वहां श्री रूप गोस्वामी ने इन्हें श्रीमद्भाग्वत का पाठ कराया। और अन्ततः ये वृंदावन पहुंचे। वहां इन्होंने एक मंदिर भी बनवाया।
1540 शक शुक्ल तृतीया को 85 वर्ष की आयु में इन्होंने देह त्यागी।
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कल्कि भगवान (जन्म 7 मार्च 1949 को विजय कुमार नायडू के रूप में), जिन्हें श्री भगवान के नाम से भी जाना जाता है, एक स्वयंभू भारतीय धर्मगुरु, पंथ नेता, व्यवसायी और एक रियल एस्टेट निवेशक हैं। एलआईसी में एक पूर्व क्लर्क, वह भगवान का अवतार (कल्कि अवतार) होने का दावा करता है। वह 'वननेस'/'एकम' पंथ और व्हाइट लोटस कांग्लोमरेट के संस्थापक हैं। विजय कुमार अपने अनुयायियों को भगवान के रूप में उनकी पूजा करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं; और चमत्कार करने में सक्षम एक दिव्य अवतार होने का दावा करता है। उन्होंने मानव जाति को आध्यात्मिक ज्ञान देने के लिए एक मसीहा होने का भी दावा किया है। 1989 में, उन्होंने एकता नामक एक नया धार्मिक आंदोलन शुरू किया, और वर्ष 2012 में दुनिया में एक आध्यात्मिक स्वर्ण युग का उद्घाटन करने की भविष्यवाणी की। जब 21 दिसंबर 2012 को ऐसी कोई घटना नहीं हुई, तो निराश अनुयायियों ने पंथ छोड़ दिया और इसे उनके हवाले कर दिया गया। बेटा एनकेवी कृष्णा ("कृष्णाजी") और बहू प्रीता कृष्णा ("प्रीताजी")। उन्होंने इसे 'एकम', 'पीकेकॉन्शनेस' और 'ओ एंड ओ एकेडमी' जैसे अलग-अलग नामों से रीब्रांड किया है। एकम के साथ-साथ, कल्कि और उनका परिवार भी व्हाइट लोटस कांग्लोमरेट का मालिक है। यह रियल एस्टेट, खनन, मनोरंजन, खेल, कृषि, शिक्षा, वित्त और विनिर्माण में रुचि रखने वाली कंपनियों का एक बहु मिलियन डॉलर का समूह है। इनमें से कई शेल कंपनियाँ हैं और केवल डाक पते के रूप में मौजूद हैं। आनंदगिरी और समदर्शिनी जैसे पूर्व एकता पंथ के प्रमुख आचार्य इन कंपनियों के बोर्ड में बैठते हैं। 2002 में, सामाजिक कार्यकर्ता विश्वनाथ स्वामी ने भारतीय आयकर विभाग के साथ एक शिकायत दर्ज की, जिसमें आरोप लगाया गया कि कल्कि भगवान ने ग्रामीण विकास के लिए कई ट्रस्ट बनाए और प्राप्त किए। इन ट्रस्टों द्वारा एकत्रित धन के लिए कर छूट। स्वामी ने यह भी आरोप लगाया कि कल्कि भगवान इन पैसों का उपयोग अपने बेटे एनकेवी कृष्णा के लिए कई निगमों को स्थापित करने में मदद करने के लिए कर रहे थे, बजाय बताए गए उद्देश्य के लिए पैसे का उपयोग करने के लिए। . प्रवर्तन निदेशालय ने उनके आश्रम से संबंधित 900 एकड़ जमीन कुर्क की और उनके खिलाफ विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम के तहत मामला दर्ज किया। नवंबर 2019 में उन्हें दिल का दौरा पड़ा।
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कमलेश डी. पटेल (जन्म 1956) जिन्हें उनके अनुयायियों के बीच दाजी के नाम से भी जाना जाता है, एक आध्यात्मिक नेता, लेखक और आध्यात्मिक साधना की सहज मार्ग प्रणाली में राज योग गुरुओं की पंक्ति में चौथे हैं। वह 1945 में स्थापित एक गैर-लाभकारी संगठन श्री राम चंद्र मिशन के अध्यक्ष रहे हैं और 2014 से संयुक्त राष्ट्र के सार्वजनिक सूचना विभाग से जुड़े हुए हैं। वह नियमित रूप से कार्यशालाएं आयोजित करते हैं और उन्होंने ध्यान और आध्यात्मिकता के विषयों पर दो पुस्तकें लिखी हैं। .
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कनक दास (1509 – 1609) महान सन्त कवि, दार्शनिक, संगीतकार तथा वैष्णव मत के प्रचारक थे।
कनकदास कर्नाटक के महान संतों और दार्शनिकों में से एक थे, उनके माता-पिता ने उनके जन्म के समय उनका नाम थिम्मप्पा रखा था, और उनके आध्यात्मिक शिक्षक व्यासराज ने बाद में उन्हें कनक दास नाम दिया जब उन्होंने हरिदास प्रणाली का मार्ग स्वीकार किया। कुरुबा (धनगर ) समुदाय का सदस्य होने के कारण वह पहले योद्धा बने। सर्वशक्तिमान दया के प्रवेश के साथ, कनकदास की जीवन शैली ने एक नाटकीय मोड़ ले लिया। एक बार वह कृष्णकुमारी का स्नेह जीतने के लिए एक युद्ध में व्यस्त थे। वह युद्ध के बीच में एक अलौकिक शक्ति से बाधित हो गया और उसे युद्ध से इस्तीफा देने की सलाह दी, लेकिन वह अंधी भावना में था और उसने आत्मसमर्पण करने से इनकार कर दिया। वह लड़ता रहा और लगभग मरने वाला था लेकिन दैवीय हस्तक्षेप के कारण रहस्यमय तरीके से बचा लिया गया था। तब से वह भगवान कृष्ण के भक्त बन गए और उन्होंने अपने पूरे जीवन में हरिदास के मार्ग को स्वीकार कर लिया। उन्होंने कर्नाटक में हरिदास आंदोलन में भी भाग लिया और दक्षिण भारतीय लोगों के लिए उनकी उपलब्धियां उल्लेखनीय थीं। कनकदास की जीवनी के अनुसार, हरिदास आंदोलन ने उन्हें प्रभावित किया, और फिर वे इसके प्रवर्तक व्यासराज के भक्त बन गए। माना जाता है कि उनके बाद के वर्षों को तिरुपति में बिताया गया था।
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कन्होपत्रा एक 15 वीं सदी के मराठी संत-कवयत्रि थी। हिंदू धर्म के वारकरी संप्रदाय द्वारा सम्मानित थी। कान्होपत्रा एक वेश्या और नाचने वाली गणीका कि लडकी थी।
वह बीदर के बादशाह (राजा) की उपपत्नी से बिना वर्कारी के हिंदू भगवान विठोबा-देवता संरक्षक को आत्मसमर्पण करने के लिए चुनाए।वह पंढरपुर में विठोबा के मुख्य मंदिर में निधन हो गया।सिर्फ उन्हो एक ही व्यक्ति किसके समाधि मंदिर के परिसर के भीतर है।
कन्होपत्रा मराठी ओवी और अभंगा अपने पेशे के साथ उसका शील संतुलन के लिए विठोबा के प्रति उसकी भक्ति और उसके संघर्ष की कविता कह लिखि थी।
उनकी कविताओं में, भगवान विठोबा उसके रक्षक बनते थे और अपने पेशे के चंगुल से उसे रिहा करने के लिए प्रार्थना कर रहि थी।
उसकी तीस अभंगा आज भी बच गया है और आज भी लोगा गाते है।वह सिर्फ एक ही महिला संत वरकारि,जिन्होंने पवित्रता केवल उनकी भक्ति के आधार गुरु बिना प्राप्त किये है।
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राधा स्वामी सत्संग, दिनोद (RSSD) एक भारतीय आध्यात्मिक संगठन है जिसका मुख्यालय हरियाणा राज्य के भिवानी जिले के दिनोद गाँव में है। यह राधा स्वामी संप्रदाय को बढ़ावा देता है जिसकी स्थापना जनवरी 1861 में बसंत-पंचमी के दिन (एक वसंत उत्सव) पर शिव दयाल सिंह द्वारा की गई थी। दिनोद (RSSD) में राधा स्वामी सत्संग की स्थापना ताराचंद ने की थी।
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कारइक्काल अम्मई तमिल सन्त लेखिका थीं।
कारइक्काल चोल तमिलनादड्ड के समुद्रि व्यापारिक शहर हे।धानथनथनार नामक सोदागर को जन्म हुआ था।बचपन से अम्माई बगवान की कठिन भक्त थी।कारइक्काल अम्माई ने बचपन मे शिवलिंग रेत के साथ बनाया।अम्माई ने पाँच पत्र मंत्र नमसिवाय बोले और भाग लिया शिव भक्तों कि जरुरतों के लिए।उसे बहुत ही कम उम्र में शिव परवाह एक माँ की तरह श्रद्धालुओं।अम्मई नागपटन कि एक धनि व्यापारी के बेटे के सत शादि हुआ था।शिव भक्तों जो उस्के घर का दोरा किया आराम से तंग आ चुके थे।
एक दिन अम्मई के पति परमानथान दो आम उसके लिये लखा जाना करने केलिए कहा था।एक भुखा शिव भक्त उस दिन अम्मई के पास आया।और खाना का लंच तयार नही था।अम्मई ने दहि चावल और एक आम भी दिया।जब उनके पथि आये समय वो आम पुछा और वो परेशान लग गया।वो बापस कमरे मे अया और दो आम देखा।तब वो आश्चर्य होगया और भगवान शिव को प्रशंसा कीया।उन्की पति भगवान शिव कि बक्त नही था।और उनोने पेहेले विशवास नहीं किया हे कि ये आम भगवान से अये थे।और पति ने फिर भी आम पुछ्ने केलिये कहा।और फिर भी वो पुछा और फिर भी भगवान ने आम दिया।एस समय अम्मई की पति को विस्वास होगया।और वो भी भगवान शिव की कठिन भक्त बन गया।
अम्मई मउंट कौलाश की यात्रा की ,और उल्टा उस्के सिर पर नीछे चढाई।वहान देवि पार्वती शिव की पत्नी अम्मैयर के बारे मेइन पूछा।
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खटखटे बाबा (1859-1930) एक कश्मीरी संत थे जिनके पास दैवीय शक्तियां होने का आरोप था। कश्मीर में यह माना जाता है कि शिव के एक निवास ने समय के साथ कई पवित्र पुरुषों, संतों, तपस्वियों और संतों को अलौकिक शक्तियों के साथ पैदा किया है। चमत्कार करते हैं, जिनके असंख्य अनुयायी उनकी वंदना करते हैं। ऐसे ही एक उत्कृष्ट संत थे पं. शिव प्रसाद चौधरी, जो संत की उपाधि प्राप्त करने के बाद अपने बहुत बड़ी संख्या में भक्तों के बीच खटखटे बाबा के रूप में लोकप्रिय हुए। इटावा में उनकी समाधि एक तीर्थस्थल है।
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किरपाल सिंह (6 फरवरी 1894 - 21 अगस्त 1974) राधा स्वामी की परंपरा में एक आध्यात्मिक गुरु (सतगुरु) थे। कृपाल सिंह का जन्म पंजाब के सैय्यद कसरान में हुआ था, जो अब पाकिस्तान है। वह अपने शिष्यत्व की अवधि के दौरान लाहौर में रहे और सैन्य खातों के उप नियंत्रक के रूप में नौकरशाही में एक उच्च पद प्राप्त किया।
वह वर्ल्ड फैलोशिप ऑफ़ रिलिजंस के अध्यक्ष थे, जो यूनेस्को द्वारा मान्यता प्राप्त एक संगठन था, जिसमें दुनिया के सभी प्रमुख धर्मों के प्रतिनिधि शामिल थे। 1930 के दशक के अंत में उनके द्वारा लिखित और अपने गुरु के नाम से प्रकाशित गुरमत सिद्धांत के प्रकाशन के साथ, अपने मंत्रालय की अवधि के दौरान उन्होंने कई किताबें और परिपत्र प्रकाशित किए जिनका कई भाषाओं में अनुवाद किया गया था।
सूरत शब्द योग की शिक्षा एक जीवित आध्यात्मिक गुरु के मार्गदर्शन में व्यक्तिगत आध्यात्मिक प्राप्ति का मार्ग है। बुनियादी शिक्षाओं में आंतरिक प्रकाश और आंतरिक ध्वनि की दृष्टि विकसित करने के लिए आंतरिक आंख या तीसरी आंख को खोलना शामिल है। इसे अव्यक्त देवत्व की अभिव्यक्ति में आने की शक्ति माना जाता है और इसे बाइबिल में शब्द कहा जाता है, और अन्य शास्त्रों में नाम, शब्द, ओम, कलमा और अन्य नाम। कृपाल सिंह ने सिखाया कि ईश्वरीय शब्द पर ध्यान का अभ्यास, या ध्वनि प्रवाह का योग (सूरत शब्द योग) सभी धर्मों के आध्यात्मिक आधार पर था।
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थिरुमुरुगा किरुपानंद वरियार (1906-1993) भारत के एक शैव आध्यात्मिक गुरु थे। वह एक मुरुगन भक्त थे जिन्होंने राज्य भर में कई मंदिरों के पुनर्निर्माण और कार्यों को पूरा करने में मदद की। वह विभिन्न शैव कथाओं पर अपने प्रवचनों के लिए जाने जाते हैं।
उस समय प्रमुखता से आना जब तमिलनाडु राज्य में नास्तिक आंदोलन गर्म चल रहा था, उन्होंने राज्य में हिंदू धर्म और आस्तिकता को बनाए रखने और फिर से स्थापित करने में मदद की। उन्होंने एक फिल्म, शिव कवि की पटकथा भी लिखी है। उन्होंने एक को हीन और दूसरे को श्रेष्ठ मानकर खुद को प्रतिबंधित न करते हुए हिंदू धर्म के प्रसार के लिए सभी संभव माध्यमों का इस्तेमाल किया। मुरुगा की दयालुता पर अपने डेट्रायट प्रवचन में, उन्होंने प्रस्ताव दिया कि बच्चे के नाम के पहले के रूप में महिलाओं का नाम भी जोड़ा जाना चाहिए। उन्होंने हमेशा अनुशासन पर जोर दिया कि भक्ति के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है कि एक के बिना दूसरा निष्फल होगा। उन्हें राज्य के लोग 64वां नयनमार मानते हैं।
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स्वामी कृष्णानंद सरस्वती (25 अप्रैल 1922 - 23 नवंबर 2001) शिवानंद सरस्वती के शिष्य थे और 1958 से 2001 तक ऋषिकेश, भारत में डिवाइन लाइफ सोसाइटी के महासचिव के रूप में कार्य किया। 40 से अधिक ग्रंथों के लेखक, और व्यापक रूप से व्याख्यान, योग, धर्म और तत्वमीमांसा, कृष्णानंद एक विपुल धर्मशास्त्री, संत, योगी और दार्शनिक थे।
कृष्णानंद शिवानंद साहित्य अनुसंधान संस्थान और शिवानंद साहित्य प्रसार समिति के अध्यक्ष थे। उन्होंने 20 वर्षों तक डिवाइन लाइफ सोसाइटी के मासिक पत्र, डिवाइन लाइफ के संपादक के रूप में कार्य किया।
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स्वामि लक्ष्मण जू रैना (9 मई 1907 – 27 सितम्बर 1991) कश्मीर शैवदर्शन के महान पण्डित थे। उन्हें उनके अनुयायियों द्वारा लाल साहिब (ईश्वर के दोस्त) के रूप में जाना जाता है जो उन्हें एक साधित संत के रूप में मानते हैं।
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स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती (c.-1926–23 अगस्त 2008) और उनके चार शिष्यों की 23 अगस्त 2008 को भारत के ओडिशा राज्य में हत्या कर दी गई थी। सरस्वती एक हिंदू साधु और विश्व हिंदू परिषद की नेता थीं। मामले में ईसाई धर्म के सात आदिवासी लोगों और एक माओवादी नेता को दोषी ठहराया गया था।
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लल्लेश्वरी या लल्ल-द्यद (1320-1392) के नाम से जाने जानेवाली चौदवहीं सदी की एक भक्त कवियित्री थी जो कश्मीर की शैव भक्ति परम्परा और कश्मीरी भाषा की एक अनमोल कड़ी थीं। लल्ला का जन्म श्रीनगर से दक्षिणपूर्व मे स्थित एक छोटे से गाँव में हुआ था। वैवाहिक जीवन सु:खमय न होने की वजह से लल्ला ने घर त्याग दिया था और छब्बीस साल की उम्र में गुरु सिद्ध श्रीकंठ से दीक्षा ली।
कश्मीरी संस्कृति और कश्मीर के लोगों के धार्मिक और सामाजिक विश्वासों के निर्माण में लल्लेश्वरी का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है।
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महंत स्वामी महाराज (जन्म विनू पटेल, 13 सितंबर 1933; अभिषिक्त केशवजीवनदास स्वामी) वर्तमान गुरु और बोचासनवासी अक्षर पुरुषोत्तम स्वामीनारायण संस्था (बीएपीएस) के अध्यक्ष हैं, जो एक हिंदू संप्रदाय, स्वामीनारायण संप्रदाय की एक प्रमुख शाखा है।: 157 बीएपीएस उनका सम्मान करते हैं। गुणितानंद स्वामी, भगतजी महाराज, शास्त्रीजी महाराज, योगीजी महाराज और प्रमुख स्वामी महाराज के बाद स्वामीनारायण के छठे आध्यात्मिक उत्तराधिकारी के रूप में। अक्षर, भगवान के पूर्ण भक्त।: 46–7 महंत स्वामी महाराज ने 1961 में योगीजी महाराज से एक हिंदू स्वामी के रूप में दीक्षा प्राप्त की। महंत स्वामी महाराज को प्रमुख स्वामी महाराज ने 2012 में अपने भावी आध्यात्मिक और प्रशासनिक उत्तराधिकारी के रूप में प्रकट किया, भूमिकाएँ उन्होंने शुरू कीं अगस्त 2016 में प्रमुख स्वामी महाराज के निधन पर।
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मंगयारकारसियार (तमिल: மங்கையர்க்கரசியார்) उन 63 नयनमारों या पवित्र शैव संतों में से एक थे जो दक्षिण भारत में पूजनीय हैं। वह उन तीन महिलाओं में से एक हैं जिन्होंने यह गौरव हासिल किया है। भगवान शिव के प्रति उनकी भक्ति को सेक्किझर द्वारा संकलित साहित्यिक कविता पेरियापुरानम में और साथ ही कवि-संत सुंदरार द्वारा लिखित तिरुथथोंदर थोगई में वर्णित किया गया है।
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माणिक प्रभु 19वीं शताब्दी के आरम्भिक काल के एक हिन्दू सन्त, कवि और दार्शनिक थे। दत्तात्रेय सम्प्रादाय के लोग उन्हें दत्तात्रेय का अवतार मानते हैं।
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मास्टर कंचुपति वेंकट राव वेंकटसामी राव, जिन्हें मास्टर सी.वी.वी. के नाम से जाना जाता है। (4 अगस्त 1868 - 12 मई 1922) एक भारतीय दार्शनिक, योगी और गुरु थे। मास्टर सीवीवी ने कुछ समय के लिए कुंभकोणम नगर परिषद के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया और बाद में मानव प्रगति और आध्यात्मिक विकास पर अपने दृष्टिकोण का परिचय देते हुए एक आध्यात्मिक सुधारक बन गए।
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मत्स्येंद्रनाथ अथवा मचिन्द्रनाथ 84 महासिद्धों (बौद्ध धर्म के वज्रयान शाखा के योगी) में से एक थे। वो गोरखनाथ के गुरु थे जिनके साथ उन्होंने हठयोग विद्यालय की स्थापना की। उन्हें संस्कृत में हठयोग की प्रारम्भिक रचनाओं में से एक कौलजणाननिर्णय (कौल परंपरा से संबंधित ज्ञान की चर्चा) के लेखक माना जाता है। वो हिन्दू और बौद्ध दोनों ही समुदायों में प्रतिष्ठित हैं। मचिन्द्रनाथ को नाथ प्रथा के संस्थापक भी माना जाता है।मचिन्द्रनाथ को उनके सार्वभौम शिक्षण के लिए "विश्वयोगी" भी कहा जाता है।गोरखनाथ को उनके सबसे सक्षम शिष्यो मे माना जाता है।
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महर्षि मेंही परमहंस संत मत की परंपरा के संत हैं। उन्हें आमतौर पर 'गुरुमहाराज' के नाम से जाना जाता था। वे 'अखिल भारतीय संतमत सत्संग' के गुरु थे। उन्होंने वेदों, मुख्य उपनिषदों, भगवद गीता, बाइबिल, बौद्ध धर्म के विभिन्न सूत्रों, कुरान, संत साहित्य का अध्ययन किया और इससे यह आकलन किया कि इन सभी में निहित आवश्यक शिक्षा एक ही है। उन्होंने 'मोक्ष' पाने का एक और सबसे आसान तरीका बताया। वे 'सत्संग' और 'ध्यान' (ध्यान) हैं। मेही मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश के बाबा देवी साहब की प्रत्यक्ष शिष्या थीं।
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श्री माता (जन्म नाम मिरा अल्फ़ासा) (1878-1973) श्री अरविन्द की शिष्या और सहचरी थी।
श्री माँ फ्रांसीसी मूल की भारतीय आध्यात्मिक गुरु थी। हिंदू धर्म लेने से पहले तक उनका नाम था मीरा अलफासा। उन्हें श्री अरविन्द माता कहकर पुकारा करते थे इसलिये उनके दुसरे अनुयायी भी उन्हें श्रीमाँ कहने लगे। मार्च 29 1914 में श्रीमाँ पण्डीचेरी स्थित आश्रम पर श्री अरविन्द से मिली थीँ और उन्हे भारतीय गुरुकूल का माहौल अछा लगा था। प्रथम विश्वयुद्ध के समय उन्हे पण्डिचेरी छोड़कर जापान जाना पड़ा था। वहाँ उनसे विश्वकवि रविन्द्रनाथ टैगोर से मिले और उन्हे हिन्दू धर्म की सहजता का एहसास हुआ। 24 नवम्बर 1926 में मीरा आलफासा पण्डिचेरी लौट कर श्री अरविन्द की शिष्या बनीं। श्रीमाँ के जीवन की आखरी 30वर्ष का अनुभव एक पुस्तक में लिखा गया है इसका मूल अंग्रेजी नाम है 'दी अजेण्डा '। अरविन्द उन्हे दिव्य जननी का अवतार कहा करते थे। उन्हे ऐसे करने का जब कारण पूछा गया तो उन्होनें इस पर 'दी मदर ' नाम से एक प्रबन्ध लिखा था।
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माँ मीरा, जन्म कमला रेड्डी (जन्म 26 दिसंबर 1960) को उनके भक्तों द्वारा दिव्य माँ (शक्ति या देवी) का अवतार (अवतार) माना जाता है।
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मुक्ताबाई (1279–1297) हिंदू धर्म के वारकरी संप्रदाय की एक प्रमुख संत थी। निवृत्ती नाथ, सोपान नाथ, ज्ञानेश्वर और मुक्ताबाई यह चार भाई बहन वारकरी संप्रदाय के महत्त्वपूर्ण संतों मे से थे।. इनकी लिखी हरिपाठ, ताटीचे अभंग यह मराठी रचना प्रसिद्ध है।
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स्वामी मुक्तानंद परमहंस (16 मई 1908 - 2 अक्टूबर 1982), जन्म कृष्ण राय, एक योग गुरु थे, जो सिद्ध योग के संस्थापक थे। वे भगवान नित्यानंद के शिष्य थे। उन्होंने कुंडलिनी शक्ति, वेदांत और कश्मीर शैववाद के विषयों पर किताबें लिखीं, जिसमें द प्ले ऑफ कॉन्शसनेस नामक एक आध्यात्मिक आत्मकथा भी शामिल है। सम्मानजनक शैली में, उन्हें अक्सर स्वामी मुक्तानन्द, या बाबा मुक्तानन्द, या एक परिचित तरीके से सिर्फ बाबा के रूप में जाना जाता है।
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नामदेव भारत के प्रसिद्ध संत थे। इनके समय में नाथ और महानुभाव पंथों का महाराष्ट्र में प्रचार था।
भक्त नामदेव महाराज का जन्म 26 अकटुबर 1270 (शके 1192) में महाराष्ट्र के सतारा जिले में कृष्णा नदी के किनारे बसे नरसीबामणी नामक गाँव में एक शिंपी जिसे छीपा भी कहते है के परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम दामाशेट और माता का नाम गोणाई देवी था। इनका परिवार भगवान विट्ठल का परम भक्त था। नामदेव का विवाह राधाबाई के साथ हुआ था और इनके पुत्र का नाम नारायण था।
संत नामदेव ने विसोबा खेचर को गुरु के रूप में स्वीकार किया था। ये संत ज्ञानेश्वर के समकालीन थे और उम्र में उनसे 5 साल बड़े थे। संत नामदेव, संत ज्ञानेश्वर के साथ पूरे महाराष्ट्र का भ्रमण किए, भक्ति-गीत रचे और जनता जनार्दन को समता और प्रभु-भक्ति का पाठ पढ़ाया। संत ज्ञानेश्वर के परलोकगमन के बाद इन्होंने पूरे भारत का भ्रमण किया। इन्होंने मराठी के साथ ही साथ हिन्दी में भी रचनाएँ लिखीं। इन्होंने अठारह वर्षो तक पंजाब में भगवन्नाम का प्रचार किया। अभी भी इनकी कुछ रचनाएँ सिक्खों की धार्मिक पुस्तकों में मिलती हैं। मुखबानी नामक पुस्तक में इनकी रचनाएँ संग्रहित हैं। आज भी इनके रचित गीत पूरे महाराष्ट्र में भक्ति और प्रेम के साथ गाए जाते हैं। ये संवत 1407 में समाधि में लीन हो गए।
सन्त नामदेव के समय में नाथ और महानुभाव पंथों का महाराष्ट्र में प्रचार था। नाथ पंथ "अलख निरंजन" की योगपरक साधना का समर्थक तथा बाह्याडंबरों का विरोधी था और महानुभाव पंथ वैदिक कर्मकांड तथा बहुदेवोपासना का विरोधी होते हुए भी मूर्तिपूजा को सर्वथा निषिद्ध नहीं मानता था। इनके अतिरिक्त महाराष्ट्र में पंढरपुर के "विठोबा" की उपासना भी प्रचलित थी। सामान्य जनता प्रतिवर्ष आषाढ़ी और कार्तिकी एकादशी को उनके दर्शनों के लिए पंढरपुर की "वारी" (यात्रा) किया करती थी (यह प्रथा आज भी प्रचलित है), इस प्रकार की वारी (यात्रा) करनेवाले "वारकरी" कहलाते हैं। विट्ठलोपासना का यह "पंथ" "वारकरी" संप्रदाय कहलाता है। नामदेव इसी संप्रदाय के प्रमुख संत माने जाते हैं।
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नृसिंह सरस्वती (1378−1459) एक हिन्दू सन्त एवं गुरु थे। श्री गुरुचरित के अनुसार वे भगवान दत्तात्रेय के दूसरे अवतार हैं। प्रथम अवतार श्रीपाद वल्लभ थे।
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नारायण महाराज (20 मई 1885 - 3 सितंबर 1945) एक हिंदू भारतीय आध्यात्मिक गुरु थे, जिन्हें उनके अनुयायी सद्गुरु मानते थे। वह भारतीय शहर पुणे के पूर्व में केडगाँव गाँव में रहते थे।
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नारायण गुरु भारत के महान संत एवं समाजसुधारक थे। कन्याकुमारी जिले में मारुतवन पर्वतों की एक गुफा में उन्होंने तपस्या की थी। गौतम बुद्ध को गया में पीपल के पेड़ के नीचे बोधि की प्राप्ति हुई थी। नारायण गुरु को उस परम की प्राप्ति गुफा में हुई।
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नारायणप्रसादजी स्वामी
तपोमूर्ति सद्गुरु शास्त्री स्वामी श्री नारायणप्रसादजी (जन्म गिरधर राददिया; शास्त्री स्वामी नारायणप्रसादजी, 14 जनवरी, 1921 - 30 जनवरी, 2018), जिन्हें उनके भक्तों द्वारा तपोमूर्ति शास्त्री स्वामी और गुरुजी के नाम से भी जाना जाता है, स्वामीनारायण संप्रदाय के सबसे प्रसिद्ध स्वामी में से एक थे। जिन्होंने स्वामीनारायण संप्रदाय के लिए उल्लेखनीय कार्य किया है। उन्हें भारत के प्रसिद्ध हिंदू संतों में से एक माना जाता है।
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नरोत्तमदास ठाकुर (सं. 1585 की माघ पूर्णिमा -- सं. 1668 की कार्तिक कृष्ण 4) भक्त कवि तथा संगीतज्ञ थे। उन्होने ओड़ीसा तथा बंगाल में गौडीय भक्ति का प्रसार किया।
नरोत्तमदास ठाकुर, राजा कृष्णनन्ददत्त के पुत्र थे। इनका जन्मस्थान परगना गोपालपुरा था जो वर्तमान समय में बांग्लादेश के राजशाही जिला के अंतर्गत आता है। माता का नाम नारायणीदेवी था। ये कायस्थ जाति के थे तथा पद्मा नदी के तटस्थ खेतुरी इनकी राजधानी थी। इनका जन्म सं. 1585 की माघ पूर्णिमा को हुआ था। यह जन्म से ही विरक्त स्वभाव के थे। 12 वर्ष की अवस्था ही में इन्हें स्वप्न में श्री नित्यानन्द के दर्शन हुए और उसी प्रेरणानुसार यह पद्मा नदी में स्नानार्थ गए। यहीं इन्हें भगवत्प्रेम की प्राप्ति हुई। पिता की मृत्यु पर यह अपने चचेरे भाई संतोषदत्त को सब राज्य सौंपकर कार्तिक पूर्णिमा को वृन्दावन चल दिए। यह वृंदावन में श्री जीव गोस्वामी के यहाँ बहुत वर्षों तक भक्तिशास्त्र का अध्ययन करते रहे। यहीं इन्होंने श्री लोकनाथ गोस्वामी से श्रावणी पूर्णिमा को दीक्षा ली और उनके एकमात्र शिष्य हुए। सं. 1639 में श्रीनिवासाचार्य तथा श्यामानंद जी के साथ ग्रंथराशि लेकर यह भी बंगाल लौटे। विष्णुपुर में ग्रंथों के चोरी जाने पर यह खेतुरी चले आए। यहाँ से एक कोस पर इन्होंने एक आश्रम खोला, जिसका नाम 'भजनटूली' था। इसमें श्री गौरांग तथा श्रीकृष्ण के छह श्रीविग्रह प्रतिष्ठापित कर सं. 1640 में महामहोत्सव किया। इन्होंने संकीर्तन की नई प्रणाली निकाली तथा "गरानहाटी" नामक सुर का प्रवर्तन किय। यह भक्त सुकवि तथा संगीतज्ञ थे। 'प्रार्थना', 'प्रेमभक्ति चंद्रिका' आदि इनकी रचनाएँ हैं।
इनका शरीरपात सं. 1668 की कार्तिक कृ. 4 को हुआ और इनका भस्म वृंदावन लाया गया, जहाँ इनके गुरु लोकनाथ गोस्वामी की समाधि के पास इनकी भी समाधि बनी। इनके तथा इनके शिष्यों के प्रयत्न से उत्तर बंग में गौड़ीय मत का विशेष प्रचार हुआ।
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नरसी मेहता (गुजराती: નરસિંહ મહેતા; 15वीं शती ई.) गुजराती भक्तिसाहित्य की श्रेष्ठतम विभूति थे। उनके कृतित्व और व्यक्तित्व की महत्ता के अनुरूप साहित्य के इतिहासग्रंथों में "नरसिंह-मीरा-युग" नाम से एक स्वतंत्र काव्यकाल का निर्धारण किया गया है जिसकी मुख्य विशेषता भावप्रवण कृष्णभक्ति से अनुप्रेरित पदों का निर्माण है। पदप्रणेता के रूप में गुजराती साहित्य में नरसी का लगभग वही स्थान है जो हिंदी में सूरदास का। वैष्णव जन तो तैणे कहिए जे पीड पराई जाणे रे' पंक्ति से आरंभ होनेवाला सुविख्यात पद नरसी मेहता का ही है। नरसी ने इसमें वैष्णव धर्म के सारतत्वों का संकलन करके अपनी अंतर्दृष्टि एवं सहज मानवीयता का परिचय दिया है। नरसी की इस उदार वैष्णव भक्ति का प्रभाव गुजरात में आज तक लक्षित होता है।
पुष्टिमार्ग में नरसी को "वधेयो" माना जाता है पर नरसी किसी संप्रदाय से संबद्ध प्रतीत नहीं होते। उनकी भक्ति भागवताश्रित थी। अन्यान्य लीलाओं की अपेक्षा कृष्ण की रासलीला नरसी का विशेष प्रिय थी और भावात्मक तादात्म्य की स्थित में उन्होंने अपने को "दीवटियो" या दीपवाहक बनकर रास में भाग लेते हुए वर्णित किया है। वे गुजरात के सर्वाधिक लोकप्रि वैष्णव कवि हैं तथा लोककल्पना में उनके जीवन से संबद्ध किंवदंतियों एवं चमत्कारिक घटनाओं के प्रति सहज विश्वासभावना मिलती है।
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नायकनहट्टी थिप्पेरुद्र स्वामी
नायकनहट्टी थिप्पेरुद्र स्वामी, (सी. 15वीं या 16वीं शताब्दी), जिन्हें तिप्पेस्वामी, थिप्पेस्वामी या थिप्पेस्वामी भी कहा जाता है, एक भारतीय हिंदू आध्यात्मिक गुरु और समाज सुधारक थे। वह अपने हिंदू और मुस्लिम दोनों भक्तों द्वारा पूजनीय हैं।
उन्होंने उपदेश दिया कि कयाकवे कैलाश (कर्म ही पूजा है) और मादिदष्टु नीदु भिक्शे (आपका पुरस्कार आपके कार्य के अनुसार होगा)।
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नयनार (या नयनमार; तमिल: நாயன்மார், रोमानीकृत: नयमार, लिट. 'हाउंड्स ऑफ शिव', और बाद में 'शिव के शिक्षक) छठी से आठवीं शताब्दी सीई के दौरान रहने वाले 63 तमिल हिंदू संतों का एक समूह था, जो हिंदू भगवान शिव। अलवारों के साथ, उनके समकालीन जो विष्णु के प्रति समर्पित थे, उन्होंने प्रारंभिक मध्यकालीन दक्षिण भारत में भक्ति आंदोलन को प्रभावित किया। नयनारों के नाम सर्वप्रथम सुंदरार द्वारा संकलित किए गए थे। तिरुमुरई संग्रह के लिए कवियों द्वारा सामग्री के संकलन के दौरान नंबियंदर नंबी द्वारा सूची का विस्तार किया गया था, और इसमें सुंदरार स्वयं और सुंदरार के माता-पिता शामिल होंगे। माणिक्कवासगर।
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नीम करौली बाबा या नीब करौरी बाबा या महाराजजी की गणना बीसवीं शताब्दी के सबसे महान संतों में होती है।[कृपया उद्धरण जोड़ें]इनका जन्म स्थान ग्राम अकबरपुर जिला फ़िरोज़ाबाद उत्तर प्रदेश है जो किहिरनगाँव से 500 मीटर दूरी पर है।[कृपया उद्धरण जोड़ें]कैंची, नैनीताल, भुवाली से 7 कि॰मी॰ की दूरी पर भुवालीगाड के बायीं ओर स्थित है। कैंची मन्दिर में प्रतिवर्ष 15 जून को वार्षिक समारोह मानाया जाता है। उस दिन यहाँ बाबा के भक्तों की विशाल भीड़ लगी रहती है। महाराजजी इस युग के भारतीय दिव्यपुरुषों में से हैं। श्री नीम करोली बाबा को हम महाराज जी कहते है|ऐसा माना जाता है कि जब तक महाराजजी 17 वर्ष के थे| तब वह सबकुछ जानते थे| जो आज के युग मे समझ मे नहीं आ सकता| उनको इतनी छोटी सी आयु मे सारा ज्ञान था| भगवान के बारे में संपूर्ण ज्ञान था| बताते है , भगवान श्री हनुमान उनके गुरु है| उन्होंने भारत में कई स्थानों का दौरा किया और विभिन्न राज्यों में अलग-अलग नामों से जाने जाते थे। गंजम में मां तारा तारिणी शक्ति पीठ की यात्रा के दौरान स्थानीय लोगों ने उन्हें हनुमानजी, चमत्कारी बाबा के नाम से संबोधित किया करते थे। आज भी बाबाकी दिव्य कृपा और चमत्कारों को लोग याद करते हैं।
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निम्बार्काचार्य (संस्कृत: निम्बार्काचार्य, रोमानीकृत: निम्बार्काचार्य) (सी। 1130 - सी। 1200), जिन्हें निम्बार्क, निम्बादित्य या नियमानंद के नाम से भी जाना जाता है, एक हिंदू दार्शनिक, धर्मशास्त्री और द्वैतद्वैत (द्वैत-अद्वैत) के धर्मशास्त्र के प्रमुख प्रस्तावक थे। द्वैतवादी–अद्वैतवादी। उन्होंने दिव्य युगल राधा और कृष्ण की पूजा को फैलाने में एक प्रमुख भूमिका निभाई, और निम्बार्क संप्रदाय की स्थापना की, जो हिंदू संप्रदाय वैष्णववाद की चार मुख्य परंपराओं में से एक है। माना जाता है कि निम्बार्क 11वीं और 12वीं शताब्दी के आसपास रहते थे, लेकिन यह डेटिंग रही है पूछताछ की, यह सुझाव देते हुए कि वह छठी या सातवीं शताब्दी सीई में शंकराचार्य से कुछ पहले रहते थे। दक्षिण भारत में एक तेलुगु ब्राह्मण परिवार में जन्मे, उन्होंने अपना अधिकांश जीवन मथुरा, उत्तर प्रदेश में बिताया। उन्हें कभी-कभी भास्कर नाम के एक अन्य दार्शनिक के साथ पहचाना जाता है, लेकिन दो संतों के आध्यात्मिक विचारों के बीच अंतर के कारण इसे एक गलत धारणा माना जाता है।
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निरंजनानंद (वरिष्ठ), नित्य निरंजन घोष के रूप में पैदा हुए, जिन्हें आमतौर पर निरंजन के संक्षिप्त नाम से पुकारा जाता है, रामकृष्ण मिशन के प्रमुख भिक्षुओं में से एक थे और रामकृष्ण के प्रत्यक्ष मठवासी शिष्यों में से एक थे। निरंजनानंद उन कुछ शिष्यों में से एक थे, जिन्हें रामकृष्ण ने "नित्यसिद्ध" या "ईश्वरकोटि" कहा - अर्थात, आत्माएं जो हमेशा परिपूर्ण होती हैं।
[निरंजनानंद को वरिष्ठ कहा जाता है क्योंकि एक और स्वामी थे, निरंजनानंद (जूनियर) जिन्हें बाद में रामकृष्ण मिशन में पंडलाई महाराज के नाम से भी जाना जाता था, जिनकी मृत्यु 1972 में हुई थी]।
भले ही नवगठित रामकृष्ण मिशन के साथ उनका कार्यकाल उनकी प्रारंभिक मृत्यु के कारण अल्पकालिक था, लेकिन उन्होंने आध्यात्मिक और परोपकारी गतिविधियों में एक अमिट छाप छोड़ी। उनका राजसी रूप था, चौड़े कंधे और मजबूत काया के साथ लंबा।
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निर्मला श्रीवास्तव (21 मार्च 1923 – 23 फ़रवरी 2011), (विवाह पूर्व: निर्मला साल्वे), जिन्हें अधिकतर लोग श्री माताजी निर्मला देवी के नाम से जानते हैं, सहज योग, नामक एक नये धार्मिक आंदोलन की संस्थापक थीं। उनके स्वयं के बारे में दिये गये इस वकतव्य कि वो, आदि शक्ति का पूर्ण अवतार थीं, को 140 देशों में बसे उनके अनुयायी, मान्यता प्रदान करते हैं।
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निसर्गदत्त महाराज (अप्रैल 17, 1897- सितम्बर 8, 1981) शैव अद्वैत धारा से सम्बंधित इंचगिरी संप्रदाय (नवनाथ एवं लिंगायत परम्परा) के एक भारतीय गुरु थे. उनके प्रवचनों पर आधारित पुस्तक आई ऍम दैट (I Am That ) से भारत से बाहर विशेषतया पश्चिमी देशों में लोगों को उनके बारे में पता चला.
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नित्यानंद प्रभु (जन्म:1474) चैतन्य महाप्रभु के प्रथम शिष्य थे। इन्हें निताई भी कहते हैं। इन्हीं के साथ अद्वैताचार्य महाराज भी महाप्रभु के आरंभिक शिष्यों में से एक थे। इन दोनों ने निमाई के भक्ति आंदोलन को तीव्र गति प्रदान की। निमाई ने अपने इन दोनों शिष्यों के सहयोग से ढोलक, मृदंग, झाँझ, मंजीरे आदि वाद्य यंत्र बजाकर व उच्च स्वर में नाच-गाकर हरि नाम संकीर्तन करना प्रारंभ किया।
नित्यानन्द जी का जन्म एक धार्मिक बंध्यगति (ब्राह्मण), मुकुंद पंडित और उनकी पत्नी पद्मावती के यहां 1474 के लगभग वर्तमान पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के एकचक्र या चाका नामक छोटे से ग्राम में हुआ था। इनके माता-पिता, वसुदेव रोहिणी के तथा नित्यानंद बलराम के अवतार माने जाते हैं। बाल्यकाल में यह अन्य बालकों को लेकर कृष्णलीला तथा रामलीला किया करते थे और स्वयं सब बालकों को कुल भूमिका बतलाते थे। इससे सभा को आश्चर्य होता था कि इस बालक ने यह सारी कथा कैसे जानी। विद्याध्ययन में भी यह अति तीव्र थे और इन्हें 'न्यायचूड़ामणि' की पदवी मिली।
यह जन्म से ही विरक्त थे। जब ये 12 वर्ष के ही थे माध्व संप्रदाय के एक आचार्य लक्ष्मीपति इनके गृह पर पधारे तथा इनके माता पिता से इस बालक का माँगकर अपने साथ लिवा गए। मार्ग में उक्त संन्यासी ने इन्हें दीक्षा मंत्र दिया और इन्हें सारे देश में यात्रा करने का आदेश देकर स्वयं अंतर्हित हो गए। नित्यानंद ने कृष्णकीर्तन करते हुए 20 वर्षों तक समग्र भारत की यात्राएँ कीं तथा वृंदावन पहुँचकर वहीं रहने लगे। जब श्रीगौरांग का नवद्वीप में प्रकाश हुआ, यह भी संवत् 1565 में नवद्वीप चले आए। यहाँ नित्यानंद तथा श्री गौरांग दोनों नृत्य कीर्तन कर भक्ति का प्रचार करने लगे। गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के अनुसार पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु परब्रह्म परमात्मा है तथा श्री नित्यानंद प्रभु अनादि मूल गुरुतत्व ,अक्षर,ब्रह्म है । नित्यानन्द प्रभु के विषय मे श्री चैतन्य महाप्रभु कहा करते थे कि 'ये नित्यानंद हमारे सबसे उत्तम भक्त हैं। श्री नित्यानंद प्रभु हमसे अभिन्न है। एक समय चैतन्य महाप्रभु ने रूप गोस्वामी से कहा था कि नित्यानंद के बिना हमारी कृपा प्राप्त करना असंभव है मैं पूर्णतः श्री नित्यानंद के अधीन हु। नित्यानंद प्रभु की महिमा जानकर वीरभद्र गोस्वामी ने उनको श्री चैतन्य महाप्रभु के सर्वोच्च भक्त तथा श्री चैतन्य महाप्रभु नित्यानंद प्रभु द्वारा प्रकट है ऐसा प्रतिपादन किया था। श्री नित्यानंद प्रभु ने सब भक्तो को संबोधित करते हुए कहा था कि श्री चैतन्य महाप्रभु ने नवद्वीप धाम की धुरा उनके ऊपर सोपि है। क्योंकि नित्यानंद प्रभु का ह्रदय श्री चैतन्य महाप्रभु का रहने का धाम है। जब सब भक्त संकीर्तन के लिए एकत्रित हुए थे तब चैतन्य महाप्रभु ने कहा था ये अवधूत नित्यानंद हमारे रहने का धाम हैं।
श्रीनित्यानंदप्रभु ही मूलब्रह्मगुरुतत्व है*श्रीमहाप्रभु जी के शब्दों में-
मेरे तो प्रत्यक्ष पूर्ण पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण हु। ये नित्यानंद मेरे रहना का धाम, अक्षरब्रह्म रूप,सभी पार्षदों के आश्रय स्थान है और इनको हम साथ लेकर आये है।हमारे सर्वोच्च रस उपासना का सिद्धांत प्रचार करने के लिए इनको हम साथ लाये है।
ये तो हमारे रहने का धाम है।सब देवी देवताओं सहित अनन्य भक्त के आश्रय है।
ये अवधूत तो हमारा सर्वस्व है। हम दोनों अभिन्न है।
श्री नित्यानंद प्रभु हमारे उत्तम भक्त है । वही सभी जीवो के लिए गुरुतत्व है। यही अनादि मूल अक्षर ब्रह्म है।हम उनसे पृथक नहिए। ये तो हमारे रहने का धाम है।
जहा नित्यानंद है वहा हम है।जहाँ हम है वहीं नित्यानंद है।उनको हमसे अलग। कोई नही कर सकता।
हे रूप आप नित्यानंद प्रभु के पास जाओ वो हमारे रहने का धाम है।वह अनादि मूल गुरुतत्व है ।
ये निताई हमारे सबसे प्रिय है।इनके समान कोई भक्त नही और मेरे समान कोई भगवान नही।
मैं तो नित्यानंद प्रभु के आधीन हु।
नित्यानंद प्रभु की महानता तो देव भी नही जान सकते।इतने ये महान है। हम जैसा बस नित्यानंद है दूसरा कोई नही। मेरे प्रिय नित्यानंद मैं तुमसे सबसे अधिक स्नेह करता हु
ऐसे वचन स्वयं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु ने श्री नित्यानंद प्रभु की महिमा का गान करते हुए अपने निजी पार्षदों से कहे है ।
इनका नृत्य कीर्तन देखकर जनता मुग्ध हो जाती तथा 'जै निताई-गौर' कहती। नित्यानन्द के सन्यास ग्रहण करने का उल्लेख कहीं नहीं मिलता पर यह जो दंड कमंडलु यात्राओं में साथ रखते थे उसे यही कहकर तोड़ फेंका कि हम अब पूर्णकाम हो गए। यह वैष्णव संन्यासी थे। नवद्वीप में ही इन्होंने दो दुष्ट ब्राह्मणों जगाई-मधाई का उद्धार किया, जो वहाँ के अत्याचारी कोतवाल थे। जब श्री गौरांग ने सन्यास ले लिया वह उनके साथ शांतिपुर होते जगन्नाथ जी गए। कुछ दिनों बाद श्री गौरांग ने इन्हें गृहस्थ धर्म पालन करने तथा बंगाल में कृष्णभक्ति का प्रचार करने का आदेश दिया। यह गौड़ देश लौट आए। अंबिका नगर के सूर्यनाथ पंडित की दो पुत्रियों वसुधा देवी तथा जाह्नवी देवी से इन्होंने विवाह किया। इसके अनंतर खंडदह ग्राम में आकर बस गए और श्री श्यामसुंदर की सेवा स्थापित की। श्री गौरांग के अप्रकट होने के पश्चात् वसुधा देवी से एक पुत्र वीरचंद्र हुए जो बड़े प्रभावशाली हुए। संवत् 1599 में नित्यानंद का तिरोधान हुआ औैर उनकी पत्नी जाह्नवी देवी तथा वीरचंद्र प्रभु ने बंगाल के वैष्णवों का नेतृत्व ग्रहण किया।
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ओम स्वामी एक भिक्षु एवं 15 पुस्तकों के लेखक है, जिनमे कुंडलिनी: एन अनटोल्ड स्टोरी, अ मिलियन थॉट, द वेलनेस सेंस,व्हेन आल इस नोट वेल और इफ ट्रूथ बी टोल्ड जैसे बेस्ट-सेलर पुस्तकें सम्मिलित है।
इफ ट्रूथ बी टोल्ड, उनकी स्व-लिखित संस्मरण है, जो हार्पर कॉलिन्स द्वारा दिसंबर 2014 में प्रकाशित किया गया था। यह पुस्तक को फाइनेंशियल एक्स्प्रेस की रिपोर्ट के अनुसार देश की शीर्ष 10 नॉन फिक्शनल किताबों की सूची में 6 वें स्थान पर रखा गया था।
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पंत महाराज (3 सितंबर 1855 - 16 अक्टूबर 1905), जन्म दत्तात्रेय रामचंद्र कुलकर्णी, भारत के बेलगावी क्षेत्र में एक हिंदू योगी और गुरु थे और उनके भक्त संत और दत्तात्रेय के अवतार के रूप में माने जाते हैं।
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पार्थसारथी राजगोपालाचारी
श्री पार्थसारथी राजगोपालाचारी (24 जुलाई 1927 - 20 दिसंबर 2014) जिन्हें चारीजी के नाम से जाना जाता है, श्री राम चंद्र मिशन (SRCM) की सहज मार्ग प्रणाली में राजयोग मास्टर्स की पंक्ति में तीसरे थे।
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पवहारी बाबा उन्नीसवीं शताब्दी के एक भारतीय तपस्वी और संत थे। विवेकानंद के अनुसार वे अद्भुत विनय-संपन्न एवं गंभीर आत्म-ज्ञानी थे। उनका जन्म लगभग 1800 ई• में वाराणसी के निकट एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बचपन में वह गाजीपुर के समीप अपने संत, ब्रह्मचारी चाचा के आश्रम विद्याध्ययन के लिए आ गए थे। अपनी पढ़ाई समाप्त करने के बाद उन्होंने भारतीय तीर्थस्थलों की यात्रा की। काठियावाड़ के गिरनार पर्वत में वे योग के रहस्यों से दीक्षित हुए।
अमेरिका आने के ठीक पहले स्वामी विवेकानंद गाजीपुर पवहारी बाबा का दर्शन करने गए थे।
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पुतुल्य वीरब्रह्मणंद स्वामी (तेलुगु:పోతులూరి వీరబ్రహ్మేంద్ర స్వామి) एक हिंदू ऋषि और दैवज्ञ थे। उन्हें भविष्य के बारे में भविष्यवाणियों की पुस्तक, कलौना के लेखक माना जाता है। उनके भविष्यद्वाणी के ग्रंथों को गोविंदा वक्य के नाम से भी जाना जाता है। उन्होंने जीविका बोध भी लिखा।
वीरब्रह्मचंद्र की जन्मतिथि और जीवनकाल अज्ञात है। संघर्षपूर्ण सिद्धांतों का मानना है कि उनका जन्म या तो नौवीं शताब्दी में हुआ था (नौवीं शताब्दी के दौरान राजवंशों के पतन के बारे में कलौना में लिखित भविष्यवाणियों को समायोजित करने के लिए) या सत्रहवीं शताब्दी में।
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प्रभात रंजन सरकार (21 मई 1921 - 21 अक्टूबर 1990) एक आध्यात्मिक गुरु, आधुनिक लेखक, भारतीय दार्शनिक, सामाजिक विचारक, योगी, लेखक, पंथ-नेता, कवि, संगीतकार और भाषाविद थे। सरकार को उनके आध्यात्मिक नाम- श्री श्री आनnदमूर्ति से भी जाना जाता है। उनके शिष्य उन्हें 'बाबा' ("पिता") भी कहते हैं। 1955 में सरकार ने एक आध्यात्मिक और सामाजिक संगठन आनंद मार्ग (आनंद का मार्ग) की स्थापना की, जो ध्यान और योग में शिक्षा प्रदान करता है। भारत के सातवें राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने सरकार के बारे में कहा है: "प्रभात रंजन सरकार भारत के महान आधुनिक दार्शनिकों में से एक थे।"सरकार की साधना पद्धति को वैदिक और तांत्रिक दर्शन का व्यावहारिक संश्लेषण कहा गया है। उन्होंने भौतिकवाद और पूंजीवाद की निंदा की और उन्होंने माना कि ब्रह्मांड की रचना मैक्रोस्कोपिक कोनेशन के परिणामस्वरूप हुई - संपूर्ण ब्रह्मांड 'कॉस्मिक माइंड' के भीतर मौजूद है, जो स्वयं अपनी प्रकृति के बंधन के तहत आने वाली चेतना की पहली अभिव्यक्ति है।
सरकार एक उर्वर लेखक थे और उन्होंने व्यापक स्तर पर सृजन किया। उनके द्वारा सृजित सिद्धांत- सामाजिक चक्र का सिद्धांत, प्रगतिशील उपयोग सिद्धांत, माइक्रोविटम सिद्धांत, नव-मानवतावाद का सिद्धांत आदि मानव के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
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प्रमुख स्वामी महाराज (7 दिसंबर 1921 - 13 अगस्त 2016) हिन्दु धर्म के एक महान संत थे। उनका मूल नाम शान्तिलाल पटेल था। वे 'नारायणस्वरूपदास स्वामी' नाम से दीक्षित हुए थे। वे बोचसन्यासी अक्षर पुरुषोत्तम स्वामिनारायण संस्था के प्रमुख (अध्यक्ष) थे।
उन्होंने 1940 में BAPS के संस्थापक शास्त्रीजी महाराज से एक हिंदू स्वामी के रूप में दीक्षा प्राप्त की, जिन्होंने बाद में उन्हें 1950 में BAPS के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया। योगीजी महाराज ने प्रमुख स्वामी महाराज को अपना आध्यात्मिक उत्तराधिकारी और BAPS का गुरु घोषित किया, जिसकी भूमिका उन्होंने शुरू की। 1971
BAPS के अध्यक्ष के रूप में, उन्होंने गुजरात, भारत में केंद्रित एक संगठन से BAPS के विकास की देखरेख की, जो दुनिया भर में फैला हुआ है,भारत के बाहर कई हिंदू मंदिरों और केंद्रों को बनाए रखता है।
उन्होंने नई दिल्ली और गांधीनगर, गुजरात में स्वामीनारायण अक्षरधाम मंदिरों सहित 1,100 से अधिक हिंदू मंदिरों का निर्माण किया। [2]
उन्होंने BAPS चैरिटीज के प्रयासों का भी नेतृत्व किया था, जो BAPS से संबद्ध धर्मार्थ सेवा संगठन है। उन्हें महंत स्वामी महाराज द्वारा BAPS स्वामीनारायण संस्था के गुरु और अध्यक्ष के रूप में उत्तराधिकारी बनाया गया था।
शांतिलाल का जन्म 7 दिसंबर 1921 को गुजरात के चंसद गाँव में हुआ था। उनके माता-पिता, मोतीभाई और दीवालीबेन पटेल, शास्त्रीजी महाराज के शिष्य और अक्षर पुरुषोत्तम मत के अनुयायी थे। [4] मोतीभाई और दीवालीबेन दोनों स्वामीनारायण फेलोशिप में शामिल थे; स्वामीनारायण फेलोशिप के साथ दीवालीबेन के परिवार का जुड़ाव भगतजी महाराज के समय तक बढ़ा। [5]: 2 शास्त्रीजी महाराज ने युवा शांतिलाल को जन्म के समय आशीर्वाद दिया था, और उनके पिता से कहा था, "यह बच्चा हमारा है; जब समय परिपक्व हो, तो कृपया इसे दें हमारे लिए। वह हजारों लोगों को भगवान की भक्ति की ओर ले जाएगा। उसके माध्यम से हजारों लोगों को मुक्ति मिलेगी।" [5]: 11
शांतिलाल की माँ ने उन्हें एक शांत और मृदुभाषी, फिर भी ऊर्जावान और सक्रिय बच्चे के रूप में वर्णित किया। [5]: 9 उनके बचपन के दोस्त याद करते हैं कि शांतिलाल ने शहर और स्कूल में एक ईमानदार, विश्वसनीय, परिपक्व और दयालु लड़के के रूप में प्रतिष्ठा विकसित की। [5]: 10 यहां तक कि एक बच्चे के रूप में, उनके पास एक असामान्य सहानुभूति थी, जिसने दूसरों को बड़े और छोटे मामलों में उनकी राय और निर्णयों की तलाश करने और उन पर भरोसा करने के लिए प्रेरित किया। [6] शांतिलाल का पालन-पोषण एक साधारण घर के माहौल में हुआ, क्योंकि उनका परिवार मामूली साधनों का था। हालाँकि उन्होंने अपनी पढ़ाई में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया, लेकिन स्वामी बनने से पहले सत्रह वर्षों में उन्होंने घर पर बिताया, शांतिलाल को केवल छह साल के लिए स्कूल जाने का अवसर मिला। जैसे-जैसे वे बड़े होते गए, शांतिलाल परिवार के खेत में काम करके अपने परिवार की मदद करते थे।
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प्रणवानंद सरस्वती (स्वामी प्रणवानंद; 28 अगस्त 1908 - 28 अगस्त 1982) जिन्हें पहले एन. पोन्नैया के नाम से जाना जाता था, मलेशिया में डिवाइन लाइफ सोसाइटी के संस्थापक सदस्य थे।
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प्रेम रावत (जन्म;10 दिसम्बर 1957,हरिद्वार,उत्तर प्रदेश) एक विश्वविख्यात अध्यात्मिक गुरु है। जन्म 10 दिसम्बर 1957 में भारत के अध्यात्मिक नगर हरिद्वार में हुआ था। प्रख्यात अधय्त्मिक गुरु हंस जी महाराज इनके पिता थे। ये एक विशेष रूप से ध्यान लगाने वाला अभ्यास, ज्ञान देते हैं। ये वैयक्तिक संसाधन की खोज जैसे अंदरूनी शक्ति,चुनाव , अभिमूल्यन आदि पर आधारित शांति की शिक्षा देते हैं।
रावत, हंस जी महाराज, जो की एक प्रसिद्ध भारतीय आध्यात्मिक गुरु थे, के सबसे युवा पुत्र हैं। ये दिव्य सन्देश परिषद् के संस्थापक हैं जिसे की बाद में डीवाइन लाइट मिशन या डी.अल.ऍम.के नाम से जाना गया। इनके पिता के स्वर्गवास के बाद 8 वर्ष की उम्र के रावत सतगुरु (सच्चा गुरु) बन गए। 13 वर्ष की उम्र में रावत ने पश्चिम की यात्रा की और उसके बाद यूनाइटेड स्टेट्स में ही घर ले लिया। कई नवयुवको ने इस दावे पर रूचि दिखाई की रावत ईश्वर का ज्ञान सीधे ही खुद के अनुयाइयों को दे सकतें हैं।
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पूरन पुरी (हिंदी: पूर्ण पुरी, वैकल्पिक वर्तनी पुराण पुरी या प्रौण पुरी) 18वीं सदी के एक सन्यासी भिक्षु और भारत के यात्री थे, जिन्होंने मध्य भारत से श्रीलंका, मलेशिया, मध्य पूर्व, मास्को और तिब्बत की यात्रा की। वह एक खत्री या राजपूत थे, जिनका जन्म 1742 ई. में कन्नौज शहर में हुआ था, जो अब भारत में उत्तर प्रदेश का आधुनिक राज्य है।
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जगद्गुरु रामभद्राचार्य (संस्कृत: जगद्गुरुरामभद्राचार्यः) (1950–), पूर्वाश्रम नाम गिरिधर मिश्र चित्रकूट (उत्तर प्रदेश, भारत) में रहने वाले एक प्रख्यात विद्वान्, शिक्षाविद्, बहुभाषाविद्, रचनाकार, प्रवचनकार, दार्शनिक और हिन्दू धर्मगुरु हैं। वे रामानन्द सम्प्रदाय के वर्तमान चार जगद्गुरु रामानन्दाचार्यों में से एक हैं और इस पद पर 1988 ई से प्रतिष्ठित हैं। वे चित्रकूट में स्थित संत तुलसीदास के नाम पर स्थापित तुलसी पीठ नामक धार्मिक और सामाजिक सेवा संस्थान के संस्थापक और अध्यक्ष हैं। वे चित्रकूट स्थित जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय के संस्थापक और आजीवन कुलाधिपति हैं। यह विश्वविद्यालय केवल चतुर्विध विकलांग विद्यार्थियों को स्नातक तथा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम और डिग्री प्रदान करता है। जगद्गुरु रामभद्राचार्य दो मास की आयु में नेत्र की ज्योति से रहित हो गए थे और तभी से प्रज्ञाचक्षु हैं।अध्ययन या रचना के लिए उन्होंने कभी भी ब्रेल लिपि का प्रयोग नहीं किया है। वे बहुभाषाविद् हैं और 22 भाषाएँ बोलते हैं। वे संस्कृत, हिन्दी, अवधी, मैथिली सहित कई भाषाओं में आशुकवि और रचनाकार हैं। उन्होंने 80 से अधिक पुस्तकों और ग्रंथों की रचना की है, जिनमें चार महाकाव्य (दो संस्कृत और दो हिन्दी में), रामचरितमानस पर हिन्दी टीका, अष्टाध्यायी पर काव्यात्मक संस्कृत टीका और प्रस्थानत्रयी (ब्रह्मसूत्र, भगवद्गीता और प्रधान उपनिषदों) पर संस्कृत भाष्य सम्मिलित हैं। उन्हें तुलसीदास पर भारत के सर्वश्रेष्ठ विशेषज्ञों में गिना जाता है, और वे रामचरितमानस की एक प्रामाणिक प्रति के सम्पादक हैं, जिसका प्रकाशन तुलसी पीठ द्वारा किया गया है। स्वामी रामभद्राचार्य रामायण और भागवत के प्रसिद्ध कथाकार हैं – भारत के भिन्न-भिन्न नगरों में और विदेशों में भी नियमित रूप से उनकी कथा आयोजित होती रहती है और कथा के कार्यक्रम संस्कार टीवी, सनातन टीवी इत्यादि चैनलों पर प्रसारित भी होते हैं।2015 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मविभूषण से सम्मानित किया।
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रामदेव जी (बाबा रामदेव, रामसा पीर, रामदेव पीर,पीरो के पीर) राजस्थान के एक लोक देवता हैं जिनकी पूजा सम्पूर्ण राजस्थान व गुजरात समेत कई भारतीय राज्यों में की जाती है। इनके समाधि-स्थल रामदेवरा (जैसलमेर) पर भाद्रपद माह शुक्ल पक्ष द्वितीया सेे दसमी तक भव्य मेला लगता है, जहाँ पर देश भर से लाखों श्रद्धालु पहुँचते है।
वे चौदहवीं सदी के एक शासक थे, जिनके पास मान्यतानुसार चमत्कारी शक्तियां थीं। उन्होंने अपना सारा जीवन गरीबों तथा दलितों के उत्थान के लिए समर्पित किया। भारत में कई समाज उन्हें अपने इष्टदेव के रूप में पूजते हैं।
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राधानाथ स्वामी (आईएएसटी: राधानाथ स्वामी) (जन्म 7 दिसंबर 1950) एक अमेरिकी गौड़ीय वैष्णव गुरु, समुदाय-निर्माता, कार्यकर्ता और लेखक हैं। वह 40 से अधिक वर्षों से भक्ति योग व्यवसायी और आध्यात्मिक शिक्षक हैं। वह भारत भर में 1.2 मिलियन स्कूली बच्चों के लिए इस्कॉन के मुफ्त मध्याह्न भोजन के पीछे प्रेरणा हैं, और उन्होंने मुंबई में भक्तिवेदांत अस्पताल की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वह ज्यादातर मुंबई से काम करता है और पूरे यूरोप और अमेरिका में बड़े पैमाने पर यात्रा करता है। इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर कृष्णा कॉन्शसनेस (इस्कॉन) में, वह शासी निकाय आयोग के सदस्य के रूप में कार्य करता है। स्टीवन जे. रोसेन ने राधानाथ स्वामी को "आज के इस्कॉन भक्तों द्वारा सम्मानित संत व्यक्ति" के रूप में वर्णित किया।
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रघुनाथ भट्ट गोस्वामी (1505-1579) वैष्णव संत चैतन्य महाप्रभु के एक प्रसिद्ध अनुयायी थे, और प्रभावशाली गौड़ीय वैष्णव समूह के सदस्य थे जिन्हें सामूहिक रूप से वृंदावन के छह गोस्वामियों के रूप में जाना जाता था। उन्हें गौड़ीय परंपरा में अनुयायियों द्वारा भक्ति योग प्रणाली के एक आदर्श चिकित्सक के रूप में माना जाता है।
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राजिंदर सिंह (20 सितंबर 1946 को दिल्ली, भारत में) अंतरराष्ट्रीय गैर-लाभकारी संगठन साइंस ऑफ स्पिरिचुअलिटी (एसओएस) के प्रमुख हैं, जिसे भारत में सावन किरपाल रूहानी मिशन के रूप में जाना जाता है। अपने शिष्यों के लिए उन्हें संत राजिंदर सिंह जी महाराज के नाम से जाना जाता है। सिंह को आंतरिक प्रकाश और ध्वनि पर आध्यात्मिकता और ध्यान के माध्यम से आंतरिक और बाहरी शांति को बढ़ावा देने की दिशा में उनके काम के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त है।
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राकेशप्रसाद (देवनागरी: राकेशप्रसादजी; जन्म 23 जुलाई 1966) एक हिंदू आध्यात्मिक नेता हैं। उन्हें देवपक्ष गुट द्वारा लक्ष्मीनारायण देव गढ़ी के विवादित नेता के रूप में माना जाता है। राकेशप्रसादजी की धर्म पर संस्कृत और प्राकृत साहित्य में रुचि है, और उन्होंने मंदिरों की स्थापना की और उनमें मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा की। गुजरात उच्च न्यायालय के एक आदेश ने अजेंद्रप्रसादजी महाराज को आचार्य के रूप में कार्य करने से रोक दिया। अदालती मामले के समापन तक यह एक अस्थायी आदेश था। अजेंद्रप्रसाद ने इस पर विवाद किया और गुजरात उच्च न्यायालय में एक समीक्षा याचिका दायर की। एक सत्संग महासभा की अध्यक्षता भिक्षुओं, नौतम स्वामी, स्व-नियुक्त राकेशप्रसाद को उनके नेता के रूप में की जाती है। अजेन्द्रप्रसाद की प्रमुख विचारधारा थी कि संगति के साधु अपने निर्धारित नियम-कायदों में रहें। खासकर तब जब कुछ साधु साथी भिक्षुओं की हत्या करने की ओर मुड़े थे। उस समय अजेंद्रप्रसाद दृढ़ थे और कई भिक्षुओं ने उनका निपटान करने के लिए बहुत गुस्सा किया। कई संप्रदाय अनुयायी, विशेष रूप से सिद्धांत पक्ष और भारत के बाहर, अजेंद्रप्रसाद को लक्ष्मीनारायण देव गढ़ी के आचार्य के रूप में मानते हैं। अजेंद्रप्रसाद वडताल के रघुवीर वादी में मौजूद हैं; हालाँकि, अदालतें अभी भी वास्तविक आचार्य के रूप में स्पष्ट नहीं हैं।
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रघुत्तम तीर्थ (संस्कृत: रघुत्तम तीर्थ); IAST: श्री रघुत्तम तीर्थ) (सी. 1548 - सी. 1596), एक भारतीय दार्शनिक, विद्वान, धर्मशास्त्री और संत थे। उन्हें भवबोधाचार्य (भावबोधाचार्य) के नाम से भी जाना जाता था। उनके विविध कार्यों में माधव और जयतीर्थ के कार्यों पर भाष्य शामिल हैं। उन्होंने 1557 से 1595 तक माधवाचार्य पीठ - उत्तरादि मठ के चौदहवें पुजारी के रूप में सेवा की, जिस पर उन्होंने उनतालीस वर्षों तक उल्लेखनीय विशिष्टता के साथ कब्जा किया। उन्हें द्वैत विचारधारा के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण संतों में से एक माना जाता है। तिरुकोइलुर में उनका मंदिर हर साल हजारों आगंतुकों को आकर्षित करता है। एक कुलीन ब्राह्मण परिवार में पैदा हुआ था, लेकिन रघुवर्या तीर्थ के निर्देशन में मठ में लाया गया था। उन्होंने द्वैत विचार पर विस्तार से भावबोध के रूप में माधव, जयतीर्थ और व्यासतीर्थ के कार्यों पर टिप्पणियों से युक्त 11 रचनाओं की रचना की।
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शाहजहाँपुर के राम चंद्र (1899-1983), जिन्हें बाबूजी के नाम से भी जाना जाता है, उत्तर भारत के उत्तर प्रदेश के एक योगी थे। उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश समय सहज मार्ग नामक राजयोग ध्यान की एक विधि विकसित करने में बिताया। उन्होंने 1945 में श्री राम चंद्र मिशन नामक एक संगठन की स्थापना की, जिसे समर्पित और उनके शिक्षक के नाम पर रखा गया, जिन्हें राम चंद्र भी कहा जाता था।
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रामथाकुर (बंगाली: শ্রীশ্রী রামঠাকুর রামঠাকুর) (2 फरवरी 1860-1 मई 1949), जन्म राम चंद्र चक्रवर्ती (बंगाली: চন্দ্র চক্রবর্তী চক্রবর্তী চক্রবর্তী), 19 वीं सदी के भारत के दौरान एक भारतीय रहस्यवादी, योगी और आध्यात्मिक मास्टर थे।
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अरुतप्रकाश वल्ललार चिदम्बरम रामलिंगम (5 अक्टूबर 1823 – 30 जनवरी 1874) प्रसिद्ध तमिल सन्त एवं कवि थे। दीक्षा से पूर्व उनका नाम रामलिंगम था । उन्हें "रामलिंग स्वामिगल" तथा "रामलिंग आदिगल" नाम से भी जाना जाता है। इन्हें उन सन्तों की श्रेणी में रखा जाता है जिन्हें "ज्ञान सिद्ध" कहा जाता है।
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साधक रामप्रसाद सेन ( 1718 ई या 1723 ई – 1775 ई) ) बंगाल के एक शाक्त कवि एवं सन्त थे। उनकी भक्ति कविताएँ 'रामप्रसादी' कहलातीं हैं और आज भी बंगाल में अत्यन्त लोकप्रिय हैं। रामप्रसादी, बंगला भाषा मेम रचित है जिसमें काली को सम्बोधित करके रची गयीं हैं।
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गुरु रविदास अथवा रैदास मध्यकाल में एक भारतीय संत थे जिन्होंने जात-पात के अन्त विरोध में कार्य किया। इन्हें सतगुरु अथवा जगतगुरु की उपाधि दी जाती है। इन्होने रैदासिया अथवा रविदासिया पंथ की स्थापना की और इनके रचे गये कुछ भजन सिख लोगों के पवित्र ग्रंथ गुरुग्रंथ साहिब में भी शामिल हैं।
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श्री रूप गोस्वामी (1493 – 1564), वृंदावन में चैतन्य महाप्रभु द्वारा भेजे गए छः षण्गोस्वामी में से एक थे। वे कवि, गुरु और दार्शनिक थे। वे सनातन गोस्वामी के भाई थे।
इनका जन्म 1493 ई (तदनुसार 1415 शक.सं.) को हुआ था। इन्होंने 22 वर्ष की आयु में गृहस्थाश्रम त्याग कर दिया था। बाद के 51 वर्ष ये ब्रज में ही रहे। इन्होंने श्री सनातन गोस्वामी से दीक्षा ली थी। इन्हें शुद्ध भक्ति सेवा में महारत प्राप्त थी, अतएव इन्हें भक्ति-रसाचार्य कहा जाता है। ये गौरांग के अति प्रेमी थे। ये अपने अग्रज श्री सनातन गोस्वामी सहित नवाब हुसैन शाह के दरबार के उच्च पदों का त्याग कर गौरांग के भक्ति संकीर्तन में हो लिए थे। इन्हीं के द्वारा चैतन्य ने अपनी भक्ति-शिक्षा तथा सभी ग्रन्थों के आवश्यक सार का प्रचार-प्रसार किया। महाप्रभु के भक्तों में से इन दोनों भाइयों को उनके प्रधान कहा जाता था। सन 1564 ई (तदा0 1486 शक. की शुक्ल द्वादशी) को 73 वर्ष की आयु में इन्होंने परम धाम को प्रस्थान किया।
श्री रूप गोस्वामी समस्त गोस्वामियों के नायक थे। उन्होंने भक्तिकार्यकलापों का निर्देश करने के लिए हमे उपदेशामृत प्रदान किया जिससे भक्तगण उसका पाल कर सकें। जिस प्रकार श्रीचैतन्य महाप्रभु अपने पीछे शिक्षाष्टक नामक आठ श्लोक छोड़ गये थे उसी प्रकार श्री रूप गोस्वामी भी श्रीउपदेशामृत प्रदान किया जिससे हम शुद्ध भक्त बन सकें समस्त आध्यात्मिक कार्यों में मनुष्य का पहला कर्तव्य अपने मन तथा इंद्रियों को वश में करना है। मन तथा इन्द्रियों को वश में किये बिना कोई भी व्यक्ति आध्यात्मिक जीवन में प्रगति नहीं कर सकता। प्रत्येक व्यक्ति इस भौतिक जगत में रजो तथा तमो गुणों में निमग्न है। उसे श्री रूपगोस्वामी के उपदेशों पर चलते हुए अपने आपको शुद्ध सत्व गुण के पद तक उठना चाहिये। तभी आगे की उन्नति सम्बधि प्रत्येक आध्यात्मिक रहस्य प्रकट हो जायेगा
रूपा गोस्वामी के बारे मे अधिक पढ़ें
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संत रामपाल दास (अंग्रेजी :Sant Rampal Das) एक भारतीय [आध्यात्मिक] [[कबीर पंथ|कबीर पंथी] गुरु हैं तथा कबीर साहेब जी को भगवान (परमात्मा) बताते हैं। ये सतलोक आश्रम के संस्थापक भी हैं जो कि भारत के विभिन्न राज्य सहित हरियाणा के हिसार क्षेत्र में स्थित है।
संत रामपाल जी महाराज के बारे मे अधिक पढ़ें
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पं. सहदेव तिवारी (त्रिनिदियाई हिंदुस्तानी: सहदेव तिवारी) का जन्म 25 फरवरी 1892 को बिहार, भारत के अरवल जिले के सरवन गाँव में हुआ था। वह 1912 में एसएस सतलज जहाज पर एक गिरमिटिया मजदूर के रूप में त्रिनिदाद और टोबैगो आए, और बाद में उन्होंने सनबास से शादी कर ली। तिवारी (संबंधित नहीं)। उनकी बेटी कांति के अनुसार इस शादी से दो बेटे पैदा हुए: रमाकांत और सुरिंद्र और पांच बेटियां: मयंती, शांति, सावित्री, कांति और रेंटी।
सहदेव तिवारी के बारे मे अधिक पढ़ें
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सनातन गोस्वामी (सन् 1488 - 1558 ई), चैतन्य महाप्रभु के प्रमुख शिष्य थे। उन्होने गौड़ीय वैष्णव भक्ति सम्प्रदाय की अनेकों ग्रन्थोंकी रचना की। अपने भाई रूप गोस्वामी सहित वृन्दावन के छ: प्रभावशाली गोस्वामियों में वे सबसे ज्येष्ठ थे।
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श्रीमन्त शंकरदेव (असमिया: শ্ৰীমন্ত শংকৰদেৱ) असमिया भाषा के अत्यन्त प्रसिद्ध कवि, नाटककार, सुगायक, नर्तक, समाज संगठक, तथा हिन्दू समाजसुधारक थे। उन्होने नववैष्णव अथवा एकशरण धर्म का प्रचार करके असमिया जीवन को एकत्रित और संहत किया।
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सन्त चरणदास (1706 - 1785) भारत के योगाचार्यों की शृंखला में सबसे अर्वाचीन योगी के रूप में जाने जाते है। आपने 'चरणदासी सम्प्रदाय' की स्थापना की। इन्होने समन्वयात्मक दृष्टि रखते हुए योगसाधना को विशेष महत्व दिया।
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सोयाराबाई 14वीं सदी के महाराष्ट्र, भारत में महार जाति की एक संत थीं। वह अपने पति चोखामेला की शिष्या थीं। उसने बहुत कुछ लिखा लेकिन केवल 62 कार्यों के बारे में जाना जाता है। अपने अभंग में वह खुद को चोखामेला की महरी बताती हैं, दलितों को भूलने और जीवन को खराब करने के लिए भगवान पर आरोप लगाती हैं। उसके सबसे बुनियादी छंद भगवान को दिए जाने वाले साधारण भोजन से संबंधित हैं। उनकी कविताओं में भगवान के प्रति उनकी भक्ति का वर्णन है और अस्पृश्यता के प्रति उनकी आपत्तियां हैं। शरीर में शुद्ध? शरीर में बहुत प्रदूषण है। लेकिन शरीर का प्रदूषण शरीर में रहता है। आत्मा इससे अछूती है। "सोयाराबाई ने अपने पति के साथ पंढरपुर की वार्षिक तीर्थयात्रा की। उन्हें रूढ़िवादी ब्राह्मणों द्वारा परेशान किया गया था लेकिन उन्होंने अपना विश्वास और मन की शांति कभी नहीं खोई।
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सारदा देवी (बांग्ला : সারদা দেবী) भारत के सुप्रसिद्ध संत स्वामी विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस की आध्यात्मिक सहधर्मिणी थीं। रामकृष्ण संघ में वे 'श्रीमाँ' के नाम से परिचित हैं।
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सच्चिदानंद सरस्वती (IAST: सच्चिदानंद सरस्वती; 22 दिसंबर 1914 - 19 अगस्त 2002), जन्म सी. के. रामास्वामी गाउंडर और आमतौर पर स्वामी सच्चिदानंद के नाम से जाने जाते थे, एक भारतीय योग गुरु और धार्मिक शिक्षक थे, जिन्होंने पश्चिम में प्रसिद्धि और अनुसरण प्राप्त किया। उन्होंने इंटीग्रल योग के अपने स्वयं के ब्रांड और वर्जीनिया में इसके विशाल योगविले मुख्यालय की स्थापना की। वह दार्शनिक और आध्यात्मिक पुस्तकों के लेखक थे और उनके संस्थापक शिष्यों का एक समूह था, जिन्होंने आधुनिक पाठकों के लिए पतंजलि के योग सूत्र और भगवद गीता जैसे योग की पारंपरिक पुस्तिकाओं पर उनके अनुवाद और अद्यतन टिप्पणियों को संकलित किया।
1991 में, कर्मचारियों की कई महिला सदस्यों ने यौन हेरफेर और दुर्व्यवहार के आरोप लगाए, प्रारंभिक विरोध के बाद और अधिक सामने आए। कोई कानूनी शिकायत दर्ज नहीं की गई, और सच्चिदानंद ने सभी आरोपों से इनकार किया।
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सतनारायण महाराज, जिन्हें सत महाराज के नाम से भी जाना जाता है, (उच्चारण [sət̪ənɑːrɑːjəɳə məɦɑːrɑːɟə]; 17 अप्रैल, 1931 - 16 नवंबर, 2019) त्रिनिदाद और टोबैगो में एक त्रिनिडाडियन और टोबैगोनियन हिंदू धार्मिक नेता, शिक्षाविद और नागरिक अधिकार कार्यकर्ता थे। वह सनातन धर्म महासभा के महासचिव थे, जो त्रिनिदाद और टोबैगो और व्यापक कैरिबियन में एक प्रमुख हिंदू संगठन है। सनातन धर्म महासभा त्रिनिदाद और टोबैगो में 150 मंदिरों और 50 से अधिक स्कूलों का संचालन करती है। इसका गठन 1952 में किया गया था जब सतनारायण महाराज के ससुर भदासे सागन मरज ने शैतानन धर्म एसोसिएशन और सनातन धर्म नियंत्रण बोर्ड के विलय की योजना बनाई थी। एक संबद्ध समूह, पंडितों की परिषद, में 200 संबद्ध पंडित हैं। संगठन का मुख्यालय सेंट ऑगस्टाइन में स्थित है।
महासचिव सतनारायण महाराज के अधीन, महासभा ने सभी 42 स्कूलों का आधुनिकीकरण किया और 5 माध्यमिक विद्यालयों के साथ-साथ 12 प्रारंभिक बचपन शिक्षा केंद्र बनाए। महाराज ने फगवा के पालन को भी पुनर्जीवित किया है और भारतीय आगमन दिवस अवकाश और वार्षिक समारोह के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। महासभा ने बाल सांस्कृतिक महोत्सव - बाल विकास विहार की भी शुरुआत की।
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सत्स्वरूप दास गोस्वामी
सत्स्वरूप दास गोस्वामी (IAST: सत-स्वरूप दास गोस्वामी, देवनागरी: सस्वरूप दास गोस्वामी) (जन्म 6 दिसंबर, 1939 को स्टीफन ग्वारिनो) भक्तिवेदांत स्वामी के एक वरिष्ठ शिष्य हैं, जिन्होंने इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर कृष्णा कॉन्शियसनेस (इस्कॉन) की स्थापना की, जो बेहतर ज्ञात है। पश्चिम में हरे कृष्ण आंदोलन के रूप में। एक लेखक, कवि और कलाकार के रूप में काम करते हुए, सत्स्वरूप दास गोस्वामी भक्तिवेदांत स्वामी की अधिकृत जीवनी, श्रील प्रभुपाद-लीलामृत के लेखक हैं। प्रभुपाद की मृत्यु के बाद, सत्स्वरूप दास गोस्वामी उन ग्यारह शिष्यों में से एक थे जिन्हें भावी शिष्यों को आरंभ करने के लिए चुना गया था।
सत्स्वरूप दास गोस्वामी, (संस्कृत: [sɐtˈsʋɐɽuːpɐ daːsɐ ɡoːˈsʋaːmiː]), सितंबर 1966 में भक्तिवेदांत स्वामी द्वारा दीक्षित पहले कुछ पश्चिमी लोगों में से एक हैं। वे एक वैष्णव लेखक, कवि और व्याख्याता हैं, जिन्होंने कविताओं, संस्मरणों सहित सौ से अधिक पुस्तकें प्रकाशित की हैं। वैष्णव शास्त्रों पर आधारित निबंध, उपन्यास और अध्ययन।
सत्स्वरूप दास गोस्वामी के बारे मे अधिक पढ़ें
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सत्यनारायण गोयनका (जनवरी 30, 1924 – सितम्बर 29, 2013) विपस्सना ध्यान के प्रसिद्ध बर्मी-भारतीय गुरु थे। उनका जन्म बर्मा में हुआ, उन्होंने सायागयी उ बा खिन का अनुसरण करते हुए 14 वर्षों तक प्रशिक्षण प्राप्त किया। 1969 में वो भारत प्रतिस्थापित हो गये और ध्यान की शिक्षा देना आरम्भ कर दिया और इगतपुरी में, नासिक के पास 1976 में एक ध्यान केन्द्र की स्थापना की।
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″स्वामी सत्यानन्द सरस्वती (24 दिसम्बर 1923 – 5 दिसम्बर 2009), संन्यासी, योग गुरू और आध्यात्मिक गुरू थे। उन्होने अन्तरराष्ट्रीय योग फेलोशिप (1956) तथा बिहार योग विद्यालय (1963) की स्थापना की। उन्होंने 80 से भी अधिक पुस्तकों की रचना की जिसमें से 'आसन प्राणायाम मुद्राबन्ध' नामक पुस्तक विश्वप्रसिद्ध है।
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सत्यप्रमोदा तीर्थ (IAST: सत्यप्रमोदा तीर्थ; 1918 - 3 नवंबर 1997, एक भारतीय हिंदू दार्शनिक, आध्यात्मिक नेता, गुरु, संत और उत्तरादि मठ के पुजारी थे, एक गणित (मठ) जो द्वैत दर्शन को समर्पित है, जिसका एक बड़ा अनुयायी है दक्षिणी भारत। उन्होंने 2 फरवरी 1948 से 3 नवंबर 1997 तक माधवाचार्य पीठ - उत्तरादि मठ के 41 वें पुजारी के रूप में कार्य किया। उन्होंने बैंगलोर में जयतीर्थ विद्यापीठ की स्थापना की थी, जिसने 32 साल पूरे कर लिए हैं।
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शौनक एक संस्कृत वैयाकरण तथा ऋग्वेद प्रतिशाख्य, बृहद्देवता, चरणव्यूह तथा ऋग्वेद की छः अनुक्रमणिकाओं के रचयिता ऋषि हैं। वे कात्यायन और अश्वलायन के के गुरु माने जाते हैं। उन्होने ऋग्वेद की बश्कला और शाकला शाखाओं का एकीकरण किया। विष्णुपुराण के अनुसार शौनक गृतसमद के पुत्र थे।
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श्री शेषाद्री स्वामीगल, जिन्हें "सुनहरे हाथ वाले संत" के रूप में भी जाना जाता है, कांचीपुरम, तमिलनाडु में पैदा हुए एक भारतीय संत थे, लेकिन मुख्य रूप से तिरुवन्नामलाई में रहते थे जहाँ उन्होंने समाधि (ध्यान की चेतना की स्थिति) प्राप्त की।
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श्री शिवबलायोगी महाराज (24 जनवरी 1935 - 28 मार्च 1994) एक योगी हैं जिन्होंने दावा किया कि उन्होंने बारह वर्षों के कठिन तपस्या के माध्यम से आत्म-साक्षात्कार प्राप्त किया है, समाधि में प्रतिदिन औसतन बीस घंटे ध्यान किया। उसके बाद उन्होंने तप पूरा करने के बाद, उन्हें शिवबलायोगी नाम दिया गया, जिसका अर्थ है "शिव और पार्वती को समर्पित योगी।" हिंदू धर्म में, शिव एक योगी के रूप में भगवान हैं। बाला (संस्कृत: बच्चा) योगिनी के रूप में भगवान, पार्वती के कई नामों में से एक है। नाम दर्शाता है कि शिवबलायोगी परमात्मा (अर्धनारीश्वर) के पुरुष और स्त्री दोनों पहलुओं का प्रकटीकरण है। आम तौर पर, भक्त उन्हें केवल "स्वामीजी" कहते थे जिसका अर्थ है "आदरणीय मास्टर"।
तीन दशकों तक उन्होंने भारत और श्रीलंका में बड़े पैमाने पर यात्रा की, एक करोड़ से अधिक लोगों को ध्यान ध्यान में दीक्षित किया। 1987 से 1991 तक, उन्होंने इंग्लैंड और संयुक्त राज्य अमेरिका की यात्रा की। शिवबलायोगी का शिक्षण वेदांत पर आधारित है, जो आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने के लिए साधना (आध्यात्मिक अभ्यास) की आवश्यकता पर बल देता है।
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श्रीधर स्वामी महाराज (7 दिसम्बर, 1908 – 19 अप्रैल 1973) मराठी और कन्नड के प्रमुख सन्त कवि थे। वे श्रीराम के भक्त एवं समर्थ रामदास के शिष्य थे।
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श्रीमद राजचन्द्र, जन्म रायचन्दभाई रावजीभाई मेहता, एक जैन कवि, दार्शनिक और विद्वान थे। उन्हें मुख्यतः उनके जैनधर्म शिक्षण और महात्मा गांधी के आध्यात्मिक मार्गदर्शक के रूप में जाना जाता है।महात्मा गांधी जी ने अपनी आत्मकथा "सत्य के साथ प्रयोग" में इनका विभिन्न स्थानों पर उल्लेख किया हैं।उन्होंने लिखा कि " मेरे जीवन पर गहरा प्रभाव डालने वाले आधुनिक पुरुष तीन हैं: रायचंद्र भाई अपने सजीव संपर्क से, टॉलस्टॉय 'वैकुंठ तेरे हृदय में है' नामक अपनी पुस्तक से और रस्किन 'अन्टू दिस लास्ट- सर्वोदय' नामक पुस्तक से "
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श्रीपाद श्री वल्लभ कलियुग (लौह युग या अंधकार युग) में श्री दत्तात्रेय का पहला पूर्ण अवतार (अवतार) है। श्रीपाद श्री वल्लभा का जन्म 1320 में श्री अप्पाराजा और सुमति सारमा के साथ भाद्रपद सुधा चैविथि (गणेश चतुर्थी) के दिन पितापुरम (आंध्र प्रदेश, भारत) में हुआ था।
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श्रीवत्स गोस्वामी (जन्म 27 अक्टूबर 1950) एक भारतीय इंडोलॉजिस्ट विद्वान होने के साथ-साथ गौड़ीय वैष्णव धार्मिक नेता हैं।
उनका जन्म वृंदावन के पवित्र वैष्णव तीर्थ स्थल में, एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था, जिसके सदस्य चार शताब्दियों से अधिक समय तक राधा रमन मंदिर के देखभालकर्ता थे, जो चैतन्य के सहयोगी संत गोपाल भट्ट गोस्वामी द्वारा स्थापित सबसे प्रसिद्ध वृंदावन मंदिरों में से एक है। श्रीवत्स गोस्वामी के पिता पुरुषोत्तम गोस्वामी मंदिर के प्रमुख पुजारी थे। पारिवारिक परंपरा के अनुसार, श्रीवत्स गोस्वामी राधा रमण मंदिर के आचार्य बने। 1972 में, उन्होंने एक वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन, "श्री चैतन्य प्रेम संस्थान" की स्थापना की, पारंपरिक वैष्णववाद के प्रचार के लिए, विशेष रूप से वृंदावन में कला (रासलीला नृत्य और अन्य) और वैष्णववाद पर छात्रवृत्ति का संरक्षण किया। श्रीवत्स गोस्वामी एक स्नातक हैं बनारस हिंदू विश्वविद्यालय का दर्शनशास्त्र, जहाँ उन्होंने बाद में दर्शन और धर्म की शिक्षा दी। 1970 के दशक के मध्य में वे हार्वर्ड डिविनिटी स्कूल के सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ वर्ल्ड रिलिजन में विजिटिंग स्कॉलर थे। श्रीवत्स गोस्वामी भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद (भारतीय दार्शनिकों के विश्वकोश के संपादक मंडल के सदस्य) और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र (जो उनके व्रज अनुसंधान परियोजना के लिए एक प्रायोजक है) से जुड़े रहे हैं। भारत और पश्चिम में उनके विद्वतापूर्ण प्रकाशन वैष्णव दर्शन और धर्मशास्त्र के साथ-साथ रंगमंच और ब्रज क्षेत्र की धार्मिक संस्कृति के अन्य पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं। इसके अलावा, श्रीवत्स गोस्वामी पारस्परिक सहयोग के क्षेत्र में काम करते हैं। इस प्रकार, वह शांति के लिए धर्मों के मानद अध्यक्ष हैं। और पोप बेनेडिक्ट सोलहवें ने उन्हें अक्टूबर 2011 में असीसी में विश्व प्रार्थना दिवस की 25वीं वर्षगांठ पर हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व करने के लिए आमंत्रित किया।
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श्यामा शास्त्री (तेलुगु: శ్యామ శాస్త్రి) (IAST: श्यामा शास्त्री; 26 अप्रैल 1762 - 1827) या श्यामा शास्त्री एक संगीतकार और कर्नाटक संगीत के संगीतकार थे।
वह कर्नाटक संगीत की त्रिमूर्ति में सबसे पुराने थे, त्यागराज और मुथुस्वामी दीक्षितार अन्य दो थे।
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श्री श्री सीतारामदास ओंकारनाथ (17 फरवरी 1892 - 6 दिसंबर 1982) एक भारतीय आध्यात्मिक गुरु थे। श्री श्री ठाकुर सीतारामदास ओंकारनाथ के रूप में संबोधित, जहां "ओंकार" सर्वोच्च ब्रह्मांडीय ज्ञान और सर्वोच्च चेतना प्राप्त करने का प्रतीक है, उन्हें कलियुग के दिव्य अवतार (अवतार) के रूप में घोषित किया गया था और सनातन धर्म और वैदिक आध्यात्मिक पथ के सिद्धांतों को अनगिनत भक्तों के लिए स्वीकार किया था। दुनिया भर में, हरे कृष्ण हरे राम के दिव्य जप नाम के लाभ पर केंद्रीय विषय और सर्वोपरि महत्व के साथ - सर्वशक्तिमान "तारक ब्रह्म नाम" के रूप में माना जाता है जो कलियुग में आत्मा के उद्धार का मंत्र है और "मोक्ष" जन्म के चक्र से मुक्ति और मौत। इस प्रकार, उनके शिष्य उन्हें स्वयं भगवान के अवतार के रूप में पूजते हैं और वास्तव में सभी साधकों के लिए आध्यात्मिक ज्ञान और आत्मा सहायता का एक शाश्वत स्रोत माना जाता है। क्योंकि उनके जीवन की भविष्यवाणी अच्युतानंद दास की पांडुलिपि में की गई थी। सीतारामदास ओंकारनाथ ने भारतीय शास्त्रों के सार को बढ़ावा देने के लिए 150 से अधिक पुस्तकें लिखीं, पूरे भारत में 60 से अधिक मंदिरों और आश्रमों का निर्माण किया, और अपने आध्यात्मिक संगठन अखिल भारत जयगुरु सम्प्रदाय की स्थापना की, संप्रदाय के भीतर और बाहर कई समूहों, मंदिरों, मठों की स्थापना की - और पाथेर अलो, देवजन, जयगुरु, आर्य नारी, परमानंद और द मदर जैसी कई पत्रिकाओं के आरंभकर्ता भी थे।
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शिवानंद सरस्वती (या स्वामी शिवानंद; 8 सितंबर 1887 - 14 जुलाई 1963) एक योग गुरु, एक हिंदू आध्यात्मिक शिक्षक और वेदांत के समर्थक थे। शिवानंद का जन्म तमिलनाडु के तिरुनेलवेली जिले के पट्टामदई में हुआ था और उनका नाम कुप्पुस्वामी रखा गया था। उन्होंने चिकित्सा का अध्ययन किया और मठवाद अपनाने से पहले कई वर्षों तक ब्रिटिश मलाया में एक चिकित्सक के रूप में सेवा की।
वह 1936 में डिवाइन लाइफ सोसाइटी (डीएलएस), योग-वेदांत वन अकादमी (1948) के संस्थापक और योग, वेदांत और विभिन्न विषयों पर 200 से अधिक पुस्तकों के लेखक थे। उन्होंने ऋषिकेश से 3 किलोमीटर (1.9 मील) दूर मुनि की रेती में गंगा के तट पर डीएलएस के मुख्यालय, शिवानंद आश्रम की स्थापना की, और अपना अधिकांश जीवन वहीं बिताया। शिवानंद योग, उनके शिष्य विष्णुदेवानंद द्वारा प्रचारित योग रूप , अब शिवानंद योग वेदांत केंद्रों के माध्यम से दुनिया के कई हिस्सों में फैला हुआ है। ये केंद्र शिवानंद के आश्रमों से संबद्ध नहीं हैं, जो डिवाइन लाइफ सोसाइटी द्वारा चलाए जा रहे हैं।
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सिवाय सुब्रमुनियस्वामी
शिवया सुब्रमुनियास्वामी (जन्म रॉबर्ट हैनसेन; 5 जनवरी, 1927 - 12 नवंबर, 2001) एक अमेरिकी हिंदू धार्मिक नेता थे, जिन्हें उनके अनुयायी गुरुदेव के नाम से जानते थे। सुब्रमुनियस्वामी का जन्म कैलिफोर्निया के ओकलैंड में हुआ था और उन्होंने युवावस्था में ही हिंदू धर्म अपना लिया था। वह नंदीनाथ सम्प्रदाय के कैलास परम्परा के 162वें प्रमुख थे और काउई के हिंदू मठ के गुरु थे, जो हवाई के गार्डन द्वीप पर 382 एकड़ (155 हेक्टेयर) मंदिर-मठ परिसर है। 1947 में, 20 वर्ष की आयु में, उन्होंने भारत की यात्रा की और श्रीलंका और 1949 में, प्रसिद्ध सिद्ध योगी और भगवान शिव के उपासक, जाफना, श्रीलंका के ज्ञानगुरु योगस्वामी द्वारा संन्यास की शुरुआत की गई थी, जिन्हें 20 वीं शताब्दी के उल्लेखनीय रहस्यवादियों में से एक माना जाता था। 1970 के दशक में उन्होंने काउई, हवाई में एक हिंदू मठ की स्थापना की और हिंदू धर्म टुडे पत्रिका की स्थापना की। 1985 में, उन्होंने पंच गणपति के त्योहार को क्रिसमस जैसी दिसंबर की छुट्टियों के हिंदू विकल्प के रूप में बनाया। वह शैववाद के गुरुओं में से एक थे, जो शैव सिद्धांत चर्च के संस्थापक और नेता थे।
वह श्रीलंकाई अलावेदी हिंदुओं के गुरु वंश का हिस्सा हैं। उनके विभिन्न संस्थान एक जाफना-तमिल-आधारित संगठन बनाते हैं, जो इस सदी के बढ़ते हिंदू प्रवासी की जरूरतों को पूरा करने के लिए अलावेदी में उनके श्री सुब्रमुनिया आश्रम से बाहर निकले हैं। उन्होंने मॉरीशस में एक सात-एकड़ (2.8 हेक्टेयर) मठ भी स्थापित किया, जिसमें "आध्यात्मिक पार्क- पोइंटे डे लस्कर" नामक एक सार्वजनिक आध्यात्मिक पार्क शामिल है। उन्होंने दुनिया भर में 50 से अधिक स्वतंत्र मंदिरों का निरीक्षण किया। उनके प्रभाव ने उनके प्रकाशनों की पहुंच को प्रतिबिंबित किया, जिसमें उनके द्वारा लिखी गई लगभग 30 पुस्तकें भी शामिल थीं। सुब्रमुनियस्वामी को क्लाउस क्लोस्टरमाइर द्वारा "भारत के बाहर हिंदू धर्म के सबसे अधिक अधिवक्ता" के रूप में वर्णित किया गया था। अमेरिका के धार्मिक नेताओं की किताब ने सुब्रमण्यस्वामी की भूमिका को "रूढ़िवादी हिंदू धर्म के एक स्तंभ" के रूप में समझाया।
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श्यामाकांत वन्द्योपाध्याय ( सोsहं स्वामी; 1858 – 1918) भारत के एक महान अद्वैत वेदान्तवादी गुरु थे। उनका प्रचलित नाम था बाघ स्वामी।उनके गुरु परमहंस तिब्बतीबाबा भी एक उच्च कोटि के महान अद्वैत वेदान्तवादी योगी और गुरु थे।
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संत सोपानदेव वारकरी के संत थे और ज्ञानेश्वर के छोटे भाई भी थे।
सोपान (19 नवंबर 1277 ई। - 29 दिसंबर 1296 ई।), पुणे के पास सासवड़ में समाधि प्राप्त की। उन्होंने भगवद गीता के मराठी अनुवाद के आधार पर 50 या इतने ही अभंगों के साथ सोपानदेवी नामक एक पुस्तक लिखी।
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श्रीपादराजा (संस्कृत: श्रीपादराज; श्रीपादराजा) या श्रीपादराय, जिन्हें उनके परमधर्मपीठीय नाम लक्ष्मीनारायण तीर्थ (सी.1422 - सी.1480) के नाम से भी जाना जाता है, एक हिंदू द्वैत दार्शनिक, विद्वान और संगीतकार और मुलबगल में माधवाचार्य मठ के पुजारी थे। उन्हें व्यापक रूप से नरहरि तीर्थ के साथ हरिदास आंदोलन का संस्थापक माना जाता है। उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से कर्नाटक संगीत और हिंदुस्तानी संगीत दोनों को प्रभावित किया है। रंग विठ्ठल की मुद्रा में लिखे गए उनके गीतों और भजनों में रहस्यवाद और मानवतावाद से ओत-प्रोत द्वैत सिद्धांतों का आसवन है। उन्हें सुलादी संगीत संरचना के आविष्कार का श्रेय भी दिया जाता है और उन्होंने कई कीर्तनों के साथ उनमें से 133 की रचना की। वह सलुवा नरसिम्हा देव राय के सलाहकार थे और युवा व्यासतीर्थ के गुरु थे। उन्होंने जयतीर्थ की न्याय सुधा पर न्यायसुधोपान्यास-वागवज्र नामक एक टिप्पणी भी लिखी। श्रीपादराज को ध्रुव का अवतार माना जाता है।
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चिन्मय कुमार घोष (27 अगस्त 1931 - 11 अक्टूबर 2007), जिन्हें श्री चिन्मय के नाम से जाना जाता है, एक भारतीय आध्यात्मिक नेता थे, जिन्होंने 1964 में न्यूयॉर्क शहर जाने के बाद पश्चिम में ध्यान सिखाया। चिन्मय ने क्वींस, न्यूयॉर्क में अपना पहला ध्यान केंद्र स्थापित किया। , और अंततः 60 देशों में 7,000 छात्र थे। एक विपुल लेखक, कलाकार, कवि और संगीतकार, उन्होंने आंतरिक शांति के विषय पर संगीत कार्यक्रम और ध्यान जैसे सार्वजनिक कार्यक्रम भी आयोजित किए। चिन्मय ने प्रार्थना और ध्यान के माध्यम से भगवान के लिए एक आध्यात्मिक मार्ग की वकालत की। उन्होंने एथलेटिसिज्म की वकालत की जिसमें दूरी दौड़ना, तैरना और भारोत्तोलन शामिल है। उन्होंने मैराथन और अन्य दौड़ आयोजित की, और एक सक्रिय धावक थे और घुटने की चोट के बाद भारोत्तोलक थे।
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श्री एम (जन्म मुमताज अली खान) एक भारतीय योगी, आध्यात्मिक मार्गदर्शक, समाज सुधारक और शिक्षाविद हैं। वह हिंदू धर्म की नाथ उप परंपरा के दीक्षा हैं और श्री महेश्वरनाथ बाबाजी के शिष्य हैं, जो महावतार बाबाजी के शिष्य थे। श्री एम, जिन्हें श्री मधुकर्णनाथ जी के नाम से भी जाना जाता है, मदनपल्ले, आंध्र प्रदेश, भारत में रहते हैं। श्री एम को 2020 में भारत का तीसरा सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्म भूषण मिला।
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रवि शंकर सामान्यतः श्री श्री रवि शंकर के रूप में जाने जाते हैं, (जन्म: 13 मई 1956) विश्व स्तर पर एक आध्यात्मिक नेता एवं मानवतावादी धर्मगुरु हैं। उनके भक्त उन्हें आदर से प्राय: "श्री श्री" के नाम से पुकारते हैं। वे आर्ट ऑफ लिविंग फाउण्डेशन के संस्थापक हैं।
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सुधांशु जी (जन्म 2 मई 1955) भारत के एक प्रचारक और विश्व जागृति मिशन (वीजेएम) के संस्थापक हैं। दुनिया भर में उनके 10 मिलियन से अधिक भक्त हैं और 2.5 मिलियन से अधिक शिष्य हैं।
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स्वामी अभेदानंद (2 अक्टूबर 1866 - 8 सितंबर 1939), जन्म कालीप्रसाद चंद्रा, 19वीं सदी के रहस्यवादी रामकृष्ण परमहंस के प्रत्यक्ष शिष्य और रामकृष्ण वेदांत मठ के संस्थापक थे। स्वामी विवेकानंद ने उन्हें 1897 में न्यू यॉर्क की वेदांत सोसाइटी का प्रमुख बनाने के लिए पश्चिम भेजा, और वेदांत का संदेश फैलाया, एक विषय जिस पर उन्होंने अपने जीवन के माध्यम से कई किताबें लिखीं, और बाद में कलकत्ता (अब कोलकाता) में रामकृष्ण वेदांत मठ की स्थापना की। ) और दार्जिलिंग।
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स्वामी भूमिानंद तीर्थ (देवनागरी: स्वामी भूमानन्द तीर्थ; मलयालम: സ്വാമി ഭൂമാനന്ദ തീർത്ഥ), एक भारतीय संन्यासी और समाज सुधारक हैं। उन्हें वेदांत, भगवद गीता, उपनिषद और श्रीमद् भागवतम पर उनके भाषणों और प्रवचनों और दैनिक जीवन में उनके व्यावहारिक अनुप्रयोग के लिए जाना जाता है। उन्होंने कुछ हिंदू मंदिरों द्वारा प्रचलित कुछ गैरकानूनी अनुष्ठानों को समाप्त करने के लिए विभिन्न आंदोलनों का भी आयोजन किया है।
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स्वामी चिद्भवानंद (11 मार्च 1898 - 16 नवंबर 1985) का जन्म कोयम्बटूर जिले, मद्रास प्रेसीडेंसी, भारत में पोलाची के पास सेनगुत्तिपलायम में हुआ था। उनके माता-पिता ने उनका नाम 'चिन्नू' रखा। उन्होंने स्टेन्स स्कूल, कोयम्बटूर में पढ़ाई की। वह अपनी कक्षा के दो भारतीयों में से एक थे, बाकी अंग्रेज थे। उनके माता-पिता चाहते थे कि वे प्रेसीडेंसी कॉलेज, चेन्नई में अपनी डिग्री पूरी करने के बाद इंग्लैंड चले जाएँ।
अपनी विदेश यात्रा की व्यवस्था करते समय, उन्हें स्वामी विवेकानंद के दर्शन के बारे में एक पुस्तक मिली। इस किताब का उनके दिमाग पर गहरा प्रभाव पड़ा। वह अक्सर मायलापुर में रामकृष्ण मठ जाने लगे और स्वामीजी के साथ विचार-विमर्श किया। अंत में, उन्होंने नौसिखिए बनने का फैसला किया और पश्चिम बंगाल के बेलूर में रामकृष्ण मिशन चले गए। उनके गुरु स्वामी शिवानंद थे जो रामकृष्ण परमहंस के प्रत्यक्ष शिष्य थे।
स्वामी शिवानंद की इच्छा और सलाह के अनुसार, वे तमिलनाडु लौट आए और ऊटी के पास एक आश्रम की स्थापना की। 14 जनवरी 1937 को, उन्होंने ऊटी के पास एक गाँव (अथिगरट्टी) में एक सेवा संघ की शुरुआत की और इसका नाम कलीमगल सेवा संगम (KMSSA) रखा। प्रारंभिक चालीसवें वर्ष (1942) में, उन्होंने तिरुचि जिले के तिरुपरैथुराई में श्री रामकृष्ण तपोवनम की स्थापना की। तब से, तपोवनम ने तमिलनाडु में कई शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना की और पुस्तक प्रकाशन जैसी धार्मिक और सामाजिक गतिविधियों के माध्यम से रामकृष्ण और विवेकानंद के आदर्शों का प्रचार किया।
स्वामी चिद्भावानंद ने तमिल और अंग्रेजी में सौ से अधिक पुस्तकें लिखी हैं। उनकी पुस्तकें विभिन्न प्रकार के विषयों को संबोधित करती हैं, जिनमें गहरी दार्शनिक जाँच से लेकर समकालीन सामाजिक जीवन तक शामिल हैं।
उन्होंने प्राचीन हिंदू शास्त्रों पर आधारित कई नाटक लिखे जो छात्रों द्वारा प्रस्तुत किए जाते हैं। 1985 में उनका निधन हो गया। सी. सुब्रमण्यम उनके भतीजे थे।
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स्वामी जनकानंद सरस्वती एक तांत्रिक योग और ध्यान शिक्षक और एक लेखक हैं, जिनका स्कैंडिनेविया और उत्तरी यूरोप में योग और ध्यान के प्रसार में महत्वपूर्ण प्रभाव रहा है। वे यूरोप में सत्यानंद सरस्वती के सबसे पुराने सक्रिय संन्यासी शिष्य हैं।
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स्वामी केशवानंद सत्यार्थी
श्री स्वामी केशवानंद सत्यार्थी जी महाराज (5 सितंबर 1943 - 25 जून 2020) श्री नंगली साहिब वंश के एक भारतीय संत थे। आध्यात्मिक संस्था परमहंस सत्यार्थी मिशन का नेतृत्व और संचालन उन्हीं के द्वारा किया जाता था। 1985 में, श्री परमहंस स्वामी रामानंद सत्यार्थी जी महाराज ने उन्हें अपने आध्यात्मिक उत्तराधिकारी और परमहंस सत्यार्थी मिशन के संरक्षक संत के रूप में अभिषेक किया। स्वामी केशवानंद सत्यार्थी जी महाराज ने दुनिया भर की यात्रा की और आध्यात्मिकता और ज्ञान के बारे में उपदेश दिया। स्वामी रामानंद सत्यार्थी ट्रस्ट, श्री सत्यार्थी हाई स्कूल, श्री सत्यार्थी सेवादल और श्री सत्यार्थी संदेश पत्रिका का संचालन भी उनके मार्गदर्शन में हुआ।
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स्वामी पूर्णचैतन्य (स्वामी पूर्णचैतन्य), 26 अक्टूबर 1984 को फ्रीक अलेक्जेंडर लूथरा के रूप में पैदा हुए, एक लेखक, डच लाइफ कोच और सार्वजनिक वक्ता हैं। वह बैंगलोर, भारत में आर्ट ऑफ़ लिविंग फाउंडेशन में काम करते हैं, भारत और विदेशों में योग सिखाते हैं, और भारत के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में फाउंडेशन द्वारा चलाए जा रहे ग्रामीण विकास और शैक्षिक परियोजनाओं पर काम करते हैं।
वह योग के लिए आर्ट ऑफ लिविंग काउंसिल के सदस्य हैं। उनका काम इन क्षेत्रों में प्राचीन वैदिक प्रथाओं और स्वदेशी परंपराओं के संरक्षण और पुनरुद्धार के उद्देश्य से है।
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यह लेख स्वामी राम के बारे में है, स्वामी रामतीर्थ के लिए उस लेख पर जाँय।
स्वामी राम (1925–1996) एक योगी थे जिन्होने 'हिमालयन इन्टरनेशनल इन्स्टीट्यूट ऑफ योगा सांइस एण्ड फिलासफी' सहित अनेकानेक संस्थानों की स्थापना की। उन्होने लगभग 44 सर्वाधिक विक्रीत पुस्तकों की भी रचना की।
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विक्रम संवत 1795 (1738 AD) में अयोध्या में एक ब्राह्मण परिवार में रामानंद स्वामी (जन्म राम शर्मा)। उनके माता-पिता अजय शर्मा (पिता) और सुमति (मां) थे। उन्हें कृष्ण के घनिष्ठ मित्र उद्धव का अवतार माना जाता था। रामानंद उद्धव संप्रदाय के संस्थापक और प्रमुख थे। रामानंद स्वामी ने वैष्णवों के विशिष्टाद्वैत सिद्धांत को अपनाया, जिसे कई सदियों पहले रामानुज ने पहली बार प्रतिपादित किया था। अपने प्रारंभिक जीवन में दक्षिण भारत में श्रीरंगम की अपनी यात्रा में, रामानंद स्वामी ने कहा कि रामानुज ने उन्हें एक सपने में दीक्षा (दीक्षा) दी और उन्हें एक आचार्य के रूप में नियुक्त किया। रामानंद स्वामी ने तब रामानुज के दर्शन का प्रसार करने के लिए पश्चिम से सौराष्ट्र की यात्रा की। 1858 में मरने से पहले, रामानंद स्वामी ने उद्धव संप्रदाय की बागडोर स्वामीनारायण को सौंप दी।
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स्वामी रामदास ([sʋaːmiː raːmdaːs]; संस्कृत: स्वामी रामदास, रोमानीकृत: स्वामी रामदास, जन्म 10 अप्रैल 1884 को विट्टल राव) एक भारतीय संत, दार्शनिक, परोपकारी और तीर्थयात्री थे। स्वामी रामदास अपने 30 के दशक के उत्तरार्ध में एक भटकने वाले तपस्वी बन गए और मोक्ष प्राप्त करने के बाद भी जीवित रहते हुए केरल के कान्हागढ़ में आनंदाश्रम की स्थापना की। वह कई पुस्तकों के लेखक हैं, जिनमें से सबसे प्रसिद्ध आध्यात्मिक आत्मकथा इन क्वेस्ट ऑफ़ गॉड (1925) है।
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श्री स्वामी समर्थ (मराठी: श्री स्वामी समर्थ) को अक्कलकोट के स्वामी के रूप में भी जाना जाता है, दत्तात्रेय परंपरा के एक भारतीय आध्यात्मिक गुरु थे। वह महाराष्ट्र और कर्नाटक सहित विभिन्न भारतीय राज्यों में एक व्यापक रूप से ज्ञात आध्यात्मिक व्यक्ति हैं। वह उन्नीसवीं सदी के दौरान रहते थे।
श्री स्वामी समर्थ ने पूरे भारतीय उपमहाद्वीप की यात्रा की और अंततः वर्तमान महाराष्ट्र के एक गाँव अक्कलकोट में अपना निवास स्थापित किया। ऐसा माना जाता है कि वह शुरू में 1856 में सितंबर या अक्टूबर के दौरान बुधवार को अक्कलकोट पहुंचे थे। वह 22 साल के करीब अक्कलकोट में रहे।
उनका पितृत्व और उत्पत्ति अस्पष्ट बनी हुई है। किंवदंती के अनुसार, एक बार जब एक शिष्य ने स्वामी से उनके जन्म के बारे में एक प्रश्न पूछा, तो स्वामी ने उत्तर दिया कि उनकी उत्पत्ति एक बरगद के पेड़ (मराठी में वात-वृक्ष) से हुई है। एक अन्य अवसर पर, स्वामी ने कहा था कि उनका पहले का नाम नृसिंह भान था।
डिंडोरी और अक्कलकोट में स्वामी समर्थ महाराज फाउंडेशन
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स्वामीनारायण (IAST: स्वामीनारायण, 3 अप्रैल 1781 - 1 जून 1830), जिन्हें सहजानंद स्वामी के नाम से भी जाना जाता है, एक योगी और तपस्वी थे, जिन्हें अनुयायियों द्वारा भगवान कृष्ण की अभिव्यक्ति या पुरुषोत्तम की उच्चतम अभिव्यक्ति के रूप में माना जाता है, और आसपास जिसे स्वामीनारायण संप्रदाय ने विकसित किया।
1800 में, उन्हें उनके गुरु, स्वामी रामानंद द्वारा उद्धव संप्रदाय में दीक्षा दी गई और उन्हें सहजानंद स्वामी नाम दिया गया। विरोध के बावजूद, 1802 में रामानंद ने अपनी मृत्यु से पहले उद्धव संप्रदाय का नेतृत्व उन्हें सौंप दिया। स्वामीनारायण-परंपरा के अनुसार, सहजानंद स्वामी को स्वामीनारायण और उद्धव संप्रदाय को स्वामीनारायण संप्रदाय के रूप में जाना जाता है, एक सभा के बाद जिसमें उन्होंने अपने अनुयायियों को स्वामीनारायण मंत्र सिखाया।
उन्होंने "नैतिक, व्यक्तिगत और सामाजिक बेहतरी" और अहिंसा पर जोर दिया, और महिलाओं और गरीबों के लिए सुधार करने और बड़े पैमाने पर अहिंसक यज्ञ (अग्नि बलिदान) करने के लिए संप्रदाय के भीतर भी याद किया जाता है। अपने जीवनकाल के दौरान, स्वामीनारायण ने विभिन्न तरीकों से अपने करिश्मे और विश्वासों को संस्थागत रूप दिया। उन्होंने अनुयायियों की भगवान की भक्तिमय पूजा को सुविधाजनक बनाने के लिए छह मंदिरों का निर्माण किया, और शिक्षापत्री सहित एक शास्त्र परंपरा के निर्माण को प्रोत्साहित किया, जिसे उन्होंने 1826 में लिखा था। नारायण देव गाडी (वडताल गढ़ी) और नर नारायण देव गादी (अहमदाबाद गढ़ी), अपने ही विस्तारित परिवार से आचार्यों और उनकी पत्नियों के वंशानुगत नेतृत्व के साथ, जिन्हें मंदिरों में देवताओं की मूर्तियों को स्थापित करने और तपस्वियों को आरंभ करने के लिए अधिकृत किया गया था।
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श्री बेली राम जी, श्री स्वामी स्वरूपानंद जी महाराज (1 फरवरी 1884 - 9 अप्रैल 1936), श्री परमहंस अद्वैत मत वंश के एक भारतीय गुरु थे। उन्हें "श्री नंगली निवासी भगवान जी", "हरि हर बाबा", "सद्गुरुदेव जी" और "द्वितीय गुरु" के रूप में भी जाना जाता है। भारत (अब पाकिस्तान में) के कोहाट जिले के तेरी गाँव में जन्मे, युवा बेली राम जी को श्री परमहंस स्वामी अद्वैतानंद जी द्वारा 1900 के दशक की शुरुआत में टेरी में सन्यास में दीक्षा दी गई, जिन्होंने उनका नाम श्री स्वामी स्वरूपानंद जी रखा। स्वामी अद्वैतानंद जी के जीवन के दौरान, स्वामी स्वरूपानंद जी ने उत्तरी भारत में सन्यासियों (या त्यागियों) के एक आदेश का निर्माण किया और अपने गुरु की शिक्षाओं के प्रसार के उद्देश्य से कई केंद्रों की स्थापना की। श्री स्वामी अद्वैतानंद जी महाराज ने उन्हें आगरा में ध्यान करने के उद्देश्य से कहा भविष्य में आध्यात्मिक युग के सुधारक के रूप में उपयोग की जाने वाली आध्यात्मिक शक्ति को संरक्षित करें। शहर से दूर नीम के पेड़ के नीचे एक जंगल में दूसरे गुरु, अपने स्वयं के परमानंद में लीन, एक गुफा (जमीन के नीचे 3-4 फीट एक बहुत तंग गुफा) में काफी अलग दुनिया में घूमते थे। आगरा के कई निवासी, जो उसके नाम और ठिकाने से पूरी तरह अनजान थे, उससे आकर्षित हुए और कुछ खाने की चीजें अपनी सीट के पास इस विचार के साथ रख दीं कि शायद वह उन्हें स्वीकार कर ले। लेकिन दूसरे गुरु योगेश्वर को खाने-पीने से कोई लगाव नहीं था। वे केवल नीम की पत्तियों को उबाल कर खाते थे और इस तरह उनका दिव्य शरीर उस स्थान पर 14 वर्षों के ध्यान के बाद कंकाल बन गया था। आगरा में गुफा के चारों ओर एक मंदिर बनाया गया है जिसे तपोभूमि के नाम से जाना जाता है। श्री परमहंस स्वामी अद्वैतानंद जी ने स्वामी स्वरूपानंद जी महाराज को अपना आध्यात्मिक उत्तराधिकारी घोषित किया। चकौरी आश्रम, (अब गुजरात, पाकिस्तान में) लाखों रुपये की लागत से पंजाब में निर्मित एक सुंदर तीर्थस्थल, स्वामी स्वरूपानंद जी महाराज का सामूहिक मुख्यालय बना रहा।
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स्वरूपानंद (28 दिसंबर 1886 - 21 अप्रैल 1984) विवेकानंद के प्रत्यक्ष मठवासी शिष्य और चंपावत के पास मायावती में 1899 में विवेकानंद द्वारा स्थापित अद्वैत आश्रम के पहले अध्यक्ष थे। आश्रम धार्मिक मठ व्यवस्था, रामकृष्ण मठ की एक शाखा है, जिसे विवेकानंद ने अपने गुरु रामकृष्ण की शिक्षाओं पर स्थापित किया था।
स्वरूपानंद रामकृष्ण आदेश की एक अंग्रेजी भाषा की मासिक पत्रिका, प्रबुद्ध भारत के संपादक के रूप में रहे, जब यह 1898 में चेन्नई से आधार स्थानांतरित हुआ और 1906 तक बना रहा। विवेकानंद ने सारा बुल और अन्य दोस्तों को उस युवा शिष्य के बारे में बताया, जिसे उन्होंने दीक्षित किया मठवासी आदेश, "हमने आज एक अधिग्रहण किया है।"
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तिब्बतीबाबा (तिब्बती
बाबा) भारत के एक महान अद्वैत वेदान्तवादी योगी और गुरु थे।
प्रसिद्ध वेदान्तवादी योगी सोहम स्वामी उनके शिष्य थे।
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संत तुकाराम (1608-1650), जिन्हें तुकाराम के नाम से भी जाना जाता है सत्रहवीं शताब्दी एक महान संत कवि थे जो भारत में लंबे समय तक चले भक्ति आंदोलन के एक प्रमुख स्तंभ थे ।
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त्यागराज (तेलुगु: శ్రీ త్యాగరాజ; तमिल தியாகராஜ சுவாமிகள் ; 4 मई, 1767 – 6 जनवरी, 1847) भक्तिमार्गी कवि एवं कर्णाटक संगीत के महान संगीतज्ञ थे। उन्होने समाज एवं साहित्य के साथ-साथ कला को भी समृद्ध किया। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने सैंकड़ों भक्ति गीतों की रचना की जो भगवान राम की स्तुति में थे और उनके सर्वश्रेष्ठ गीत पंचरत्न कृति अक्सर धार्मिक आयोजनों में गाए जाते हैं।
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उपासनी महराज का जन्म का नाम काशीनाथ गोविंदराव उपासनी था (मई 15, 1870 – दिसंबर 24, 1941)। उनके शिष्य उन्हें सिद्ध पुरुष मानते थे। शिरड़ी के साईं बाबा से उन्होंने दीक्षा ली थी। महाराष्ट्र के सकोरी में उनका निवास था।
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उप्पलुरी गोपाल कृष्णमूर्ति (9 जुलाई 1918 - 22 मार्च 2007) एक बुद्धिजीवी थे जिन्होंने आध्यात्मिक ज्ञान की स्थिति पर सवाल उठाया था। अपनी युवावस्था में एक धार्मिक मार्ग का अनुसरण करने और अंततः इसे अस्वीकार करने के बाद, यू.जी. अपने 49वें जन्मदिन पर एक विनाशकारी जैविक परिवर्तन का अनुभव करने का दावा किया, एक घटना जिसे वे "आपदा" कहते हैं। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि "प्राकृतिक स्थिति" में यह परिवर्तन एक दुर्लभ, आकस्मिक, जैविक घटना है जिसका कोई धार्मिक संदर्भ नहीं है। इस वजह से, उन्होंने आध्यात्मिक लक्ष्य के रूप में "प्राकृतिक स्थिति" का अनुसरण करने से लोगों को हतोत्साहित किया। उन्होंने विचार के मूल आधार को ही खारिज कर दिया और ऐसा करने से विचार और ज्ञान की सभी प्रणालियों को नकार दिया। इसलिए उन्होंने समझाया कि उनके दावे अनुभवात्मक थे और सट्टा नहीं - "उन्हें बताएं कि समझने के लिए कुछ भी नहीं है।"
वह अपने समकालीन जिद्दू कृष्णमूर्ति से संबंधित नहीं थे, हालांकि थियोसोफिकल सोसाइटी के साथ जुड़ाव के कारण दोनों व्यक्तियों की कई बैठकें हुईं।
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उत्पलदेव (सी। 900-950 सीई) कश्मीर के एक भारतीय दार्शनिक और धर्मशास्त्री थे। वह त्रिक शैव परंपरा से संबंधित थे और अद्वैतवादी आदर्शवाद के प्रत्यभिज्ञा स्कूल के सबसे महत्वपूर्ण विचारक हैं। उनका ईश्वरप्रत्यभिज्ञ-कारिका (आईपीके, भगवान की पहचान पर छंद) प्रत्यभिज्ञा स्कूल का सबसे महत्वपूर्ण और केंद्रीय कार्य था। उत्पलदेव का महान अभिभाषक अभिनवगुप्त पर एक बड़ा प्रभाव था, जिनके कार्यों ने बाद में उत्पलदेव की रचनाओं को ग्रहण किया। हालाँकि, इंडोलॉजिस्ट रैफेल टोरेला के अनुसार "अभिनवगुप्त के अधिकांश विचार उत्पलदेव द्वारा पहले ही बताए गए विचारों का विकास हैं।"
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वल्लभाचार्य महाप्रभु (1479-1531 CE), जिन्हें वल्लभ, महाप्रभुजी और विष्णुस्वामी या वल्लभ आचार्य के नाम से भी जाना जाता है, एक हिंदू भारतीय संत और दार्शनिक हैं जिन्होंने भारत के ब्रज (व्रज) क्षेत्र में वैष्णववाद के कृष्ण-केंद्रित पुष्टिमार्ग संप्रदाय की स्थापना की, और शुद्ध अद्वैत (शुद्ध गैर-द्वैतवाद) का वेदांत दर्शन। वह जगद्गुरु आचार्य और पुष्टि मार्ग भक्ति परंपरा के गुरु और शुद्धाद्वैत ब्रह्मवाद (वेदांत दर्शन) हैं, जिसकी स्थापना उन्होंने वेदांत दर्शन की अपनी व्याख्या के बाद की थी। वल्लभाचार्य का जन्म हुआ था एक तेलुगु तैलंग ब्राह्मण परिवार जो वर्तमान में वाराणसी में रह रहा था, जो 15 वीं शताब्दी के अंत में वाराणसी में मुस्लिम आक्रमण की उम्मीद करते हुए श्री वल्लभ की उम्मीद करते हुए छत्तीसगढ़ राज्य के चंपारण भाग गया था। वल्लभ नाम का अर्थ है प्रिय या प्रेमी, और यह विष्णु और कृष्ण का एक नाम है।
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श्री वदिराजा तीर्थरु (सी.1480 - सी.1600) एक द्वैत दार्शनिक, कवि, यात्री और रहस्यवादी थे। अपने समय के एक बहुज्ञ, उन्होंने माधव धर्मशास्त्र और तत्वमीमांसा पर कई रचनाएँ लिखीं, जो अक्सर विवादात्मक थीं। इसके अतिरिक्त, उन्होंने कई कविताओं की रचना की और सोधे मठ के पुजारी के रूप में, उडुपी में मंदिर परिसर का जीर्णोद्धार किया और पूजा की पर्याय प्रणाली की स्थापना की। उन्हें माधवाचार्य की रचनाओं का कन्नड़ में अनुवाद करके, हरिदास आंदोलन को गति देने और योगदान देकर उस समय के कन्नड़ साहित्य को समृद्ध करने का श्रेय भी दिया जाता है। उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से कर्नाटक और हिंदुस्तानी संगीत दोनों को प्रभावित किया है। उनकी रचनाएँ मुख्यतः कन्नड़ और संस्कृत में हैं। उनकी मुद्रा 'हयवदन' है। उनकी रचनाओं की विशेषता उनके काव्य उत्कर्ष, तीक्ष्ण बुद्धि और हास्य है।
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माधवाचार्य, द्वैतवाद के प्रवर्तक मध्वाचार्य से भिन्न हैं।
माधवाचार्य या माधव विद्यारण्य (1296 -- 1386), विजयनगर साम्राज्य के संस्थापक हरिहर राया प्रथम एवं बुक्का राया प्रथम के संरक्षक, सन्त एवं दार्शनिक थे। उन्होने दोनो भाइयों को सन् 1336 में विजयनगर साम्राज्य की स्थापना में सहायता की। वे विद्या के भण्डार-सरस्वती के वरद पुत्र, महान तपस्वी और अद्भुत प्रतिभावान् थे। संस्कृत वाङ्मय में इतनी अधिक एवं उनकी इतनी उच्चकोटि की कृतियाँ है कि उन्हें इस युग के व्यास कहा जाता है। उन्होने सर्वदर्शनसंग्रह की रचना की जो हिन्दुओं दार्शनिक सम्प्रदायों के दर्शनों का संग्रह है। इसके अलावा उन्होने अद्वैत दर्शन के 'पंचदशी' नामक ग्रन्थ की रचना भी की। विद्यारण्य की तुलना में यदि मध्यकाल में दूसरा कोई नाम लिया जा सकता है, तो वह समर्थ गुरु रामदास का है, जिन्होंने शिवाजी महाराज को माध्यम बनाकर इस्लामी साम्राज्य का मुकाबला किया।
स्वामी विद्यारण्य का जन्म 11 अप्रैल 1296 को तुंगभद्रा नदी के तटवर्ती पम्पाक्षेत्र (वर्तमान हम्पी) के किसी गांव में हुआ था। उनके पिता मायणाचार्य उस समय के वेद के प्रकांड विद्वान थे। मां श्रीमती देवी भी विदुषी थी। इन्हीं विद्यारण्य के भाई आचार्य सायण ने चारों वेदों का वह प्रतिष्ठित टीका की थी, जिसे ‘सायणभाष्य’ के नाम से जाना जाता है। विद्यारण्य का बचपन का नाम माधव था। विद्यारण्य का नाम तो 1331 में उन्होंने तब धारण किया, जब उन्होंने संन्यास ग्रहण किया।
विद्यारण्य ने हरिहर प्रथम के समय से राजाओं की करीब तीन पीढ़ियों का राजनीतिक व सांस्कृतिक निर्देशन किया। 1372 में करीब 76 वर्ष की आयु में उन्होंने राजनीति से सेवानिवृत्ति ली और शृंगेरी वापस पहुंच गये और उसके पीठाधीश्वर बने। इसके करीब 14 वर्ष बाद 1386 में उनका स्वर्गवास हो गया। लेकिन जीवनभर वह भारत देश, समाज व संस्कृति के संरक्षण की चिन्ता करते रहे। उन्होंने अद्वैत दर्शन से संबंधित ग्रंथों के साथ सामाजिक महत्व के ग्रंथों का भी प्रणयन किया। अपनी पुस्तक ‘प्रायश्चित सुधानिधि’ में उन्होंने हिन्दुओं के पतन के कारणों की भी अपने ढंग से व्याख्या की है। उन्होंने हिन्दुओं की विलासिता को उनके पतन का सबसे बड़ा कारण बताया। नियंत्रणहीन विलासिता का इस्लामी जीवन हिन्दुओं को बहुत आकर्षित कर रहा था। नाचने गाने वाली दुश्चरित्र स्त्रियों व मुस्लिम वेश्याओं के संग का उन्होंने कठोरता से निषेध किया है।
विद्यारण्य की प्रारंभिक शिक्षा तो उनके पिता के सान्निध्य में ही हुई थी, लेकिन आगे की शिक्षा के लिए वह कांची कामकोटि पीठ के आचार्य विद्यातीर्थ के पास गये थे। इन स्वामी विद्यातीर्थ ने विद्यारण्य को मुस्लिम आक्रमण से देश की संस्कृति और समाज की रक्षा हेतु नियुक्त किया था। विद्यारण्य ने गुरु का आदेश पाकर पूरा जीवन उसी लक्ष्य की प्राप्ति हेतु समर्पित कर दिया।
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स्वामी विशुद्धानन्द परमहंसदेव एक आदर्श योगी, ज्ञानी, भक्त तथा सत्य संकल्प महात्मा थे। परमपथ के इस प्रदर्शक ने योग तथा विज्ञान दोनों ही विषयों में परमोच्च स्थिति प्राप्त कर ली थी।
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श्री विशवेशा तिरथारू, आधिकारिक तौर पर śrī śrī 1008 śrī viśveśa-tīrtha śrīpād kannada: ಶ್ರೀ ಶ್ರೀ ೧೦೮ ಶ್ರೀಪಾದಂಗಳವರು ಶ್ರೀಪಾದಂಗಳವರು (27 अप्रैल 1931-29 दिसंबर 2019) के रूप में जाना जाता है, एक भारतीय हिंदू गुरु, सेंट और प्रेसिडेंट स्वामजी, सेंट और प्रेसिडेंट स्वामिज, सेंट और प्रेसिडेंट स्वामिज, Srra, Srraiji श्री माधवाचार्य द्वारा स्थापित दर्शन के द्वैत विद्यालय से संबंधित अष्ट मठों में से एक।
श्री विश्वेश तीर्थारू पेजावर मठ के वंश में 32 वें स्थान पर थे, श्री अधोक्षजा तीर्थरु से शुरू होकर, जो श्री माधवाचार्य के प्रत्यक्ष शिष्यों में से एक थे। वे विश्व तुलु सम्मेलन के मानद अध्यक्ष थे। उन्होंने बंगलौर में पूर्णप्रज्ञा विद्यापीठ की स्थापना की थी जो 63 वर्ष से अधिक पूर्ण हो चुकी है। यहां वेदांत पर कई विद्वानों को प्रशिक्षित किया जाता है। उन्होंने पूर्णप्रज्ञा विद्यापीठ के छात्रों के लिए 38 न्यायसुदामंगल - स्नातक भी आयोजित किए हैं। समाज के प्रति उनके कार्यों और सेवा के लिए उन्हें 2020 में मरणोपरांत भारत के दूसरे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया।
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व्यासतीर्थ (सी.. 1460 - सी. 1539), जिन्हें व्यासराज या चंद्रिकाचार्य भी कहा जाता है, एक हिंदू दार्शनिक, विद्वान, नीतिज्ञ, टिप्पणीकार और माधवाचार्य के वेदांत के द्वैत क्रम से संबंधित कवि थे। विजयनगर साम्राज्य के संरक्षक संत के रूप में, व्यासतीर्थ द्वैत में एक स्वर्ण युग में सबसे आगे थे, जिसने द्वंद्वात्मक विचार में नए विकास देखे, पुरंदरा दास और कनक दास जैसे भाटों के तहत हरिदास साहित्य का विकास और उपमहाद्वीप में द्वैत का विस्तार हुआ। . न्यायामृत, तत्पर्य चंद्रिका और तारक तांडव (सामूहिक रूप से व्यास त्रय कहा जाता है) में उनके तीन विवादास्पद विषय-वस्तु वाले डॉक्सोग्राफ़िकल कार्यों में अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, महायान बौद्ध धर्म, मीमांसा और न्याय में उप-दर्शनों की एक विश्वकोश श्रेणी का दस्तावेजीकरण और समालोचना की गई, जिससे आंतरिक अंतर्विरोधों और भ्रांतियों का पता चलता है। उनके न्यायामृत ने देश भर में अद्वैत समुदाय में एक महत्वपूर्ण हलचल पैदा कर दी, जिसके लिए मधुसूदन सरस्वती को अपने ग्रंथ अद्वैतसिद्धि के माध्यम से खंडन की आवश्यकता थी। उन्हें माधव परम्परा में प्रह्लाद का एक अंश माना जाता है। ब्राह्मण परिवार में यतीराजा के रूप में जन्मे, अब्बूर में मठ के पुजारी ब्रम्हण्य तीर्थ ने उनके ऊपर संरक्षकता ग्रहण की और उनकी शिक्षा का निरीक्षण किया। उन्होंने कांची में हिंदू धर्म के छह रूढ़िवादी विद्यालयों का अध्ययन किया और बाद में मुलबगल में श्रीपादराजा के तहत द्वैत के दर्शन का अध्ययन किया, अंततः उन्हें पोंटिफ के रूप में सफलता मिली। उन्होंने चंद्रगिरि में सलुवा नरसिम्हा देव राय के आध्यात्मिक सलाहकार के रूप में सेवा की, हालांकि उनका सबसे उल्लेखनीय जुड़ाव तुलुवा राजा कृष्णदेव राय के साथ था। उत्तरार्द्ध के शाही संरक्षण के साथ, व्यासतीर्थ ने विद्वानों के हलकों में द्वैत का व्यापक विस्तार किया, अपने विवादास्पद क्षेत्रों के साथ-साथ कर्नाटक शास्त्रीय भक्ति गीतों और कृतियों के माध्यम से आम लोगों के जीवन में। इस संबंध में, उन्होंने कृष्ण के कलम नाम के तहत कई कीर्तन लिखे। उनकी प्रसिद्ध रचनाएँ कृष्ण नी बेगने, दसरेन्दरे पुरंदरा, कृष्ण कृष्ण एंडु, ओलागा सुलभो और कई अन्य हैं। राजनीतिक रूप से, व्यासतीर्थ बेट्टाकोंडा जैसे गांवों में सिंचाई प्रणाली के विकास और बेंगलुरु और मैसूर के बीच नए विजित क्षेत्रों में कई वायु मंदिरों की स्थापना के लिए जिम्मेदार थे ताकि किसी भी विद्रोह को शांत किया जा सके और साम्राज्य में उनके एकीकरण को सुविधाजनक बनाया जा सके।
विचार के द्वैत विद्यालय में उनके योगदान के लिए, उन्हें माधव और जयतीर्थ के साथ, द्वैत (मुनित्रय) के तीन महान संत माने जाते हैं। विद्वान सुरेंद्रनाथ दासगुप्ता कहते हैं, "व्यास-तीर्थ द्वारा दिखाए गए तीव्र द्वंद्वात्मक सोच का तार्किक कौशल और गहराई भारतीय विचार के पूरे क्षेत्र में लगभग बेजोड़ है"।
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जाफना के ज्ञान गुरु शिव योगस्वामी (तमिल: சிவயோகசுவாமி, सिंहली: යොගස්වාමි; 1872-1964) 20वीं सदी के एक आध्यात्मिक गुरु, एक शिवज्ञानी और अनाथा सिद्धर के रूप में बौद्ध धर्म के भक्त थे और कई हिंदू थे। वह नंदीनाथ सम्प्रदाय की कैलास परम्परा के 161वें जगदाचार्य थे। योगस्वामी को सतगुरु चेल्लप्पास्वामी के मार्गदर्शन में कुंडलिनी योग में प्रशिक्षित और अभ्यास किया गया था, जिनसे उन्होंने गुरु दीक्षा (दीक्षा) प्राप्त की थी।
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योगी रामसूरतकुमार (1 दिसंबर 1918 - 20 फरवरी 2001) एक भारतीय संत और रहस्यवादी थे। उन्हें "विसिरी समियार" के रूप में भी जाना जाता था और उन्होंने अपने ज्ञानोदय के बाद का अधिकांश समय तमिलनाडु के एक छोटे से शहर तिरुवन्नमलाई में बिताया, जो दुनिया भर में आध्यात्मिक साधकों को आकर्षित करने के लिए प्रसिद्ध है और प्रबुद्ध आत्माओं का एक निरंतर वंश रहा है। वह अपने समय के तीन सबसे प्रसिद्ध संतों के ज्ञानोदय के विकास में योगदान को स्वीकार करते हैं। ये व्यक्ति थे श्री अरबिंदो, इंटीग्रल योग के संस्थापक, रमण महर्षि, जो अपने समय के "आध्यात्मिक महापुरुषों" में से एक थे, और स्वामी रामदास, योगी के अंतिम गुरु थे।
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योगीजी महाराज (23 मई 1892 - 23 जनवरी 1971), जन्म जीना वासनी, एक हिंदू स्वामी थे और बोचासनवासी अक्षर पुरुषोत्तम स्वामीनारायण संस्था (बीएपीएस) में स्वामीनारायण के चौथे आध्यात्मिक उत्तराधिकारी थे: 55 : 10 स्वामीनारायण सम्प्रदाय की एक प्रमुख शाखा। BAPS के तत्वमीमांसा के अनुसार, योगीजी महाराज को गुरु परम्परा में शास्त्रीजी महाराज के बाद अक्षर का अगला पुनरावृत्ति माना जाता है, जो "पूर्ण भक्तों" की एक अखंड रेखा है, जो "गुनितानंद स्वामी के माध्यम से कार्यालय का प्रमाणीकरण और स्वयं स्वामीनारायण को वापस प्रदान करते हैं।" : 86 : 634 प्रमुख स्वामी महाराज के साथ, जिन्होंने बीएपीएस के प्रशासनिक प्रमुख के रूप में कार्य किया, उन्होंने "नए कार्यक्रमों, नए क्षेत्रों में विस्तार, और मंदिरों के निर्माण" के माध्यम से बीएपीएस के विकास को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।: 50 गुरु के रूप में, उन्होंने 60 से अधिक मंदिरों का अभिषेक किया और 4000 से अधिक कस्बों और गांवों का दौरा किया।: 10 वे विशेष रूप से युवाओं की भक्ति को आकर्षित करने में प्रभावी थे और उनमें से बड़ी संख्या में तपस्वियों के रूप में दीक्षित हुए। BAPS का विदेशी विस्तार.: 10 : 51 प्रमुख स्वामी महाराज को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने के बाद 23 जनवरी 1971 को उनका निधन हो गया.: 178
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