सिंहगढ़ का किला

सिंहगढ़, सिंहगड, (अर्थ : सिंह का दुर्ग) ,भारत के महाराष्ट्र राज्य के पुणे ज़िले में स्थित एक पहाड़ी क्षेत्र पर स्थित एक दुर्ग है जो पुणे से लगभग 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। दुर्ग को पहले कोंढाना के नाम से भी जाना जाता था। यह दुर्ग समुदतल से लगभग 4400 फूट ऊँचाई पर स्थित हेेै। सह्याद्री के पूर्व शाखा पर फैला भुलेश्वर की ‘रांगेवर’ यह दुर्ग बना है।दो सीढ़ियों जैसा दिखाई देनेवाला पहाडी सा भाग और दूरदर्शन के लिए खडा किया ‘मनोरा’ इस कारण पुणे से कही भी वो सबको आकर्षित करता है। पुरंदर, राजगड, तोरणा, लोहगड, विसापूर, तुंग ऐसा प्रचंड मुलुख इस दुर्ग से दिखाई देता है।
किले का पहले का नाम ‘कोंढाणा’ है। पूरा किला आदिलशाही में था।दादोजी कोंडदेव ये आदिलशहा की ओर से सुभेदार पद पर चुने गए। आगे इ.स. 1647 में किलेपर अपना लष्करी केंद्र बनाया। आगे इ.स. 1649 में शहाजी राजा को छुड़ाने के लिए शिवाजी राजा ने यह किला फिर से आदिलशह को सुपुर्द किया। पुरंदर के तह में जो किले मुगल को दिए उसमें कोंडाना किला भी था। मुगलोंकी तरफ से उदेभान राठोड यह कोंडाना का अधिकारी था। यह राजपूत था पर बाद में मुसलमान बन गया था।
शिवाजी महाराज का कालखंड में उनके विश्वास के सरदार और बालमित्र तानाजी मालुसरे और उनके मावले इस गाँव के सैनिकों ने (मावळ प्रांत से भरती हुए सैनिको का समूह) यह किला एक चढाई में जीता। इस लढाई में तानाजी को वीरमरण आया और प्राणो का बलीदान देकर किला जीता इसलिए शिवाजी महाराजा ने “गड आला पण सिंह गेला”(मतलब दुर्ग मिला पर सिंह गया) ये वाक्य उच्चारे थे । आगे उन्होंने कोंढाणा यह नाम बदलकर “सिंहगड” ऐसा नाम रखा। सिंहगड यह मुख्यतः तानाजी मालुसरे इनके बलिदान के कारण प्रसिद्ध है। सिंहगढ़ का युद्ध, देखें
तानाजी मालुसरे नाम का हजारी सैनिक का था। उसने कबूल किया कि, ‘कोंडाणा अपन लेंगे’, ऐसा कबूल करके वस्त्रे, पान लेकर किले के यत्नास 500 आदमी लेकर किले के नीचे गया और दोनो सैनिक मर्दाने चुनकर रात को किले की दिवार पर चढाए। किले पर उदेभान रजपूत था। उसे पता चला कि गनिमाके लोग आए और ये खबर पता चलने पर कुल रजपूत कंबरकस्ता होकर, हाती तोहा बार लेकर, हिलाल (मशाल), चंद्रज्योती लगाकर बारासौ आदमी तोफवाले और तिरंदाज, बरचीवाले, चलकर आए, तब सैनिक लोगोने फौजपर रजपुत के भी चलकर आऐ, बडा युद्ध एक प्रहर हुआ। पाच सौ रजपूत मारे गए,उदेभान किल्लेदार खाशा की और तानाजी मालुसरा इनकी मुठभेड़ हुई। दोघे बड़े योद्धे, महशूर, एक एक से बढचढ पडे, तानाजीचे बाँए हाथ की ढाल टुटी, दूसरी ढाल समयास आई नहीं, फिर तानाजीने अपना बाँए हाथ की ढाल करके उसे खींच कर , दोनो महरागास भडके। दोनो की मौत हुई। फिर सूर्याजी मालुसरा (तानाजीचा भाई), इसने हिंमत कर के किला कुल लोग समेटते हुए बचे राजपूत मारे। किला काबीज किया।
शिवाजी महाराज को दुर्ग जीतने की और तानाजी गिरने का समाचार मिला तब शिवाजी महाराज ने दुर्ग मिला पर सिंह गया एसा कहा।
माघ वद्य नवमी दि. 4 फरवरी 1672 को यह युद्ध हुआ था।
सिंहगड पर लगे फलक के अनुसार
सिंहगड का नाम कोंढाणा, इसामी नाम के कवीने फुतुह्स्सलातीन या शाहनामा-इ-हिंद इस फार्शी काव्य में (इ. 1350) मुछ्म्द तुघलक ने इ.1628 में कुंधीयाना किले को लिया। उस समय यह किला नागनायक नाव के कोली के पास था।
अहमदनगर के निजामशाही काल में कोंढाणा का उल्लेख इ.1482, 1553, 1554 व 1569 के समय के हैं इ.1635 के लगभग कोंढाणा पर सीडी अवर किलेदार थे मोगल व आदिलशाहा इऩ्होने मिलकर कोंढाणा लिया । इस समय(इ.1636) आदिलशाह का खजाना डोणज्याच्या खिंड में निजाम का सरदार मुधाजी मायदे ने लुटा।
शहाजी राज्य के काल में सुभेदार दादोजी कोंडदेव मालवणकर इनके संरक्षण में कोंढाणा था ऐसा उल्लेख आदिलशाही फर्मानात है।
दादोजी कोंडदेव आदिलशाही के नोकर थे फिर भी वो शहाजी राजा से एक निष्ठ थे।एकनिष्ठ होने के कारण शिवाजी राजा ने मृत्यूपर्यंत (इ.1647) कोंढाणा लेने का प्रयत्‍न नही किया। पर उनके बाद जल्द ही राजा ने यह दुर्ग अपने कब्जे में लिया।
इतिहासकार श्री.ग.ह. खरे इनके मतानुसार तानाजी प्रसंग होने के पहले कोंढाणा का नाम ‘सिहगड’ किया गया इसके प्रमाण है। कै.ह.ना. आपटे इनके उपन्यास में तानाजी प्रसंग के बाद किले का नाम सिंहगड किया ऐसा उल्लेख है।
शिवाजी राजा के समय और उसके बाद यह किला कभी मराठो के पास तो कभी मुगलाे के अधीन था।
गडावरील ठिकाणे
बारूद के कोठार: दरवाजे से अंदर आने पर जो पत्थरों की इमारत दिखती है वही ये बारूद के कोठार दि. 11 सितंबर 1751 में इन कोठारों पर बिजली गिरी इस दुर्घटना में उस समय दुर्ग पर स्थित फडणिस का घर उद्‌ध्वस्त हुआ और घर के सभी सदस्य मारे गए।
टिलक बंगला : रामलाल नंदराम नाईक इनसे खरीदी गई जगह पर बने इस बंगलें में बाल गंगाधर तिलक आते रहते थे। 1915 साल में महात्मा गांधी और लोकमान्य तिलक इनकी मुलाकात इसी बंगले में हुई थी।
कोंढाणेश्वर : यह मंदिर शंकरजी का है और वे यादव के कुलदैवता थे। अंदर एक पिंडी और सांब है और यह मंदिर यादवकालीन है।
श्री अमृतेश्वर भैरव मंदिर’ : कोंढाणेश्वर के मंदिर से थोडा आगे गए तो यह अमृतेश्वर का प्राचीन मंदिर लगता है। भैरव यह कोली लोगों के देवता है। यादवो के पहले इस दुर्ग पर कोली की बस्ती थी। मंदिर में भैरव व भैरवी ऐसी दो मूर्ती दिखती है। भैरव के हाथ में राक्षस की मुंडी है।
देवटाके : तानाजी स्मारक के पीछे बाँए हाथ के छोटे तालाब के बाजू से बाई ओर जाने पर यह प्रसिद्ध ऐसा देवटाके लगता है। टंकी का उपयोग पीने के पानी के लिए किया जाता है और आज भी होता है। महात्मा गांधी जब पुणे आते थे तब जानकर इस टंकी का पानी पीने के लिए मंगाते थे।
कल्याण दरवाजा : दुर्ग के पश्चिम दिशा की ओर यह दरवाजा है।

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