टुसू पर्व

टुसू पर्व झारखंड के कुड़मी और आदिवासियों का सबसे महत्वपूर्ण पर्व है। यह जाड़ों में फसल कटने के बाद पौष के महीने में मनाया जाता है। टूसू का शाब्दिक अर्थ कुँवारी है। इस पर्व के इतिहास का कुछ खास लिखित स्त्रोत नहीं है लेकिन इस पर्व में बहुत से कर्मकांड होते हैं और यह अत्यंत ही रंगीन और जीवन से परिपूर्ण त्यौहार है।[मकर संक्राति] के अवसर पर मनाये जाने वाले इस त्यौहार के दिन पूरे [कूड़मी,आदिवासी] समुदाय द्वारा अपने नाच-गानों एवं मकरसंक्रांति पर सुबह नदी में स्नान कर उगते सूरज की अर्ग/प्रार्थना करके टुसू(लक्ष्मी/सरस्वती) की पूजा की जाती है तथा नववर्ष की समृद्धि और खुशहाली की कामना की जाती है इस प्रकार यह आस्था का पर्व श्रद्धा,भक्ति और आनंद से परिपूर्ण कर देती हैं।
यह परब मुख्यतः तीन नामों से जाना जाता है।:-
1. टुसु परब
2. मकर परब
3. पूस परब ।
उपरोक्त तीन नामों के अलावा बांउड़ी एवं आखाईन जातरा का एक विशेष महत्त्व है।
बांऊड़ी के दूसरा दिन या मकर सक्रान्ति के दूसरे दिन “आखाईन जातरा” मनाया जाता है। कृषि कार्य समापन के साथ साथ कृषि कार्य प्रारंभ का भी आगाज किया जाता है।
कहने का तात्पर्य यह है कि बांउड़ी तक प्रायः खलिहान का कार्य समाप्त कर आखाईन जातरा के दिन कृषि कार्य का प्रारंभ मकर संक्रांति के दिन होता है नये वर्ष में अच्छे राशि गुण (पांजी अनुसार) वाले घर के सदस्य के द्वारा सुबह नहा धोकर नये कपड़े पहनकर उगते सूर्य की पहली किरण पर हारघुरा (जोतना) यानी (बोहनी)हाईल पून्हा नेग संपन्न करता है खेत में हार तीन या पांच
या सात बार घुमाकर बैलों को हार जुआईट के साथ घर लाकर आंगन में दोनों बैलों के पैरों को धोकर उनके पैरों पर तेल मखाया जाता है उसके बाद हार जोतने गये कृषक गोबरडिंग(बहूत सारा गोबर रखने की जगह) में गोबर काटकर कृर्षि काम की शुरूआत करता है। कृषक के घर घुसने के पहले उसके पैर को धोकर तेल लगाया जाता है उसके उपरांत घर के सभी पुरुष सदस्यों का पैर धोकर तेल लगाया जाता है। यह काम घर की मां या बड़ी बहु करती है। इस प्रकार यह दिन कुड़मी एवं आदिवासी जनजातीय समुदायों, किसानों के लिए विशेष महत्व रखता है।
आखाईन जातरा के दिन हर तरह के काम के लिए शुभ माना जाता है। बड़े बुजुर्ग के कथानुसार इस दिन नया घर बनाने के लिए बुनियादी खोदना या शुरू करना अति उत्तम दिन माना जाता है। इसमें कोई पाँजी पोथी का जरूरत नहीं पड़ती है इस दिन को नववर्ष के रूप में मनाया जाता है। इस टुसू पर्व में किसी किसी गाँव में मकर सक्रान्ति के दिन “फअदि”खेल एवं आखाईन जातरा के दिन “भेजा बिन्धा”का भी नेगाचरि(रिवाज)है।
इस टुसू परब में “पीठा” का भी एक महत्वपूर्ण स्थान माना जाता है। आखाईन जातरा के बाद से ही फाल्गुन महीना तक सगे समबन्धि,रिश्तेदारों के घर”गुड़ पीठा”पहुँचाया जाता है। गुड़ पीठा पहुँचाने की इस नेग (रिवाज,प्रथा)को “कुटुमारी”कहा जाता है। सगे समबन्धि,रिश्तेदार को कुटु्म्ब कहा जाता है।गुड़ पीठा प्रायः तीन तरह का छाँका जाता है।:
1.थापा पीठा(आबगा गुड़ पीठा)
2.गरहोवआ पीठा (जल दिया पीठा/गुला पीठा) 3.मसला पीठा ।
यह त्यौहार झारखंड के दक्षिण पूर्व रांची,खूंटी,
सरायकेला-खरसावां,पूर्वी सिंहभूम,पश्चिम सिंहभूम, रामगढ़, बोकारो, धनबाद जिलों ,तथा पंचपरना क्षेत्र की प्रमुख पर्व है,टुसू पर्व पंचपरगना की सबसे महत्वपूर्ण त्यौहार है जिसकी शुरुआत 15 दिसंबर यानी अघन संक्रांति से शुरू होती है।
अघन संक्रांति को कुंवारी कन्याओं द्वारा टुसु(चौड़ल) की स्थापना (थापने) की जाती है टुसू को लक्ष्मी/सरस्वती के प्रतीक के रूप में एक कन्या है जिसकी कुंवारी कन्या पूरे एक महीना सेवा (पूजा प्रार्थना) करती है जिसके अवसर पर निम्न प्रकार से प्रार्थना एवं आराधना की जाती है-
1.आमरा जे मां टुसु थापी,अघन सक्राइते गो।

अबला बाछुरेर गबर,लबन चाउरेर गुड़ी गो।।

तेल दिलाम सलिता दिलाम,दिलाम सरगेर बाती गो।
सकल देवता संझ्या लेव मां,लखी सरस्वती गो।।
गाइ आइल’ बाछुर आइल’,आइल’ भगवती गो।
संझ्या लिएं बाहिराइ टुसू, घरेर कुल’ बाती गो।।

2.आगहनअ सांकराईते टुसु,हाँसे हाँसे आबे गो।

पूसअ साँकराईते टुसु,काँदे काँदे जाबेगो ।।

इस तरह शाम को सूर्यास्त के बाद प्रतिदिन थापना जगह बैठकर पौष सक्रान्ति तक टुसु आराधना गीत कुंवारी कन्याओं के समूहों द्वारा टुसू गीत गाया जाता है। उसके बाद मकर संक्रांति के एक सप्ताह पहले टुसू के प्रतीक रुप में चौड़ल को बांस,चमकीले कागज,कपड़े आदि के सहयोग से नींव आयताकार या वर्गाकार और ऊपर नुकिला यानी मंदिर के आकार का बनाया जाता है। उसके बाद मकर संक्रांति तक प्रति दिन शाम 7 बजे से लेकर 10 बजे रात्रि तक चौड़ल को पूरे गांव में गांजे बाजे के साथ घुमाया जाता है जिस अवसर निम्न प्रकार के
गीत गाये जाते हैं :–
1.उपोरे पाटा तअले पाटा,ताई बसेछे दारअगा ।

छाड़ दारअगा रास्ता छाड़अ,टुसु जाछे कईलकाता।।

2.एक सड़अपे दूई सड़अपे,तीन सड़अपे लक चोले।

हामदेर टुसु एकला चोले,बिन बातासे गा डोले।।

इस प्रकार टुसू घुमाने के दिन से यह टुसू में नाचने गाने का शुरुआत होता है जो बसंत पंचमी तक चलता है मकर संक्रांति एवं पौस संक्रांति पर लगने टुसु मेलालों में गाजा बाजा के साथ आस पास के गांवों के लोग समूहों में टुसु गीत गाते नाचते हुए मेला में आते हैं मेलाओं में टुसू को घुमाया जाता है। कुछ मेला को छोड़कर प्रायः सभी मेला मकर संक्रांति के बाद अलग-अलग तिथि को लगता है।
इस प्रकार अघन संक्रांति से पौस/मकर संक्रान्ति (14 जनवरी) तक टुसू कन्या की सेवा की जाती है। 15/16 जनवरी को टुसू कन्या की प्रतीक रूप में चौड़ल बनाकर नदी में पारंपरिक गाजे बाजे के साथ टुसू गीत गाते हुए, नाचते डेगते विसर्जित की जाती है। घर से नदी तक रास्ते पर जुलूस के रूप में अलग अलग टोली टुसू धून में नदी तक नाचते डेगते जातें है जिसको देखने के लोग नदी के ऊपरी स्थल(मैदान) में रास्ते के दोनों छोर पर खड़े होकर नृत्य मंडली को देखते हैं नृत्य मंडली अलग अलग गांवों से आती है जिसमें टूसू कन्या के प्रतीक रूप में चौड़ल एवं पारंपरिक वाद्य- ढोल,नगाड़ा,शहनाई, बांसुरी,मांदर आदि अनेक वाद्ययंत्रों के टुसू धून में स्त्री पुरुष नाचते डेगते आते हैं। ऐसे तो यह नाच डेग पूरे रास्ते भर चलती है पर नदी के तट पर लगने वाली मेले में टुसू नृत्य अपने चरम स्थीति पर होती है। जिसको देख देखने के लिए लोगों भीड़ उमड़ पड़ती है यह दृश्य को देखकर मन,मस्तिष्क और खुशियों से मचल उठता है दृश्य देखकर दर्शक भी झूमने लगता है। ऐसा अदभुत दृश्य मकर संक्रांति के दूसरे दिन लगने वाले प्रमुख मेलों में देखने को मिलती है। इस अवसर पर बंगाल – झारखंड की सीमा स्थीत स्वर्णरेखा नदी तट पर लगने वाला सतीकहाट मेला बहुत प्रसिद्ध है यह प्राचील मेला आदि युग से लगती आ रही है। इस मेले के थोड़े ऊपर स्वर्णरेखा,कांची,राढू तीनों नदीयों का संगम होता है इस लिहाज से यह स्थान बहुत परित्र होता है। आस पास के लोगों में गया गंगा के रुप में इस स्थान को मान्यता है। मेरा देखने वालें सभी श्रद्वालु नदी में उतर कर सबरनी माता की प्रार्थना करते हैं। नदी में हाथ धोकर बैठकर गुड़पीठा मुड़ी खाने का रिवाज है,कुछ श्रद्वालु नहा-धोकर सबरनीमाता का प्रार्थना भी करते हैं। मकर संक्रांति के दिन सतीकहाट पर पंचपरगना,बंगाल,झारखंड के लाखों श्रद्धालु स्नान करने आते हैं। यह मेला दो दिन तक रहती है मकर संक्रांति को प्रारंभ होकर दूसरे दिन करोड़ों श्रद्धालु टूसूकन्या को विसर्जित करने आते जिस अवसर पर नदी के दोनों किनारों बहुत बड़े भूभाग में मेला का आयोजन होता है शाम को टुसू विर्सजन के साथ सतीकहाट मेला खत्म हो जाती है इस प्रकार सतीकहाट टुसू मेला के साथ पंचपरगना के अन्य क्षेत्रों,नदी तटों पर अलग-अलग दिन अलग-अलग मेलों का लगना प्रारंभ हो जाता है जो बसंत पंचमी तक यानी सरस्वती पुजा तक चलता है। अर्थात पूरे पौस महिना टूसू मेला का आयोजन होता है।
जिनमें प्रमुख मेला –
1.हाराडी बुडा़ढ़ी टूसू मेला-सतीक हाट मेला के दिन।
2.हरिहर टुसू मेला-सतीक हाट मेला के दूसरे दिन।
3.हुडरू टुसू मेला-सतीक हाट मेला के दिन।
4.राजरप्पा टुसु मेला -सतीक हाट मेला के दिन।
5.हाथिया पत्थर मेला, फूसरो- 4 जनवी।
6.छाता पोखईर मेला।
7.माठा मेला।
8.जयदा मेला।
9.पड़सा मेला।
10.हिड़िक मेला।
11.बुटगोड़ा मेला।
12.सालघाट मेला।
14.बूढ़हा बाबा जारगोडीह मेला।
15.राम मेला।
16.भूवन मेला (कुईडीह)
17.कारकिडीह मेला।
18.पुरनापानी मेला (हाड़ात)
19.सीता पाईस्ज मेला।
20.पानला मेला।
21.सुभाष मेला।(सुईसा)।
22.बूढ़हाडीह मेला।
23.बानसिंह मेला।
24.सिरगिटी मेला।
25.बेनियातुंगरी मेला।
26.कुलकुली मेला।
27.जोबला मेला।
28.इंचाडीह मेला।
29.दिवड़ी मेला।
30.सूर्य मन्दिर मेला
31.नामकोम टुसू मेला,रांची।
32.मोरावादी टुसू मेला- 3 जनवरी।
34.लादुपडीह टुसू मेला ।
35.डिरसीर-मुरूरडीह मेला।
37.बांकू टूसू मेला।
38.टायमारा टुसू मेला।
39.आड़िया नदी टुसू मेला।
40.घुरती सतीक हाट मेला।
इस प्रकार पूरे पौस मास तक टूसू मेला का आयोजन पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।
इस तरह के मेलों का आयोजन किसी अन्य पर्व – त्यौहारों में कभी नहीं होती। भारत की प्रसिद्ध कुंभ मेला के अलावे टूसू पर्व ही एक ऐसा पर्व है जो पूरे दो महीने तक लगातार अलग-अलग जगहों पर विशेष कर नदी के किनारों,टुंगरी,पहाड़ो,धार्मिक स्थलों पर विशेष रुप से टूसू पर्व का आयोजन होता है इससे प्रतीत होता है कि टुसू मेला का कितना महत्व है।
आज यह पर्व संपूर्ण पंचपरगना ही नही समूचा झारखंड का प्रमुख त्यौहार है जिसको मानने वाले झारखंडी के सभी जातियों विशेषकर-कुर्मी,महतो,साहु, बनिया, तेली,गोवार,
कुम्हार,अहिर,मुंडा,संस्थाल,उरांव,हो,कोइरी,गोसाईं,
सूढ़ी,मानकि,मांझी आदि अनेक जातियों के समुदायों (OBC,ST,SC) सभी आपस में मिलजुलकर पुरे हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं।
यह पर्व झारखंड की संस्कृति के पोषक स्वरूप है
जिसमें पुस गीत,नृत्य,वाद्य यंत्रों की मधुर संगीत है। इसमें एक विशेष प्रकार की रस्म है,एक विशेष प्रकार की मान्यता है। इसमें ही नये वस्त्र पहने का विशेष महत्व है। परिवार के सभी लोगों के लिए नये कपड़े लेने का रिवाज है। इस प्रकार यह पर्व धार्मिक विश्वास,पारंपरिक मान्यता,नये वर्ष के आगमन,अच्छे फसल की प्राप्ति और खुशहाली के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है।

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